तपती धरती, पिघलते ग्लेशियर चिंता का सबब !

धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है। वास्तव में धरती का तापमान का लगातार बढ़ना कहीं न कहीं गंभीर खतरों का संकेत दे रहा है। आज मानव की जीवनशैली लगातार बदलती चली जा रही है और मानवीय गतिविधियों के कारण, अंधाधुंध विकास, जंगलों की अंधाधुंध कटाई, शहरीकरण, औद्योगिकीकरण के कारण ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को लगातार बढ़ावा मिल रहा है जिससे नीले ग्रह पर खतरा मंडराने लगा है। जानकारी के अनुसार मानवीय जीवनशैली के कारण इस सदी के अंत तक धरती का औसत तापमान 2.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा। वास्तव में धरती के तापमान के इतना बढ़ने का सीधा सा मतलब यह है कि इस सदी के अंत तक धरती के ग्लेशियरों की बस एक चौथाई बर्फ ही बची रहेगी तथा बाकी तीन चौथाई बर्फ खत्म हो जाएगी। कहना गलत नहीं होगा कि ग्लेशियर अब किताबों का ही हिस्सा बनकर रह जाएंगे। 
ग्लोबल वार्मिंग बढ़ने के कारण  दुनिया के कई तटीय शहर डूब जाएंगे। यदि हम यहां आंकड़ों की बात करें तो भारत में मुंबई, चेन्नई, विशाखापट्नम जैसे कई तटीय शहरों का बड़ा इलाका करीब दो फुट तक पानी में डूब जाएगा। दरअसल यह खुलासा किसी और ने नहीं बल्कि दुनिया की प्रतिष्ठित पत्रिका साइंस में छपी एक ताज़ा रिपोर्ट में किया गया है। इस संदर्भ में ताज़ा उदाहरण स्विट्जरलैंड का है, जहां ऊंचे पहाड़ों से टूटे एक ग्लेशियर ने निचले इलाके में तबाही मचा दी। नीचे घाटी में बसे ब्लैटन गांव (90 प्रतिशत गांव को) बर्च नाम के ग्लेशियर ने बर्बाद कर दिया। दरअसल, ग्लेशियरों के इस तरह टूटने के पीछे सबसे बड़ी वजह है धरती के औसत तापमान का बढ़ना। कहना गलत नहीं होगा कि तापमान में बढ़ोत्तरी भारी बारिश (अतिवृष्टि), तो कहीं सूखा (अनावृष्टि), कभी ग्लेशियरों की झीलों के फटने तो कभी बड़े तूफानों जैसे अतिमौसमी बदलावों की शक्ल में हमारे सामने आ रहा है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि प्रतिष्ठित पत्रिका साइंस में छपी रिसर्च के मुताबिक दुनिया के ग्लेशियर मौजूदा अनुमान से कहीं ज़्यादा तेज़ी से पिघल रहे हैं और इस सदी के अंत तक अगर धरती का औसत तापमान अगर 2.7 डिग्री सेल्सियस और बढ़ा तो दुनिया में मौजूद ग्लेशियरों में सिर्फ 24 प्रतिशत बर्फ ही बची रह जाएगी, जो कि एक बड़ा और गंभीर खतरा है। जानकारी के अनुसार ग्लेशियरों की 76 प्रतिशत बर्फ पिघल चुकी होगी। 
पाठकों को बताता चलूं कि पेरिस समझौते में ये तय हुआ था, कि दुनिया के तापमान को पूर्व औद्योगिक तापमान से 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा नहीं बढ़ने देना है, लेकिन आज विकसित देश ही कार्बन उत्सर्जन के अधिक जिम्मेदार हैं और कोई भी ग्लोबल वार्मिंग को कम करने को लेकर जिम्मेदार नज़र नहीं आते। साइंस पत्रिका में छपी रिसर्च के मुताबिक अगर दुनिया का औसत तापमान 1.5डिग्री सेल्सियस तक ही बढ़ा तो भी ग्लेशियरों की 46 प्रतिशत बर्फ पिघल जाएगी, सिर्फ 54 प्रतिशत बर्फ ही बची रहेगी, यह बहुत ही चिंताजनक है, क्योंकि ग्लेशियर पानी के बड़े स्रोत होते हैं और जल ही जीवन है। शोध में सामने आया है कि अगर औसत तापमान बढ़ना बंद हो जाए और उतना ही रहे, जितना कि आज है, तो भी दुनिया के ग्लेशियरों की बर्फ 2020 के स्तर से 39 प्रतिशत कम हो जाएगी। मतलब यह है कि आज भी तापमान कुछ कम नहीं है और यह नीले ग्रह को काफी नुकसान पहुंचा रहा है।
शोध में पाया गया है कि यदि दुनिया का औसत तापमान 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ा तो स्कैंडिनेवियन देशों यानी नॉर्वे, स्वीडन ल डेनमार्क के ग्लेशियरों की सारी बर्फ पिघल जाएगी। इतना ही नहीं, उत्तर अमरीका की रॉकी पहाड़ियों, यूरोप के आल्प्स और आइसलैंड के ग्लेशियरों की करीब 90 प्रतिशत बर्फ पिघल जाएगी। औसत तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी का भारी असर दक्षिण एशिया में हिंदूकुश हिमालय पर भी पड़ने की संभावनाएं जताई गईं हैं। यहां पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि हिंदू कुश हिमालय का ग्लेशियर दो अरब लोगों का भरण-पोषण करने वाली नदियों को पानी देता है, लेकिन सदी के अंत तक ये अपनी 75 प्रतिशत बर्फ खो सकता है, जिससे नदियों का पानी भी सूख सकता है। यहां कहना गलत नहीं होगा कि अगर दुनिया के देश तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोक पाते हैं (जैसा कि पेरिस समझौते में तय हुआ था), तो हिमालय और कॉकेशस पर्वत में ग्लेशियर की 40.45 प्रतिशत बर्फ बचाई जा सकती है। यानी अब भी कुछ किया जाए, तो हालात बहुत हद तक सुधर सकते हैं। वाकई यह बहुत ही चिंताजनक बात है कि साल 2020 के मुकाबले हिंदूकुश हिमालय के ग्लेशियरों में महज़ 25 प्रतिशत बर्फ ही रह जाएगी। अंत में यही कहूंगा कि हमें ग्लेशियरों को संरक्षित करना होगा और जल प्रबंधन को बढ़ावा देना होगा, ताकि भविष्य में पानी की आपूर्ति सुनिश्चित किया जा सके।

#तपती धरती
# पिघलते ग्लेशियर चिंता का सबब !