मानव अस्तित्व के लिए ज़रूरी है ‘नीले फेफड़ों’ को बचाना

आज विश्व महासागर दिवस पर विशेष

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रत्येक वर्ष महासागर और इनके वातावरण के महत्व के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए ‘विश्व महासागर दिवस’ 8 जून को मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने का उद्देश्य समुद्री साधनों की देखभाल पर ज़ोर देना है। वर्ष 2025 में इस दिवस को मनाने का विषय रखा गया है ‘बचाएं उन अजूबों (महासागरों) को, जो करते हैं हमारा पालन-पोषण’। वर्ष 2025 की संयुक्त राष्ट्र की ‘विश्व महासागर कांफ्रैंस’ फ्रांस के शहर निस में 9 से 13 जून के बीच होने जा रही है। इस दिन को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाने का विचार सबसे पहले वर्ष 1992 में रियो डी जनेरियो में ‘धरती शिखर सम्मेलन’ के दौरान लिया गया था, भले ही इस दिवस को मनाने की रस्मी शुरूआत वर्ष 2008 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा मान्यता देने के बाद हुई थी। पूरे भारत में विशेषतौर पर समुद्रों के प्रति जागरूकता पैदा करना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि समुद्रों से चलती मानसून हवाएं इस क्षेत्र की कृषि व उद्योग को बड़ा प्रोत्साहन देने के साथ-साथ यहां के भूमिगत पानी के स्तर को बरकरार रखने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के बड़े क्षेत्र की ऋतुओं के चक्कर को बनाये रखने में भी महासागरों की अहम भूमिका होती है। महासागरों में वनस्पतियों और जीव जन्तुओं की तकरीबन दस लाख प्रजातियों के करोड़ों जीव निवास करते हैं। समुद्र इन जीव-जन्तुओं के प्राकृतिक निवास-स्थान हैं, जहां यह जीव अपने जीवन की सारी प्राकृतिक गतिविधियों को पूरा करते हैं।
उल्लेखनीय है कि महासागर ऐसी विशाल जल-प्रणाली के समूह हैं जो कि पृथ्वी की 70 प्रतिशत भाग को घेरते हैं। पृश्वी के समूह जीवों के सांस लेने के लिए ज़रूरी आक्सीजन का 50 प्रतिशत हिस्सा समुद्र से ही आता है और इन जीवों द्वारा सांस के दौरान पैदा की गई कार्बन-डाईऑक्साइड का 30 प्रतिशत हिस्सा भी समुद्र द्वारा ही सोख कर पर्यावरण को स्वच्छ बनाया जाता है। इसलिए इनको धरती के ‘प्राकृतिक फेफड़े’ या ‘नीले फेफड़े’ भी कहा जाता है। महासागरों द्वारा पर्यावरण की शुद्धता के लिए किए महत्वपूर्ण कार्यों को देखते हुए इनको सुरक्षित रखना मनुष्य का प्राथमिक फज़र् बन जाता है। समुद्रों के उक्त लाभों के अलावा यह भोजन, दवाइयां, खनिज तेलों और गैसों के भरपूर भंडार भी हैं। इनका बड़े स्तर पर होता दुरुपयोग के कारण पर्यावरण बिगड़ रहा है, जिससे इनमें रहते जीवों की अनेक प्रजातियां विलुप्त हो गई हैं और कई अन्यों के विलुप्त होने का खतरा बना हुआ है।
समुद्र का पानी सूरज की गर्मी को अपने अंदर सोखकर तपश के प्रभाव को कम करते हैं और सर्दियों में धरती को गरमाहट देकर उसके पर्यावरण को शुद्ध करते हैं। इस प्रकार यह ‘गर्मियों में कूलर और सर्दियों में हीटर’ का काम करते हैं।
