न सुशासन, न रोज़गार, सिर्फ ‘रेवड़ियों’ की बौछार

राजनीतिक दलों के द्वारा चुनावों के समय मतदाताओं के लिए एक-दूसरे से बढ़ कर ‘रेवड़ियों’ (फ्रीबीज) की जो बौछारें की जा रही हैं, वह मतदाताओं को ‘रिश्वत’ नहीं तो और क्या है, इसे समझना ज़रूरी है। जिन राजनीतिक दलों ने अपने चुनावी वायदों के अनुपालन में लापरवाही बरती, उनके खिलाफ क्या कार्रवाई होनी चाहिए, यह भी स्पष्ट नहीं है। इसलिए वायदे करो और फिर भूल जाओ या फिर आधे-अधूरे पूरे करो, कोई पूछने वाला नहीं है। तभी तो विभिन्न राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए मतदाताओं को तरह-तरह के लालच देकर लुभाने की कोशिश करते हैं। चूंकि फरवरी में दिल्ली विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, इसलिए इन रेवड़ियों की चर्चा पुन: आवश्यक है ताकि मतदाता जागरूक हो सकें। मुख्य सवाल यह है कि सुशासन से लेकर रोज़गार के मोर्चे पर विफल हो चुकीं जनतांत्रिक सरकारों के द्वारा जिस तरह से रेवड़ियों की घोषणाएं की जा रही हैं, क्या यह देश की अर्थव्यवस्था के लिहाज से उचित है? यदि उचित नहीं है तो इससे बचने का रास्ता क्या है?
देखा जाए तो कबीलाई युग से लेकर लोकतांत्रिक सरकार तक मनुष्य की पहली ज़रूरत शांति और सुरक्षा है ताकि वह सुरक्षित माहौल में मेहनत करते हुए अपना जीवन निर्वाह कर सके और इस देश-दुनिया को बेहतर बनाने में अपना बनता  योगदान दे सके। हालांकि ऐसे सुशासन की गारंटी न तो तब मिली थी और न अब मिली हुई है। शासक-प्रशासक बेहतर हो तो क्षणिक सुख-शांति की उम्मीद की जा सकती है।
एक ज़माने में जो राजनीतिक दल शिक्षा और स्वास्थ्य के बजट में कटौती दर कटौती करते चले गए यह कह कर कि राजकोषीय घाटे को पाटना है। अब उन्हीं के द्वारा जब रेवड़ियों की वकालत की जा रही है, तो इस राजनीतिक तिकड़म को समझना भी दिलचस्प हो जाता है। चाहे संसदीय चुनाव हो या विधानसभा चुनाव, या फिर स्थानीय निकाय चुनाव, होने तो 5 साल बाद ही हैं। इसलिए जैसे-तैसे जनता के साथ चुनावी वायदे करके सरकार बना लो, इसी घुड़दौड़ में सभी राजनीतिक दल जुट जाते हैं।
अन्ना हज़ारे के आन्दोलन से उपजी आम आदमी पार्टी (आप) ने लोगों को जो रेवड़ियों की सियासी लत लगाई और दिल्ली से पंजाब तक कांग्रेस-भाजपा का सफाया कर दिए,  उससे दोनों प्रमुख पार्टियों ने शुरुआती आलोचनाओं के बाद ‘आप’ के राजनीतिक एजेंडे को ही अपनाने में ही अपनी भलाई समझी और कुछ हद तक सफलता भी पाई। हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में कांग्रेस की विजय और हरियाणा व उड़ीसा में भाजपा की जीत इसी बात की साक्षी है। यही वजह है कि भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग), ‘आप’ और कांग्रेस ने दिल्ली विधानसभा चुनाव-2025 में एक-दूसरे को मात देने के लिए अपने-अपने ढंग से मुफ्त की रेवड़ियों के पिटारे खोल दिए हैं। कौन क्या दे रहा है, इसकी चर्चा सर्वत्र हो रही है। वह भी तब, जब करदाताओं की ओर से इस तरह की रेवड़ियों की खुलेआम आलोचना की जा रही है। उधर केंद्र सरकार की नीतियों पर सर्वोच्च न्यायालय तक ने टिप्पणी की थी कि आखिर 80 करोड़ लोगों को आप कब तक मुफ्त या फिर कम कीमत पर अनाज देंगे। ऐसे में उन्हें आप रोज़गार क्यों नहीं दे देते? अदालत की यह टिप्पणी बिल्कुल सही है। मुफ्त की रेवड़ियां एक नए आर्थिक संकट को जन्म दे रही हैं। इसलिए इसको हतोत्साहित करने के लिए मतदाताओं को ही आगे आना होगा अन्यथा सरकारों तथा राजनीतिक दलों की यह नीति भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक सिद्ध होगी। डॉलर के मुकाबले गिरता रुपया भी तो इसी बात का संकेत है। प्राकृतिक संसाधनों पर सरकार और पूंजीपतियों का बढ़ता कब्ज़ा, भूमि और मौद्रिक संसाधनों के असमान बंटवारे की नीति, समान मताधिकार से इतर विभिन्न कानूनी असमानताएं समाज और व्यवस्था को निरन्तर खोखला करती जा रही हैं। 
ऐसे में सबको समान शिक्षा और योग्यता के मुताबिक रोज़गार देने की सरकारी नीति आखिर कब आकार लेगी, ज्वलंत प्रश्न है। वहीं, न तो सबके लिए स्वास्थ्य सुविधाओं की व्यवस्था है, न ही स्तरीय शिक्षा और न ही सुविधाजनक परिवहन। गरीबी हटाओ और रोटी-कपड़ा-मकान का नारा भी पूरी तरह खोखला हो चुका है।
आज ज़रूरत है कि पूरे देश में एक समान कानून लागू हो। सभी संसाधनों का ईमानदारी से बंटवारा हो। दलित, आदिवासी, ओबीसी, अल्पसंख्यक की मदद के आड़ में इसी वर्ग के सत्ताधारी नेताओं और अधिकारियों को बेजा लाभ देने के नियमों में संशोधन हो। सभी लोगों की आय सुनिश्चित होनी चाहिए या फिर उन्हें विशेष भत्ता दिया जाना चाहिए। आपदाग्रस्त लोगों को बिना भेदभाव विशेष मदद मिलना सुनिश्चित किया जा जाना चाहिए। (युवराज)

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