राजनीति में ईमानदारी और सत्य-निष्ठा का अब कोई मूल्य नहीं रहा

भारत में ‘आया राम, गया राम’ की राजनीति तब शुरू हुई जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। उन पर निर्वाचित प्रतिनिधियों को थोक में खरीदकर विपक्षी दलों को कमज़ोर करने का आरोप लगता था। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भजन लाल के ज़माने में यह ज़ोर पकड़ा जब उन्होंने कांग्रेस सरकार बनाने के लिए थोक में विपक्षी विधायकों को खरीदा, हालांकि पार्टी चुनाव में अल्पमत में थी। अब भाजपा ने इस कला में महारथ हासिल कर ली है और भारतीय राजनीति में इस खतरे को अगले स्तर पर ले गये हैं। जैसा कि राजनीतिक विश्लेषक और कांग्रेस के पूर्व प्रवक्ता संजय झा ने एक बार कहा था कि जिस तरह से अब दलबदल हो रहा है, 2024 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस (नेहरू) बनाम कांग्रेस (मोदी) के बीच मुकाबला होने जा रहा है। इसका मतलब यह हुआ कि भारतीय राजनीति को कांग्रेस मुक्त भारत बनाने की भाजपा की योजना के बजाय भाजपा कांग्रेस सदस्यों से भर जायेगी।
गंभीर बात यह है कि इस तरह की व्यापक ‘आया राम, गया राम’ की राजनीति एक बुनियादी सवाल उठाती है—नैतिकता को क्या हो गया है, खासकर भारतीय राजनीति में। परिपक्व पश्चिमी लोकतंत्र में ऐसा होता नहीं दिखता। जन-प्रतिनिथि एक विशेष विचारधारा के प्रति अपनी प्राथमिकता के कारण एक विशेष पार्टी में हैं जिसके माध्यम से वे लोगों की सेवा करना चाहते हैं। यहां भारत में राजनीतिक विचारधारा केवल अपनी सेवा करना प्रतीत होती है। इससे भी बुरी बात यह है कि भाजपा, जो एक विचारधारा पर आधारित पार्टी होने और एक अलग पार्टी होने का दावा करती है, अब दल-बदली में विश्वास करने लगी है। यह न केवल अक्सर होता है बल्कि थोक में होता है।  इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन लोगों के खिलाफ गंभीर भ्रष्टाचार और आपराधिक मामले लम्बित हैं और खुद भाजपा ने उन पर आरोप लगाये हैं, उन्हें अपने पाले में ले लिया है। एक बार कार्रवाई होने के बाद मामले या तो गायब हो जाते हैं या ठंडे बस्ते में डाल दिये जाते हैं, जिससे कथित अपराधियों को बड़ी राहत मिलती है।
राजनीति में ईमानदारी और सत्यनिष्ठा का अब कोई मूल्य नहीं रह गया है। यह इस तथ्य को उजागर करता है कि देश में साक्षरता, कौशल और शैक्षिक स्तर में पर्याप्त सुधार के सभी बड़े दावों के बावजूद हमारी शैक्षिक प्रणाली पूरी तरह से दोषपूर्ण है। सच तो यह है कि हमारी शिक्षा प्रणाली जीवन की मूलभूत आवश्यकता यानी नैतिकता नहीं सिखाती। नैतिक शिक्षा का मतलब धार्मिक शिक्षा नहीं है। देखिए, इस देश में लोग किस तरह गाड़ी चलाते हैं। नियमों का उल्लंघन करने में डर की कोई झलक नहीं है। यहां तक कि पुलिसकर्मी भी ट्रैफिक सिग्नल पर दूसरी तरफ  मुड़ जाते हैं, यह जानते हुए भी कि बड़ी संख्या में लोगों ने सिग्नल पर लाइन पार करके या सिग्नल जम्प करके नियमों का उल्लंघन किया है।
भारत में नियम दंड मुक्ति के साथ तोड़े जाने के लिए बने हैं। दोपहिया वाहन चालक अपनी सुरक्षा के लिए हेलमेट नहीं पहनते हैं और पुलिसकर्मी इस उल्लंघन पर संज्ञान नहीं लेते हैं। एक विशेष पोस्टिंग पाने के लिए पुलिसकर्मियों ने स्वयं नियमों का उल्लंघन किया होगा और भ्रष्टाचार में लिप्त होंगे। मूल रूप से कानून का कोई डर नहीं है, जिसका सरेआम उल्लंघन हो रहा है, खासकर नैतिकता की कीमत पर अमीर और शक्तिशाली लोगों द्वारा। जब उन्हें पढ़ाने वालों में ही नैतिकता नहीं है तो स्कूली छात्रों को दोष क्यों दिया जाये। वे सत्ताधारी स्थानीय राजनेताओं को कथित रिश्वत देकर स्कूलों में, विशेषकर सरकार द्वारा संचालित स्कूलों में नौकरियां पाते हैं।
