दुनिया की ‘फैक्टरी’ बन चुका है चीन
अस्सी के दशक के मध्य में जब मेरी पीढ़ी राष्ट्रीय स्तर की पत्रकारिता में अपने कदम जमाने की कोशिश कर रही थी, उस समय हमें सिखाया गया था कि पाकिस्तान और चीन हमारा दुश्मन है और रूस दोस्त है। तब से अब तक गंगा-जमुना में बहुत पानी बह चुका है। आज स्थिति यह है कि न तो रूस पहले जैसा दोस्त रहा है, और न ही चीन पहले जैसा दुश्मन। हां, पाकिस्तान आज भी दुश्मन की श्रेणी में आता है। लेकिन, 1971 की तरह सोवियत संघ का बेड़ा मार्शल जुकोव भारत के पक्ष में अमरीका के 7वें बेड़े के मुकाबले आने के लिए तैयार नहीं है। उल्टे रूस कराची में पाकिस्तान के लिए एक विशाल स्टील प्लांट का जीर्णोद्धार करने जा रहा है। इधर भारत चीन से ज़बरदस्त पैमाने पर माल आयात कर रहा है। साथ में चीन पाकिस्तान का खुला समर्थन करते हुए भी दिख रहा है। जो अमरीका 1971 में खुल कर पाकिस्तान का साथ दे रहा था, वह आज भारत पाक को एक ही तराजू में तौलने की कोशिश कर रहा है। इस परिस्थिति ने भारत की विदेश नीति के लिए नयी चुनौतियां पैदा की हैं। इन चुनौतियों का भारतीय शासकों को अभी तक एहसास तक नहीं हो पाया है।
1962 के युद्ध में हुई पराजय की कड़वी यादें हमें आज भी बेचैन करती हैं। पिछले 63 साल में कई बार अपनी विस्तारवादी हरकतों के ज़रिये चीन ने इस कड़वाहट को और बढ़ाया है। ऑपरेशन सिंदूर में भारत के म़ुकाबले जो हथियार पाकिस्तान ने इस्तेमाल किये थे, उनमें 80 प्रतिशत चीन से आये थे। क्या यह बात ताज्जुब में नहीं डालती कि हमारी देशभक्ति और राष्ट्रवाद को इतनी अधिक ठेस लगाने के बावजूद आम भारतवासी पर चीनी माल न ़खरीदने की अपीलों का कोई उल्लेखनीय असर नहीं दिखाई पड़ता। भले ही वह अपील प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ही क्यों न की हो। यह विरोधाभास हमें युरोप व अमरीका के आर्थिक प्रभुत्व के मुकाबले चीन की लगातार बढ़ती हैसियत के कारणों पर ़गौर करने की तरफ ले जाता है। इन कारणों का ताल्ल़ुक इतिहास से भी है, और वर्तमान से भी।
मशहूर विद्वान जोस़ेफ नीढम नाम ने 1954 से 2008 के बीच में रची गई अपनी 27 खंडों की रचना ‘साइंस एंड सिविलाइज़ेशन इन चाइना’ में दिखाया है कि ईसा पूर्व पहली सदी से लेकर अगली 15 सदियों के बीच चीनी विज्ञान और सभ्यता पश्चिम से बहुत आगे थी। न केवल बौद्धिक और दार्शनिक रूप से, बल्कि मानवीय जीवन की व्यावहारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के मामले में भी चीन की उपलब्धियों का मुकाबला इस दौर का पश्चिम नहीं कर सकता था। प्रयोगों, आविष्कारों और प्रौद्योगिकी के मामले में भी चीन बहुत आगे था। नीढम के अनुसार चीन की यह श्रेष्ठता उसकी संस्कृति और सामाजिक विशेषताओं का परिणाम थी। उसके पास प्रकृति के नियमों की बेहतर समझ तो थी ही, उसकी सामाजिक-आर्थिक संस्थाओं की संरचना भी पश्चिम से श्रेष्ठ थी।
16वीं शताब्दी से अगर हम सीधे 20वीं और 21वीं शताब्दी में छलांग लगाएं तो हमें दिखाई पड़़ता है कि चीनी शासकों ने पिछले 75 साल में अपनी विशाल आबादी को 100 प्रतिशत शिक्षित करने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर निवेश किया है। चीन की उच्चशिक्षा की क्वालिटी इस समय पश्चिम की उच्चशिक्षा से कहीं भी कम नहीं है। ज्ञान के अधिकतर क्षेत्रों में चीनी भाषा में लिखे गये शोध-आलेख न केवल संख्या में सबसे अधिक हैं, बल्कि सारी