सशक्त भारत के अशक्त लोगों की पीड़ा कौन सुनेगा ?
यह तो हर्ष का विषय है कि विश्व मंच पर भारत की छवि बहुत शोभायमान व चमकदार है। हम सैन्य बल की दृष्टि से भी मज़बूत हैं और अर्थव्यवस्था भी हमारी बहुत आगे है। हमें यह बताया जाता है कि हम विश्व की चतुर्थ अर्थव्यवस्था हैं। हमें बताया जाता है कि हम दुनिया को सैन्य सामान भी निर्यात करते हैं। हमारे देश के नेता यह जानकारी देते रहते हैं कि इतने समृद्ध हैं कि पिछले छह वर्षों से अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त राशन दे रहे हैं। आश्चर्य है कि यह संख्या अस्सी करोड़ की कुछ कम नहीं हुई। अगर आर्थिक दृष्टि से समृद्ध हो गए हैं तो इन अस्सी करोड़ लोगों में से आधे लोग तो ऐसे होने ही चाहिए जो इस मुफ्त राशन की पंक्ति से बाहर आ गए हों, परन्तु अभी ऐसा कोई समाचार नहीं। पिछले दिनों यह भी कहा गया कि जीएसटी कम होने से अपने देश में मानिए उत्सव जैसा वातावरण होगा।
सब कुछ सस्ता हो जाएगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि कार, एसी, बिजली का सामान तथा अन्य कीमती वस्तुएं जो हर घर की शोभा नहीं बन सकतीं, वे सस्ती हो भी गई हैं परन्तु उनका क्या जिनको आज भी केवल 300-400 रुपये प्रतिदिन कमाकर चालीस रुपये किलो आटा और सौ रुपये किलो से ज्यादा महंगी दाल खानी पड़ती है। उनको क्या जो आयुष्मान कार्ड हाथ में लेकर भी किसी चमक-दमक वाले अस्पताल में पहुंचते हैं तो वहां उत्तर मिल जाता है कि यहां आयुष्मान कार्ड नहीं चलता। जेब भरी है तो बड़े अस्पताल में आइ, अन्यथा सरकारी अस्पताल के रहमो-करम पर रहिए। ऐसा लगता है कि भारत सशक्त हो गया, भारत अमीर भी हो गया परन्तु भारत का आम आदमी बहुत कमज़ोर है, लाचार है, बेबस है। जिस देश के कानूनदान, अदालतें यह कह दें कि लावारिस कुत्तों को पकड़कर उनकी नसबंदी करें और फिर उनके अच्छे प्रकार स्वास्थ्य संभाल करके फिर उन्हीं मोहल्लों में छोड़ आइए, जहां से उठाए हैं अर्थात आम आदमी के मोहल्ले में दिन रात दर्जनों कुत्ते लोगों को परेशान करेंगे, काटेंगे भी गंदगी भी फैलाएंगे।
भारत सरकार तो निश्चित ही जानती है कि सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2023-24 में 37 लाख से ज्यादा लोगों को कुत्तों ने काटा। कैसी विडम्बना है इतने मजबूत देश के लोग थोड़े नहीं करोड़ों लोग उनको छोड़कर जो हमेशा कारों में घूमते हैं और बड़े बड़े बंगलों में रहते हैं, शेष सब सड़कों पर चलते, रात को काम पर आते-जाते हाथ में डंडा भी नहीं रख सकते। अगर किसी ने देख लिया कि कुत्ते को डंडा मारा है तो उसे थाने की पुलिस बड़ी स्फूर्ति से आकर ले जाएगी, परन्तु इसके विपरीत कुत्ते दस लोगों को भी काट लें, बच्चों को नोंच-नोंच कर खा जाएं, कोई पुलिस नहीं आएगी।
कुत्तों के काटने पर सरकारी अस्पताल से इलाज करवा लिया तो कोई गारंटी नहीं। सही बात तो यह है कि जितने लोगों को कुत्ते काटते हैं, उतने इंजेक्शन तो सरकारी अस्पताल में होते नहीं। यहां तो यह हालत है न रोने की इजाज़त है, न फरियाद की। कुत्ता काटेगा तो बाहर से 400 रुपया प्रति इंजेक्शन के हिसाब से तीन से पांच लगेंगे।
हमारे देश के आम लोग बीमारी की हालत में भी उपचार के लिए तरसते हैं, तड़पते हैं। अपनों को बीमारी से ग्रस्त देखकर वे अगर किसी स्पेशलिस्ट डाक्टर के पास सुपर स्पेशलिटी अस्पताल में जाएंगे तब तो अगर कोई बेचने का सामान घर में है तो बचना पड़ सकता है। ब्याज पर कर्जा उठाना पड़ सकता है अथवा राम भरोसे सिविल अस्पताल के बाहर बैठिए और कौन नहीं जानता कि सरकारी अस्पतालों में मरीज़ों की संख्या ज्यादा, डाक्टरों की संख्या कम होने के कारण लोगों की क्या हालत होती है। डाक्टर अच्छे हैं परन्तु डाक्टरों के पास उतने साधन नहीं। बहुत से डाक्टर अपनी पीड़ा भी व्यक्त करते हैं कि उन्हें अपने काम से संतुष्टि नहीं मिलती, क्योंकि वे मरीज़ों को वह सब नहीं दे पाते जो देने की योग्यता तो उनके पास है, परन्तु अस्पताल में साधन उपलब्ध नहीं।
लगता है देश बहुत सशक्त है, अमृत महोत्सव हमने कुछ लोगों को अमृत पिलाकर मना लिया। धनपतियों और सत्तापतियों के बच्चे विदेशों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने गए, अधिकतर वहीं बस गए, परन्तु हिंदुस्तान के मज़दूर के लिए और उन कर्मचारियों के लिए जिनका गला सरकारी आउटसोर्सिंग एजेंसियों ने बुरी तरह फंदे में फंसाया है, उच्च शिक्षा तो बच्चों को दिलाना तो दूर माध्यमिक तक ही मुश्किल से पहुंच कर फिर रोटी कमाने के चक्रव्यूह में फंस जाते हैं।
भारत जैसे समर्थ, सशक्त, विश्व की चतुर्थ अर्थव्यवस्था वाले लोग आज भी दो समय पेट भरने के लिए, बच्चों का पालन पोषण करने के लिए तरस-तरस कर जी रहे हैं। उनका शोषण भी उन्हीं हाथों से होता है जिनके लिए दिन-रात काम करते हैं। लेबर विभाग, मानव अधिकार आयोग के सदस्य तथा सामाजिक सुरक्षा विभाग अपने-अपने आंकड़े प्रस्तुत करके ठंडे-गर्म कार्यालयों में बैठ कर समय काट लेता है तो आम लोग क्या करेंगे, कहां जाएंगे। यह हैं सशक्त भारत के लाचार व अशक्त लोग। क्या स्वतंत्रता का शताब्दी वर्ष आने तक आम आदमी आत्म-निर्भर हो जाएगा?