महासागरों प्रति जागरूकता पैदा करना इसलिए भी ज़रूरी हो गया है क्योंकि पिछले सालों में समुद्रों में कूड़ा फैंकने की घटनाएं तेज़ी से बढ़ी हैं। विशेषतौर पर प्लास्टिक का बेहिसाब कूड़ा जिस कदर समुद्रों में फैंका जा रहा है, उससे इनमें 90 प्रतिशत जीवों की प्रजातियों का निवास तेज़ी से कम हुआ है। एक अनुमान के अनुसार प्रत्येक वर्ष 80 लाख टन प्लास्टिक का कचरा समुद्रों में बड़ी ही बेरहमी के साथ फैंका जा रहा है। समुद्रों में प्लास्टिक की मात्रा साल दर साल बढ़ती जा है। यूरोपी संसद ने इस विषय पर चिंता व्यक्त की है कि सागरों में 15 करोड़ टन प्लास्टिक अब तक फैंका जा चुका है और प्रत्येक वर्ष इसके और फैंके जाने की प्रक्रिया जारी है। परिणामस्वरूप प्लास्टिक के महीन कण समूह जीवों के भोजन चक्र में पाये जा रहे हैं। इसके अलावा समुद्रों में फैंका जा रहा शहरी कचरा और जहाज़ों में से गिर रहा तेल इनके पानी को बड़े स्तर पर दूषित कर रहा है।
समुद्रों के प्रदूषित होने के मिले पक्के सबूत : समुद्रों को प्रदूषित किये जाने का पता इनमें निवास करते मूंगा जीवों की घटती जनसंख्या और इनके बदलते रंग से लग जाता है। मूंगा जीव समुद्रों में मिलने वाले कैल्शीयम से बने छोटे-छोटे और रंगदार जीवों के समूह होते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार सागरों में 10 से 30 प्रतिशत तेज़ाबी वस्तुएं फैलाए जाने से 50 प्रतिशत मूंगा जीव मर जाते हैं। मूंगा जीवों का समुद्रों के बाकी जीवों की देखभाल में बहुत योगदान होता है। मूंगा जीवों के अलग-अलग रंग इनमें रहती रंग-बरंगियां ‘ज़ूज़ैथली’ नामक काइयों के कारण होते हैं। अब विगत वर्षों में मूंगा प्राणियों के बदरंग होने की घटनाएं तेज़ी से बढ़नी शुरू हो गई है जो कि बढ़ रहे प्रदूषण का संकेत देती है। मूंगा के बदरंग होने के लिए दो पर्यावरण तबदीलियां ज़िम्मेदार है। पहली तबदीली है कि मानवीय जीवन क्रियाओं द्वारा पर्यावरण में अधिक मात्रा में छोड़ी हुई कार्बन डाईआक्साइड समुद्री पानी को तेज़ाबी बना रही है और दूसरी चिंताजनक तबदीली है पर्यावरण में तापमान का लगातार बढ़ना। इन दो तबदीलियों के कारण रंगदार काई मूंगा जीवों से अधिक हो जाती है, जिसके कारण काइयों और मूंगा दोनों का जीवन खतरे में पड़ जाता है। काइयों के मूंगा से अधिक हो जाने की प्रक्रिया को वैज्ञानिक भाषा में ‘कोरल बलीचिंग’ भाव मूंगा का रंग उड़ जाना कहा जाता है। बीते वर्षों में वैज्ञानिकों ने मूंगा के रंग उड़ने की अनेक घटनाएं समुद्र के अलग-अलग क्षेत्रों में देखी हैं। उनका मानना है कि मूंगा जीवों के बदरंग होने से समुद्री पर्यावरण बिगड़ेगा, जिसके कारण मच्छलियों और अन्य समुद्री जीवों को समुद्र में रहने के लिए उचित स्थान नहीं मिलेगा। ऐसा होने से जहां एक तरफ मच्छली उत्पादन घटेगा, वहीं समुद्री तूफानों के कारण समूद्री किनारों पर बसे शहरों का बड़ा नुकसान होगा, अनेक समुद्री जीवों की प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी और समुद्री कार्यों से जुड़े लोगों में बेरोज़गारी बढ़ेगी। इसके साथ ही समुद्री तूफानों को रोकने के यत्नों पर अरबों रुपये खर्च होंगे। समुद्री काइयां खत्म होने के साथ पर्यावरण में आक्सीजन की मात्रा में भारी कमी आएगी जो समूह प्राणियों के लिए बड़ी परेशानी का सबब बनेगी। यह अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि एक तरफ जहां एक चौथाई समुद्री जीवों को रहने के लिए स्थान नहीं मिलेगा, वहीं दूसरी तरफ मच्छली उद्योग से जुड़े लोगों के लिए रोज़ी रोटी जुटाने का खतरा पैदा हो सकता है।

-सेवामुक्त लैक्चरार, चंदर नगर, बटाला।
मो. 62842-20595

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