एक और नई सोच के गांधी की तलाश

गांधी जयंती पर विशेष

गांधी जी की यादें लेकर दो अक्तूबर फिर आ गया। गांधी जी उस खुश्बू की तरह हैं जो बार-बार चाहने या न चाहने पर भी हिंदुस्तान की हवा में तैरती रहती है। वैसे गांधी महज दो अक्तूबर को याद किए जाने वाली शख्सियत नहीं थे वरन इस देश की मिट्टी में दबा वह बीज हैं जो कभी मिटता नहीं है। युगपुरुष घोषित हो चुके गांधी जी में भविष्य को देखने की एक दिव्य दृष्टि थी। तभी तो 15 अगस्त, 1947 को आज़ाद होने वाले भारत को उन्होंने कुछ ऐसे जंतर और मंत्र दिए जो आज भी उतने ही प्रासंगिक एवं उपयोगी हैं जितने तब थे जब गांधी जी देश की आज़ादी के लिए अहिंसा का अभूतपूर्व अस्त्र लेकर संघर्ष कर रहे थे। 
आज गांधी जी के बारे में उनके विरोधी कुछ भी कहें, उन पर कितने भी इल्जाम लगाएं, उनके निर्णय पर कितनी भी उंगलियां उठाएं लेकिन काल की शिला पर गांधी जी ने जो लिखा, वह बार-बार घिसे जाने पर भी न मिटता है, और न ही उसकी चमक कम होती है। काल के पहिए के अनगिन चक्करों ने न जाने कितने महापुरुषों को अर्श से फर्श दिखाए मगर गांधी जी आज भी शिखर पर बने हुए हैं। गांधी जी जानते थे कि राष्ट्र का विकास स्थानीय संसाधनों के विकास पर निर्भर करता है इसलिए उन्होंने स्वदेशी की अवधारणा पर बल दिया, कृषि व कुटीर उद्योगों के साथ-साथ बुनियादी शिक्षा पर बल दिया जिससे कि देश का आम आदमी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्थानीय संसाधनों से करते हुए जीवन सुचारू रूप से चला सके। 
समय के साथ प्रौद्योगिकी आई, वैश्विक व्यापार की बातें जोर पकड़ती गईं, भूमंडलीकरण की अवधारणा ने पैर पसारे और समय की मांग को देखते हुए हिंदुस्तान भी उसी रौ में बहने लगा मगर समय ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि विदेशों से कितने भी संसाधन या सुविधाएं आएं लेकिन 140 करोड़ लोगों की आवश्यकताओं की सम्यक पूर्ति यदि कहीं से होगी तो वह स्वदेशी उत्पादों से ही संभव होगी क्योंकि विदेशों से आयात में विदेशी मुद्रा का भारी खर्च होता है। वे चीजें महंगी भी पड़ती हैं तथा विदेशी वस्तुओं के उपयोग की प्रवृत्ति बढ़ने से देसी कुटीर उद्योग नष्ट होने लगते हैं और ऐसा हुआ भी। समय की नजाकत को देखते हुए एक प्रधानमंत्री यदि वोकल फॉर लोकल की बात करते हैं तो यह साफ संकेत है कि हम प्रच्छन्न रूप से गांधी एवं गांधीवाद को मान्यता दे रहे हैं।जब गांधी के अधिकांश समकालीन या परवर्ती महान नाम या तो गायब हो चुके हैं या भुला दिये गये हैं, तब भी उनका प्रभामंडल चमकदार है तो कोई तो बात है गांधी जी में जो उन्हें आज भी सम्मान दिला रहा है। गांधी जी का सबसे बड़ा बल था उनकी दृढ़ता। भले ही सारी दुनिया ने उनकी आलोचना की पर गांधी जी वही करते थे जो उनकी आत्मा को गवारा होता था। वह न किसी से डरते थे, न ही दबते थे अपितु बेखौफ जीने का यही अंदाज गांधी जी की ताकत बनता था।
गांधी जी का अहिंसावाद, उनका निर्धन के प्रति प्रेम, महिला हितों के प्रति लगाव, बेसिक शिक्षा का सिद्धांत, आखिरी आदमी तक आजादी का सुख पहुंचाने का संकल्प, किसी भी कीमत पर हिंसा का सहारा न लेने का जिद भरा दु:साहस, सत्य के साथ अनवरत प्रयोग, हथियारों के सामने निहत्थे अड़ने व लड़ने का जज्बा, किसी भी मन को न भाती बात या मुद्दे पर अनशन पर बैठ जाना गांधी जी को अपने समय के दूसरे नेताओं से अलहदा करता है।  
सत्ता में कोई भी रहे पर गांधी जी के विचार हर हाल में कायम रहते हैं। तभी तो आज भी गांधी जी का स्वच्छता अभियान जारी है। शिक्षा में हम बैक टू बेसिक की तरफ लौट रहे हैं। नई शिक्षा नीति के मसौदे में गांधी दर्शन और उनकी व्यवहारिकता की झलक साफ दिखाई देती है जब वह किताबी ज्ञान के बजाय व्यवहारिक कौशल के विकास पर बल देने की बात करती है। यह भी गांधी जी की वैचारिक परिपक्वता एवं दूर-दृष्टि का एक और सशक्त प्रमाण है।
आज तो देश में गांधी जी के राज्य का ही एक शख्स देश का नायक है। उनके व गांधी जी के दर्शन में यह अंतर है कि वह देश को तकनीकी के बल पर, डिजिटल बनाकर, आभासी दुनिया के माध्यम से आकाशों में ले जाना चाहते हैं हालांकि गांधी जी की ज़रूरत उन्हें भी पड़ी और उन्होंने गांधी जी को केवल कांग्रेस की बपौती होने के चस्पा लेबल से निकाल सबका गांधी बना दिया। 
गांधी जी कुटीर उद्योगों के माध्यम से रोज़गार को हर हाथ तक पहुंचाकर हिंदुस्तान बनाने का सपना पाले थे। स्किल इंडिया का पैगाम भी कमोबेश यही है। स्वदेशी के प्रोत्साहन के लिए ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम पर बल भी गांधीजी के चिंतन कर मुहर लगाने जैसा ही मानना चाहिए। 
गांधी जी रोज-रोज पैदा नहीं होते या यूं कहिए कि गांधी जी पैदा होते ही नहीं बल्कि गांधी बनना पड़ता है। गांधी बनने के लिए अड़ने, लड़ने, कूव्वत से काम पर जुटने, आखिरी अंजाम तक पहुंचने से पहले किसी भी हालत में न थकने और न ही रुकने का दम चाहिए। हिंसा व ताकत के खिलाफ लड़ने के लिए अविजेय आत्मबल चाहिए, सुविधाओं को लात मारने की निस्पृहता चाहिए, पद से दूर रहने व सत्ता से न घबराने का दिल चाहिए। तब कहीं जाकर थोड़ा बहुत ‘महात्मा’ बना जा सकता है और गांधी जी ने उस काल में महात्मा बनकर दिखाया जब काल सिर पर खड़ा दिखता था। बेशक बेहतरी के लिए आज भारत को एक और गांधी चाहिए। ऐसा गांधी जिसके पास नई सोच हो, नया हिंदुस्तान बनाने का जज़्बा हो और जो सर्वहारा वर्ग की चिंता करने वाला, चिंतनशील नायक बनकर उभर सके।