नेपाल के बदलते राजनीतिक रंग 

हिमालय की पहाड़ियों में बसे भारत के बेहद नज़दीकी तथा पड़ोसी देश नेपाल का महत्व इस कारण भी है कि दूसरी ओर यह चीन का भी पड़ोसी देश है। दोनों बड़े देशों में घिरा हुआ यह छोटा-सा देश अभी तक विकास के मार्ग पर तेज़ी से नहीं चल सका। यहां ज़रूरतें तथा कमियां निरन्तर बनी रहती हैं। इस देश ने गत आधी सदी में बड़े बदलाव देखे तथा सहन किए हैं। इसी समय में ही यह राजशाही की गिरफ्त से निकल कर नये संविधान का अनुसरणीय हो सका है। उससे पहले 10 वर्ष तक विभिन्न नाम वाली कम्युनिस्ट पार्टियों तथा उनके नेताओं ने राजशाही के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध लड़ा था। अंत में राजा को तख्त से उतार कर वर्ष 2008 में बनाए गए देश के अंतरिम संविधान के तहत विभिन्न राष्ट्रीय पार्टियों ने चुनाव में हिस्सा लिया और लोकतांत्रिक ढंग से समय-समय पर सरकारें बनाईं, परन्तु अभी भी इस राज्य में राजनीतिक स्थिरता नहीं आ सकी। चाहे वर्ष 2015 में इसे लोकतांत्रिक गणतंत्र घोषित करते हुए संविधान लागू किया गया, परन्तु उसके बाद भी डेढ़ दशक में इसके 16 प्रधानमंत्री बन चुके हैं। 275 सदस्यों वाले सदन में कभी भी किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। चाहे पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-माओवादी सैंटर (सी.पी.एन.-एम.सी.) नामक पार्टी के नेता हैं, परन्तु सदन में इस समय उनकी 32 सीटें ही हैं। वह कई बार दूसरी पार्टियों के गठबंधन से प्रधानमंत्री भी बन चुके हैं, परन्तु वह देश में राजनीतिक स्थिरता लाने में सफल नहीं हो सके। 
देश की सबसे बड़ी पार्टी नेपाली कांग्रेस है, जिसके नेता शेर बहादुर देउबा हैं, जो पहले 5 बार प्रधानमंत्री रह चुके हैं। अब 89 सीटों वाली नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष देउबा ने 78 सीटों वाली सी.पी.एन.-यू.एम.एल. के चेयरमैन के.पी. शर्मा ओली के साथ समझौता कर लिया है। वे दोनों मिल कर नई सरकार बनाने जा रहे हैं। देउबा और ओली का यह समझौता हुआ है कि वह शेष रहते 40 महीनों में बारी-बारी प्रधानमंत्री बनेंगे। यह सरकार कितने समय तक चल पाएगी, इस संबंध में तो कुछ विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता परन्तु भारत एवं चीन सीमांत निकटता के कारण इस देश में बड़ी दिलचस्पी लेते रहे हैं। भारत तो पिछले कई दशकों से नेपाल के साथ अनेक तरह की संधियों से जुड़ा रहा है। समय-समय इसके वहां के प्रशासनिक नेताओं से समझौते होते रहे हैं। भारतीय तथा नेपाली नागरिकों को एक-दूसरे के देश में जाने पर प्रतिबंध नहीं है। दोनों देशों के नागरिक एक-दूसरे के देश में अपनी योग्यता के अनुसार काम कर सकते हैं। आज भी लाखों की संख्या में नेपाली मूल के लोग भारत में बसे हुए हैं तथा यहां के नागरिक भी बन चुके हैं। पहले नेपाली मूल के गोरखों को भारतीय सेना में भी विशेष प्राथमिकता दी जाती रही है। आज  भी प्रत्येक क्षेत्र में दोनों देशों के मध्य बड़ा व्यापार होता है। कई पहलुओं से नेपाल की निर्भरता भारत पर बनी रही है। दूसरी तरफ चीन ने भी नेपाल के मूलभूत ढांचे को मज़बूत करने के लिए और इसकी ज़रूरतों को पहचानते हुए यहां विभिन्न परियोजनाओं में बड़ी धन-राशि लगाई है। 
आज वहां की मज़बूत राजनीतिक पार्टियों में कम्युनिस्टों का भी बड़ा प्रभाव देखा जा सकता है। यही कारण है कि जहां इन दोनों देशों की नेपाल में दिलचस्पी बनी रही है वहीं कट्टर कम्युनिस्ट विचारधारा वाली पार्टियों को छोड़ कर अन्य राजनीतिक पार्टियों ने हमेशा भारत के साथ हर तरह के सहयोग को प्राथमिकता दी है। इनमें सबसे बड़ी पार्टी नेपाली कांग्रेस है, चाहे अब नये बनने वाले प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली को चीन की तरफ झुकाव रखने वाला नेता माना जाता है परन्तु नेपाली कांग्रेस जिसके नेता शेर बहादुर देउबा हैं, ने हमेशा भारत के साथ जुड़ने को प्राथमिकता दी है। आगामी समय में यदि इस हिमालयाई देश का विकास तेज होता है तो इसके भारत के साथ संबंधों में और भी मज़बूती आने की सम्भावना बन सकती है, जो इस क्षेत्र के लिए लाभदायक सिद्ध होगी।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द