निजी स्कूलों में शिक्षकों को नियामक संस्था द्वारा निर्धारित वेतनमान से कम वेतन दिया जाता है और स्कूल प्राधिकारी उनसे एक शपथ पत्र लेते हैं कि उन्हें आधिकारिक वेतनमान का भुगतान किया गया है। यह हमारे विद्यालयों की मूल नैतिकता है। इसी तरह सरकारी नौकरियों में भी भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद है। पिछड़ों के उत्थान के लिए दी गयी संवैधानिक गारंटी आरक्षण में भ्रष्टाचार है। 
तमिलनाडु में डीएमके के पूर्व मंत्री सेंथिलबालाजी का मामला लीजिए। उन्हें राज्य परिवहन निगमों में नौकरियों के संबंध में भ्रष्टाचार के आरोपों के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया है। मामले उस समय के हैं जब वह एआईएडीएम के सरकार में मंत्री थे। अब वह डीएमके में हैं। द्रमुक नेता एम. के. स्टालिन, जिन्होंने स्वयं बालाजी के अन्नाद्रमुक में रहने के दौरान भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया था, अब उन्हें बचाते नज़र आ रहे हैं और उनकी गिरफ्तारी के बाद उन्होंने कई महीनों तक उन्हें बिना विभाग के मंत्री बनाये रखा। हालांकि उन्होंने हाल ही में इस्तीफा दे दिया, शायद अपना केस लड़ने के किसी मकसद से। भाजपा भी दल-बदल की समर्थक में है, अगर कोई बंगाल में सुभेन्दु अधिकारी, असम में हिमंत विश्व शर्मा, महाराष्ट्र में अजित पवार व अशोक चव्हाण इत्यादि के मामलों के आधार बनाया जाये। इन सभी व्यक्तियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं और भाजपा द्वारा अक्सर इन पर आरोप लगाये जाते रहे हैं। अब वे भाजपा का हिस्सा हैं और उनके भ्रष्टाचार के मुद्दों पर कोई बात नहीं होती। ये राजनेताओं के पाला बदलने के मामले हैं। भाजपा द्वारा गोवा,  कुछ पूर्वोत्तर राज्यों, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश आदि में सरकार बनाने के लिए धन और बाहुबल के माध्यम से विपक्षी दलों के कुछ विधायकों का समर्थन प्राप्त करके सरकारें बनायी गयी हैं। हाल ही में वे हिमाचल प्रदेश में विधिवत निर्वाचित बहुमत वाली कांग्रेस सरकार को गिराने का प्रयास कर रहे हैं।
अब भाजपा सत्ता में है और मोदी के करिश्मे, पार्टी के बाहुबल और धन-बल से इस अनैतिक दल-बदल राजनीति के कारण सत्तारूढ़ दल को कुछ अल्पकालिक लाभ होना तय है। उल्लेखनयी है कि कैडर स्थानीय स्तर पर पार्टी के लिए कड़ी मेहनत करते हैं, लेकिन उन्हें किसी अन्य पार्टी से आयातित कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाता है जिसके पास कोई वैचारिक आधार नहीं होता और वह उनका नेता बन जाता है। जीतने की क्षमता का कारक एक या दो चुनावों में काम कर सकता है, लेकिन कैडर परेशान हो जाता है और पार्टी मामलों में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना बंद कर देता है। कैडर की नाराज़गी तुरंत सामने नहीं आयेगी, लेकिन लम्बे समय में इसका असर पड़ता है, खासकर भाजपा जैसी कैडर आधारित पार्टी पर।
महत्वपूर्ण बात यह है कि सही सोच वाले नागरिकों को इस बात पर विचार करना शुरू करना होगा कि हम अपनी नैतिक शिक्षा कैसे सुधारें और उन राजनेताओं को अपने मताधिकार का प्रयोग कर जितायें, जो सच्चे, नैतिक व ईमानदार हैं और अपने कल्याण के बजाय निर्वाचन क्षेत्र और लोगों के कल्याण के बारे में सोचते हैं। इसके लिए अधिकांश लोगों, विशेषकर उत्पीड़ित लोगों को नैतिक शिक्षा प्रदान करने के लिए एक ठोस प्रयास की आवश्यकता होगी। यह आसान नहीं होने वाला है और इसके लिए पीढ़ियों तक जबरदस्त प्रयास की आवश्यकता है। 
(संवाद)