भारतीय कम्पनियां क्यों कर रही हैं काम के घंटे बढ़ाने की वकालत ?
कॉरपोरेट क्षेत्र काम के घंटों में वृद्धि और उनके श्रम के मूल्य से असंगत कम वेतन देने की वकालत कर रहा है, जो एक भयावह संदेश देता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के चरित्र में बदलाव आ रहा है और यह पूंजीवादी औद्योगिक संबंध की रूपरेखा प्राप्त करने के लिए पूर्ण चक्र में आ गया है।कार्लमार्क्स का मानना था कि पूंजीपति श्रमिकों को उनकी श्रम शक्ति का उत्पादन करने के लिए ज़रूरत से ज़्यादा घंटे काम करवाकर उनका शोषण करते हैं। उद्योग के कप्तान बिल्कुल ज्यादा अवधि तक काम करवाने के पक्ष में तर्क दे रहे हैं। कॉरपोरेट के किसी भी दिग्गज या पूंजीपति ने यह नहीं बताया है कि कर्मचारियों और मज़दूरों के वेतन और मज़दूरी में वृद्धि की जायेगी या काम के घंटों में वृद्धि के अनुरूप होगी। उनका रुख इस सिद्धांत की पुष्टि करता है कि काम के समय को लेकर विवाद पूंजीवाद की केंद्रीय गतिशीलता थी।
भारतीय उद्योगों के कप्तान काम के घंटे बढ़ाकर 70 घंटे, और कुछ तो 90 घंटे तक करने की भी मांग कर रहे हैं। जाहिर है कि औद्योगिक इकाई के विकास के लिए श्रमिक को अपने पारिवारिक जीवन और अवकाश के समय का त्याग करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। यह देखना विडम्बना है कि विनिर्माण में लगातार गिरावट आ रही है, प्रति प्रतिष्ठान सकल मूल्य वर्धन (जीवीए) 2022.23 की तुलना में 2023-24 में 6.7 प्रतिशत कम हो गया है और इसी अवधि में प्रति श्रमिक जीवीए 4.2 प्रतिशत कम हो गया है। असंगठित क्षेत्र के वार्षिक सर्वेक्षण (एएसयूएसई) के एक तथ्य पत्रक के अनुसार, यह संगठनात्मक और व्यक्तिगत दोनों स्तरों पर कम उत्पादकता को दर्शाता है।
मौजूदा आर्थिक स्थिति मेंए काम के घंटे बढ़ाने की पैरवी करना अशुभ योजना की बू आती है। यह महज संयोग नहीं है कि काम के घंटे बढ़ाने का मुद्दा तब उठाया गया है, जब विनिर्माण में गिरावट आयी है। यह दक्षिणपंथी राजनीतिक ताकतों द्वारा समर्थित कप्तानों की एक सोची-समझी चाल है, ताकि भारतीय मजदूर वर्ग को पूरी तरह से खत्म किया जा सके, जिसे भगवा पारिस्थितिकी तंत्र के शासन के तहत उनके विकास और विस्तार के मार्ग में एक बड़ी बाधा के रूप में देखा जाता है। भारतीय श्रम बाज़ार की हालत खराब है। यह विशेष रूप से युवा लोगों के बीच उच्च बेरोज़गारी की गंभीर चुनौती का सामना कर रहा है। 15 वर्ष और उससे अधिक आयु के लोगों के लिए बेरोज़गारी दर 3.2 प्रतिशत है। 15 से 29 वर्ष की आयु के लोगों के लिए बेरोज़गारी दर 10.2 प्रतिशत है। शहरी क्षेत्रों में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में बेरोज़गारी दर अधिक है। शहरी क्षेत्रों में महिलाओं की बेरोज़गारी दर ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक है।जबकि पूंजीवादी देशों में आम तौर पर विकासशील देशों की तुलना में काम के घंटे कम होते हैं और हाल के वर्षों में उनमें से कुछ ने काम के घंटों को और भी कम कर दिया है, भारतीय दिग्गज काम के घंटे बढ़ाने के लिए तरस रहे हैं। आय में वृद्धि के साथ विकसित या पूंजीवादी देशों में श्रमिक अधिक अवकाश समय वहन कर सकते हैं। यह निश्चित रूप से भारत और उसके श्रम बल के मामले में नहीं है। अवकाश समय की अवधारणा एक विकृत विचार है। श्रमिकों को इसकी स्पष्ट समझ नहीं है।
क्या इन मालिकों को लगता है कि काम के घंटे बढ़ाकर वे अपने मुनाफे को कई गुना बढ़ा सकते हैं? राष्ट्रीय आय और औसत काम के घंटों के बीच एक संबंध है। कॉर्पोरेट क्षेत्र ने व्यापार के प्रति अपना दृष्टिकोण बदल दिया है। यह विनिर्माण में बहुत अधिक पैसा निवेश करने को तैयार नहीं है। निर्माता तो कच्चे माल को तैयार उत्पादों में बदलने के पक्ष में हैं तथा पूरे जीवन-चक्र को सटीकता के साथ प्रबंधित करते हैं जबकि व्यापारिक कम्पनियां महत्वपूर्ण मध्यस्थ के रूप में कार्य करती हैं, जो निर्माताओं और खरीदारों के बीच संबंधों को सुविधाजनक बनाती हैं। अत्यधिक विकसित राष्ट्र बनने की चाह मेंए कॉर्पोरेट क्षेत्र ने भी शॉर्टकट चुना है। विनिर्माण में निवेश करने के बजाय यह व्यापार के माध्यम से लाभ कमाने के लिए प्रयासरत है।व्यापारिक कम्पनियां निर्माताओं और खरीदारों के बीच मध्यस्थ के रूप में कार्य करती हैं। वे उत्पादों की सोर्सिंग और वितरण की सुविधा प्रदान करती हैं। वे अक्सर कई कारखानों से प्राप्त विविध उत्पाद सूची बनाये रखते हैं। वर्तमान में चीनी उत्पादों ने भारतीय बाज़ार में बाढ़ ला दी है। यह उल्लेखनीय है कि अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) प्रति सप्ताह 48 घंटे से अधिक काम करने को अत्यधिक मानता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह स्वास्थ्य, सुरक्षा, उत्पादकता और कार्य-जीवन संतुलन को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकता है। (संवाद)