आखिरी मुलाकात

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अगले दिन जब पहुंचे तो सुबह के नौ बज रहा था। घर से बाबूजी मेरा भतीजा विपुल और छोटा भाई अखिलेश आया था।
अब दो छुट्टी ही बची थी। इस बार मैं लेखक होने के नाते अपने साहित्यिक मित्रों से नहीं मिल सका था। इसलिए फोन द्वारा सम्पर्क साधकर अपनी व्यस्तता बताकर उनके नाखुश मन पर स्नेह का आवरण डालकर अपने गंतव्य पर आने के तैयारी में लग गया।
नाशिक वापस लौटते वक्त बहुत सारी वस्तुएं जो महाराष्ट्र के धरती पर उपलब्ध नहीं था। मैं उन वस्तुओं की आपूर्ति घर से वापस आते समय टाटानगर से ही लाता था। जिसमें हवन सामग्री, सरसों तेल, कुछ मसाले, चना सत्तू वगैरह होता था। धीरे-धीरे अब यही वस्तुएं आनलाइन उपलब्ध हो जाने के कारण वहां से लाना बंद कर दिया।
आज मेरा आखिरी दिन था। स्टेशन पर हमारे घर के आधे से अधिक लोग मुझको छोड़ने के लिए आते थे। कारण कि परिवार में आपसी लगाव कुछ ज्यादा होने के कारण मन भीतर से द्रवित हो जाना स्वाभाविक था। मेरी मां तो अब दुनिया में रही नहीं। खासकर उनका लगाव मुझसे सबसे ज्यादा था। वह तो ना और नाशिक आने के चार दिन पहले से ही उनका चेहरा उतर जाता था। उदासी की परत उनके चेहरे पर चिपक जाती थी। क्योंकि जब नाशिक से वापस जमशेदपुर का चार माह पहले टिकट लेना होता था ऐसा करने से मुझे कन्फर्म टिकट मिल जाता था। और मां को जब बताता था तो वह एक-एक दिन का हिसाब रखती थी। कभी मैं गलती से उनको परखने के लिए कभी गलत दिन बताता तो मां कहती- नहीं बेटा इतना दिन बच गया। तब मुझे लगा कि दुनिया में सबसे बड़ा रिश्ता पति के बाद मां-बेटा का होता है। फिलहाल अब यही स्थिति बाबूजी का हो गया है। मेरे वापस आने की बातें सुनकर ही उनके आंखों से आंसू गिरने लगते हैं। गाड़ी खुलने के बाद ही सभी वापस जाते थे।
नाशिक पहुंचने के बाद वे सारे सुषुप्त स्मृतियां जो वक्त के साथ धूल पड़कर एक तरह से धुंधली पड़ गई थी। मेरे जेहन में यकायक भर-भराकर एक साथ उभर जाती। मैं खट्टी-मीठी अनुभवों के भंवर जाल में झूलता कभी मुस्कुरा देता था।
वैसे साल में एक बार तो जमशेदपुर जाना होता ही था। बच्चा जब छोटा था तो होली व दीवाली में जाना तो निश्चित था ही, कभी-कभी अकेले भी मैं बीच-बीच में हो आता था।
जैसे बाबूजी कम्पनी से अवकाश प्राप्त किए तो उस साल दो-तीन बार जाना हो गया। मैरिज एनिवर्सरी व बर्थडे पर जाना जरूरी नहीं समझता। एक तो छुट्टी की समस्या, दूसरा चौबीस घंटे की लंबी दूरी और उसमें भी रिजर्वेशन की समस्या। लेकिन ये समस्या निरंतर नहीं चला। बच्चे का स्कूल में एडमिशन होते ही साल में दो बार जाने का सिलसिला थम गया। महाराष्ट्र में होली की छुट्टी लगभग नगण्य सी रहती है। एक या दो दिन की। जबकि होली में हमारे यहां दो सप्ताह की छुट्टी रहना तो निश्चित है। नौकरी पेशा वाले होली व दिवाली की छुट्टियों पर ही घर आया-जाया करते थे। लेकिन महाराष्ट्र के दिवाली का कोई जवाब नहीं। हुनर के मामले में यह इतना समृद्ध धरती है कि यहां की जितनी भी लड़कियां हैं अपने-आप में एक अद्भुत कलाकार होती है। रंगोली बनाने, चित्रकला में तो जैसे यह परंपरागत होती हैं।
इसलिए अब साल में एक ही बार जाना होता है वह भी दिवाली के समय स्कूल की छुट्टी होने के कारण सपरिवार जाते हैं। और दो सप्ताह की छुट्टी बीताकर वापस नासिक वापस आ जाते हैं।
इसी आरोह-अवरोह के बीच दस साल का समय कैसे सरक गया पता नहीं चला। मेरा अमोल स्कूल के दहलीज को लांघकर कॉलेज के चरादीवारी में प्रवेश कर गया। अब साल में एक बार नाशिक से जमशेदपुर आना जाना होता है। उधर से कभी मां-पिताजी, कभी भाई परिवार सहित गर्मी की छुट्टियों में धमक आता।
 जहां मेरा घर है वहां का आबोहवा सभी को बहुत पसंद आता है। क्योंकि जहां मेरा फ्लैट है प्राकृतिक दृष्टिकोण से बेहद खूबसूरत मनमोहक जगह पर है। जो सबको काफी पसंद आता है।
 दिन यूं ही पूर्ववत बीतता रहा। इसी तरह दस साल का वक्त कैसे निकल गया पता नहीं चला। अब गांव मेरे जेहन से पूरी तरह विस्मृत हो गया था। अब तो नाना-नानी भी नहीं रहे। इस बार नासिक से जमशेदपुर आ रहा था तो पिताजी ने कहा कि इस बार लंबी छुट्टी लेकर आना। क्योंकि गांव से या तुम्हारे ननिहाल से कोई आता है तुमको याद करते हैं।

(क्रमश:)

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