लोग मतदान करने क्यों नहीं जाते ?
राष्ट्रीय मतदाता दिवस पर विशेष
हमारे देश में इस समय लगभग सौ करोड़ मतदाता हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में एक तिहाई मतदाताओं ने अपने अधिकार का इस्तेमाल नहीं किया। क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि मतदान प्रतिशत के घटने या बढ़ने का सीधा असर इस बात पर पड़ता है कि जो चुने गए हैं, वे यदि सरकार बना लेते हैं तो वह सबकी सहमति से बनी सरकार न होकर अल्पमत की सरकार होगी!
मतदाता दिवस की भूल-भुलैया
जिस दिन यानी 26 जनवरी, 1950 को भारत एक गणराज्य घोषित हुआ था, उससे एक दिन पहले 25 जनवरी को चुनाव आयोग का गठन किया जा चुका था। इसका अर्थ था कि देश का शासन मतदाताओं द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के हाथ में जाना तय किया गया था। जब यह बात सरकार के ध्यान में आई कि यह दिन तो बहुत महत्वपूर्ण है, तो इसे ‘मतदाता दिवस’ घोषित कर बड़े समारोह के रूप में मनाया जाने लगा। इस दिन शपथ भी दिलायी जाती है जो सरकारी कार्यालयों या सरकार द्वारा आयोजित कार्यक्रमों का हिस्सा रहती है। आम लोग आम तौर से ऐसे आयोजनों से नदारद रहते हैं।
यह तो तय है कि ज़्यादातर मतदान वहीं करने जाते हैं जो किसी उम्मीदवार या दल पर आंखे मूंदकर विश्वास करते हैं या फिर किसी के प्रति इतनी निष्ठा या आस्था रखते हैं कि उसका कहा ब्रह्म वाक्य की भांति होता है। प्रश्न उठता है कि लोग अपने संवैधानिक अधिकार का उपयोग करने में कोताही क्यों करते हैं, क्या उनके मन में कोई शंका या हिचकिचाहट होती है, जो उन्हें अपने अधिकार का उपयोग करने के प्रति उत्साहित नहीं करती। लगभग पैंतीस करोड़ वोटर वोट क्यों नहीं देते, यह सवाल चिंता का विषय है और यह हमारे देश का ही मामला नहीं है बल्कि अन्य देशों का भी है। अनेक देशों ने अनिवार्य वोटिंग की प्रक्रिया अपनाई लेकिन फिर भी वहां वोटिंग प्रतिशत में अधिक सुधार नहीं हुआ। लोगों ने स्वयं को मतदाता सूची में रजिस्टर कराना ही छोड़ दिया। अब किसी को ज़बरदस्ती मतदान करने को तो विवश कर नहीं सकते क्योंकि इससे व्यक्तिगत स्वाधीनता का हनन होता है, यहां तक कि निजी जीवन में हस्तक्षेप भी माना गया।
इस हालत में ऐसा क्या किया जाए कि मतदान प्रतिशत बढ़े। ऐसा भी नहीं है कि लोगों को वोट का अर्थ नहीं पता क्योंकि आसाम के धुबरी में लोकसभा चुनाव में 92 प्रतिशत से अधिक मतदान हुआ। सबसे कम श्रीनगर में हुआ और इसका कारण वहां की राजनीतिक परिस्थितियां बताया गया, परन्तु बाकी जगह पर लोग मतदान क्यों नहीं करते, इसका एक कारण तो यह है कि इतने बड़े देश में केवल साढ़े दस लाख वोटिंग बूथ बनाये गए हैं। यह एक बड़ा कारण है क्योंकि वोट डालने इतनी दूर जाना और वह भी स्वयं अपने साधनों से तो यह संभव नहीं है। वोट डालने के लिए एक दिन की कमाई का बलिदान किसी तरह गुजर बसर कर रहे व्यक्ति के लिए बहुत होता हो और इस अवस्था में जबकि सोच यह हो कि उसके एक वोट से कौन सा फर्क पड़ जाना है, तब तो कतई नहीं। यह बात भी सुझाई गई कि जिस तरह आज मोबाइल क्रांति का दौर है तो उसका इस्तेमाल कहीं से भी वोट डालने के लिए किया जा सकता है। इसमें खतरा यह है कि जिस तरह पहले बूथ लूटने की घटनाएं होती थीं, अब इसकी जगह बड़ी संख्या में लोगों के मोबाइल अपने कब्ज़े में लेकर मनपसंद उम्मीदवार को वोट देने की बीमारी शुरू हो सकती है।
कुछ तो करना होगा
जिस तरह ‘एक देश, एक चुनाव’ की चर्चा चल रही है, पूरे देश में वोटर कहीं भी हो, वह अपने क्षेत्र के उम्मीदवार को वोट दे सके, इसकी व्यवस्था करने के बारे में सोचा जाना चाहिए। अभी तो हो यह रहा है कि जहां वोटर पंजीकृत है, वहां वोट डालने वाले दिन वह अपनी नौकरी या रोज़गार के कारण नहीं है तो वह चाहकर भी अपने मताधिकार का उपयोग नहीं कर सकता।
वह इस कारण उदास भी होता है, लेकिन उन्हें कैसे वोटिंग बूथ तक लाया जाए जो वोटिंग के प्रात उदासीन भाव रखते हैं, वे किसी भी तरह मतदान करना ही नहीं चाहते और ऐसे वोटरों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है, परेशान करने वाला यही तथ्य है। वोट न डालने का सीधा अर्थ गलत व्यक्ति के चुन लिए जाने का है और यह स्थिति देश को अराजकता की ओर ही ले जाती है। यदि देश को सशक्त बनाना है तो वोट प्रतिशत बढ़ाने के उपाय करने ही होंगे और वे भी बिना किसी प्रलोभन, लालच या दिखावे के, तब ही देश की अर्थव्यवस्था से लेकर लोगों के जीवन स्तर में सुधार और रहन-सहन में परिवर्तन हो सकता है। ये जो उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों के वोट बैंक बन जाते हैं, उसे समाप्त किए बिना पारदर्शी चुनाव होना दूर की कौड़ी है, इसका समाधान राष्ट्रीय मतदाता दिवस की अग्निपरीक्षा है।