सड़क सुरक्षा को लेकर शीर्ष अदालत का सही निर्देश
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सड़क सुरक्षा के मामले में दिये गये नये दिशा-निर्देशों के बाद यह मामला एक बार फिर चर्चा में आ गया है। देश की सर्वोच्च अदालत ने केन्द्र सरकार, देश भर के सभी केन्द्र-शासित क्षेत्रों और समस्त राज्यों को कहा है कि देश की सड़कों पर यातायात के सुचारू परिचालन हेतु यथाशीघ्र समुचित नियम आदि बनाये जाएं। अदालत ने यह भी निर्देश दिया है कि सड़कों के किनारों पर पैदल चलने वालों, साइकल चलाने वालों और रेहड़ी-ठेला-चालकों के लिए अलग फुटपाथ और सह-सड़क मार्ग भी बनाए जाएं। सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्देश सड़क सुरक्षा मामलों को लेकर लम्बित पड़ी एक याचिका के दौरान हस्तक्षेप करते हुए दिया है। इस निर्देश का महत्त्व इसलिए और बढ़ जाता है कि अदालत ने केन्द्र सरकार और अन्य सभी पक्षों को इस संबंधी नियम आदि अगले छह महीनों के भीतर तैयार कर लेने का भी आदेश पारित किया है। अदालत ने ऐसे नियम बनाने के लिए मौजूदा कानून-1988 एम.वी. एक्ट की धारा 138 (1-ए) का हवाला देते हुए देश के सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों को कहा है कि नये नियम और नई व्यवस्था मौजूदा कानून की इसी धारा को विस्तार देकर बनाये जा सकते हैं। सर्वोच्च अदालत ने इस संबंध में यह निर्देश भी जारी किया है कि मौजूदा सड़क सुरक्षा कानून की इस धारा में इसके विस्तार की पुख्ता सम्भावनाएं मौजूद हैं, अत: इस कार्य को यथा-शीघ्र सम्पूर्ण किया जाना चाहिए।
देश भर में यह एक कटु सत्य है कि पूरे देश में मुख्य सड़क मार्गों और यहां तक कि राज्यों के भीतरी सड़क पथों पर यातायात कभी भी पूर्णतया सुरक्षित नहीं रहा। खास तौर पर पैदल चलने वालों और रेहड़ी-ठेला चालकों के लिए तो यह ़खतरा सदैव बना रहता है। सड़कों के किनारों पर किये गये निजी और व्यावसायिक कब्ज़ों से स्थिति अधिक गम्भीर होने लगती है। अधिकतर सड़कों पर लावारिस जानवरों से भी अक्सर आम लोगों तथा चालकों की जान सांसत में आ जाती है। कई बार तो स्थिति ऐसी हो जाती है कि पैदल चलने वाले यात्रियों के लिए फुटपाथों पर पांव रखने तक की जगह नहीं मिलती। इसी प्रकार मुख्य सड़क मार्गों पर रेहड़ा-फड़ी वालों और घोड़ा-गाड़ियों आदि के परिचालन की कोई मामूली-सी गुंजाइश भी नहीं बचती। इस संदर्भ में यह भी तथ्य बनता है कि राज्यों और केन्द्र शासित क्षेत्रों से गुज़रते सड़क-मार्गों पर सुरक्षा तंत्र का ज़िम्मा अधिकतर राज्य प्रशासन पर आयद होता है। तथापि, सड़क सुरक्षा संबंधी कानून की धारा 138 (1-ए) में बड़े स्पष्ट तरीके से यह दर्शाया गया है कि राज्यों की अधिकार सीमा के भीतर से गुज़रते मुख्य राज मार्गों के संबंध में यदि ऐसे नियम आदि बनाने की आवश्यकता महसूस होती है तो उन्हें भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग अथारिटी की जानकारी में लाकर स्वयं बनाया जा सकता है।
हम समझते हैं कि नि:संदेह यह एक अति गम्भीर किन्तु अत्यावश्यक मुद्दा है हालांकि समय की प्रत्येक सरकार ने चाहे वह केन्द्र की रही हो या प्रदेशों की, इस मुद्दे को अक्सर नज़न्दाज़ ही किया है। लिहाज़ा इस पक्ष से देश की सड़कें निरन्तर असुरक्षित और ़खतरों से परिपूर्ण होती गई हैं। इसके अलावा केन्द्रीय राज मार्गों से इतर अन्य राज्यीय सड़कों के रख-रखाव और उनके विस्तार, प्रबन्धन आदि के सभी दायित्व प्रदेश सरकारों पर आयद होते हैं। इसके बावजूद इन सड़क मार्गों पर ऐसी व्यवस्था करने की ज़िम्मेदारी निभाने की बजाय सरकारें टालमटोल की भूमिका अदा करती रही हैं। सम्भवत: यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार के साथ ही, राज्यों को भी आदेश दिया है कि ऐसे नियम, कानून बनाने अथवा मौजूदा कानूनों में सुधार-विस्तार की प्रक्रिया अगले 6 मास में अवश्य पूर्ण की जाए।
सर्वोच्च न्यायालय ने इन ताज़ा निर्देशों पर 6 माह के भीतर कार्रवाई किये जाने का निर्देश देकर नि:संदेह एक ठोस उपाय किया है हालांकि अदालतें इससे पूर्व भी, ऐसी ज़रूरत हेतु आदेश देती आई हैं। यह भी एक कटु सत्य है कि सरकारों ने कभी भी इस कवायद का पालन नहीं किया। तथापि, मौजूदा अदालती आदेश से बच पाना अथवा इस पर लापरवाही दर्शाना सम्भव नहीं हो पाएगा। हम समझते हैं कि सम्बद्ध सरकारों को इस मामले पर थोड़ी अतिरिक्त गम्भीरता को दर्शाना होगा। ऐसा करने से एक ओर जहां सड़क दुर्घटनाओं में कमी आएगी, वहीं अकारण होने वाली मौतों से बचा जा सकेगा। बेशक इस प्रकार के फैसले से जन-साधारण को काफी राहत महसूस हो सकती है।