दुनिया में उन्हें सर्वाधिक उद्धृत किया जाता है। ऑस्ट्रेलियन स्ट्रेटजिक पॉलिसी इंस्टीट्यूट के मुताबिक चीन 2019 से 2023 के बीच 64 प्रमुख तकनीकों में से 57 में अमरीका से आगे निकल गया है। चूंकि ट्रम्प ने अमरीका में रिसर्च फंडिंग में कटौती कर दी है, और वहां ़गैर-अमरीकी मूल के अनुसंधानकर्ताओं को नौकरियों से हटाया जा रहा है, इसलिए अब चीन जल्दी ही बाकी प्रौद्योगिकियों में भी आगे निकल जाएगा। दुनिया में सबसे ज़्यादा इंडस्ट्रियल रोबोट चीन में इस्तेमाल किये जा रहे हैं। चीन कुवांटम कम्प्यूटिंग, जीन एडिटिंग और नयी दवायें खोजने में वह बहुत आगे है। पिछले साल दिसम्बर में चीन ने एंटीमनी, गैलियम और जर्मेनियम जैसे सुपरहार्ड पदार्थों को अमरीका भेजने पर प्रतिबंध लगा दिया, ताकि अमरीका को उनका लाभ न मिल सके। इन सुपरहार्ड पदार्थों के बिना अत्याधुनिक चिप और मशीनें नहीं बनायी जा सकतीं।
80 के दशक में ही चीन ने तय कर लिया था कि वह विदेशी पूंजी और उद्योग के लिए अपने दरवाज़े तभी खोलेगा जब उसे ठोस फायदा (तकनीक और विज्ञान हासिल करने के सौदे के रूप में) होगा। (भारत अभी तक ऱाफेल बनाने वाली फ्रांसीसी कम्पनी दसों से इस विमान का सोर्स कोड हासिल नहीं कर पाया है)। चीन ने अपने निजी क्षेत्र को नये आविष्कारों के लिए प्रोत्साहित किया और निर्यात से मिलने वाले अतिरिक्त मुनाफे को इन्फ्रास्ट्रक्चर में लगाया। इस तरह उसने उच्च, मध्यम और निचले स्तर के कारखाना-निर्माण में एक ज़बरदस्त क्रांति कर डाली। इस समय चीन दुनिया की फैक्ट्री बन चुका है। चीन किसी को पसंद हो या न पसंद हो, उसके माल के बिना किसी का काम नहीं चलने वाला है।
भारत की चीन से नाराज़गी जायज़ है। वह न केवल पाकिस्तान को सैन्य मदद कर रहा है, बल्कि उसकी कोशिश है कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में भारत को एक बड़ी त़ाकत की मान्यता न मिल सके। वह अहमियत के लिहाज़ से भारत और पाक को बराबरी पर तौल रहा है। इसी को अंग्रेज़ी में कहा जाता है कि वह भारत को पाक के साथ हाइ़फनेटिड करना चाहता है। ज़ाहिर है कि दुनिया के मंच पर भारत को चीन से भिड़ना होगा लेकिन अपनी शिक्षाव्यवस्था का हुलिया दुरुस्त करने, पश्चिम से सौदा करने के मामले में अपने हित का ध्यान रखने में, और निजी क्षेत्र को रिसर्च-डिवलेपमेंट में लगाने के मामले में उसे चीन से सीखना होगा। यह एक दूरगामी प्रोजेक्ट है। चीन की मौजूदा सफलता पिछले पचास साल के कौशिशों का संचित परिणाम है। जिस तरह चीन ने अपनी बड़ी आबादी को एक अवसर में बदला है, उसी तरह भारत को भी अपनी बड़ी आबादी को लाभ में बदलना होगा। भारत अपने कुल घरेलू उत्पाद का केवल 0.64 प्रतिशत ही रिसर्च-डिवेलपमेंट पर ़खर्च करता है। जबकि कोरिया और इज़रायल जैसे देश इस मद में अपने जीडीपी का 5-5 प्रतिशत खर्च करते हैं। हाल ही में भारत सरकार ने एक लाख करोड़ रुपए के इस क्षेत्र में व्यय की घोषणा की है। सवाल यह है कि इतनी बड़ी रकम कैसे और कहां खर्च होगी? भारत ने अपने अंतरिक्ष और परमाणु कार्यक्रम के लिए क़िफायती लागत पर रिसर्च-डिवेलपमेंट करके दिखाया है। उसके पास बहुत बड़ी संख्या में गलोबल कैपिसिटी सेंटर हैं जिनमें दुनिया की बड़ी-बड़ी कम्पनियां विकास के काम में लगी हुई हैं। भारत अपने ही इस मॉडल का दूसरे क्षेत्रों में भी इस्तेमाल कर सकता है।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।