मज़ाहिया कवि टी.एन. राज़ का निधन

मेरे दिल्ली से चंडीगढ़ पहुंचने पर जो तीन लोग खुश हुए, उनमें तरलोकी नाथ राज़ (टी.एन. राज़) भी थे। दूसरे दो डा. अतर सिंह तथा रघबीर सिंह सिरजना थे। अतर सिंह मुझ से दो वर्ष बड़े थे और राज़ 6 माह छोटे। दोनों उर्दू, हिन्दी तथा पंजाबी पढ़े हुए थे और तीनों भाषाओं में लिख-लिखा लेते थे। तीनों भाषाओं के विशेषज्ञ समझो। राज़ के निधन से मुझे उर्दू भाषा तथा साहित्य से जोड़ने वाला पुल टूट गया है। वैसे भी वह हंसने-हसाने वाले व्यक्ति थे। उनके इसी गुण के कारण आधा दर्जन भाषाओं के महारथी उनके जानकार भी थे और रसिया भी। खुशवंत सिंह, गोपीचंद नारंग, कमलेश्वर, मुनव्वर राणा, हक्कानी अलकासमी, सतपाल आनंद, ़कतील श़िफाई, जगन्नाथ आज़ाद तथा ज्ञान सिंह शातर स्हित। प्रेम लाल व़फा का शे’अर राज़ पर चरितार्थ होता था : 
या वो दीवाना हंसे या तू जिसे त़ौफीक दे
वरना इस दुनिया में आकर मुस्कराता कौन है।
जहां तक टी.एन. राज़ की मुस्कुराहट का संबंध है, उसमें तन्ज़ है, व्यंग्य है और मस्ती भी।
यह दिल की मस्ती है जिसने मचाई है हलचल
नशा शराब में होता तो नाचती बोतल।
उर्दू में उत्तम तथा गम्भीर शे’अर कहने वाले बढ़िया शायरों की संख्या सैकड़ों से अधिक भी हो सकती है, परन्तु मज़ाहिया शे’अर कहने वाले शायर चुनिंदा हैं। संजीदगी के सहमे हुए माहौल में राज़ के शे’अर कहकहों का जज़्बा रखते हैं। इनमें मुस्कुराहट की ऐसी महक है कि समाज के घिसे-पिटे माहौल में अपनी किस्म का लुत़्फ भर देती है। जैसे : 
तबला नवाज़ वो है जो संगत में ताल दे
और बला बाज वो है जो छिक्का उछाल दे।
आशिक है वुह वो धूप में फुरसत से बैठ कर
चुन चुन के ज़ुल्फ-ए-यार से जुएं निकाल दे
तुम्हारे मायके से आने वाली राह
तक तक कर मेरी तो आंख भी पत्थरा गई
क्या तुम ना आओगो तुम्हारे ़गम में 
मुल बेहाल का ढाढस बंधाने को
पड़ोसन पर पड़ोसन आ गई
 क्या तुम न आओगे
और सुनना चाहते हो तो पेश हैं कुछ चुनिंदा शे’अर :
मौलवी से हश्र में असकोर पूछा जाएगा
कहिये कितनी मुर्गियों को तुम ने बेवा कर दिया
दोनों ही अपनी अपनी निगाहों में चोर थे
ठेके पे आ के अब्बा को अपने पिसर मिले
तिगड़में सियासत की पहले थीं बहुत ही पेचदार
रफता रफता छल कपट से वो भी आसां हो गईं
जब देश में गर्मी पड़ती हो, और लू में चमड़ी जलती हो
तब किसी बहाने फॉरन का इक टूर लगाओ नेता जी
नित्त नये झगड़े सियासत में ज़रूरी हैं बहुत
फिरकादाराना फसादों को भी भड़काता हूं मैं
 फाइलें चलती हैं कछुआ चाल से
नोट बरसें तों रवानी और है
मैडिकल में लड़कियों ने जब से एडमिशन लिया
डाक्टर सब पड़ गये बीमार मेरे शहर में
लज़्ज़तें सब उड़ गईं, सारी गिजाएं छुट गईं
भूक की ऐसी बना के रख दी दुरगत चाय ने
इश्क में सर फोड़ कर गर जान-ए-मन मरना ही है
वो तेरे दीवान-ओ-दर ही तोड़ कर हम जाएंगे
जूतियां क्योंकर ना पड़तीं मंद पर मरदूद को
लफ्ज़ हर बेहूदा था कल राज़ की तकरीर का
टी.एन. राज़ की मज़ाहिया शायरी में दो पंक्तियों के बिना और भी बहुत कुछ है जो उदासी में डूबे दिलों को सहारा देता है।
ऐ खिसकती कुर्सी! तेरी है बेकरारी हाये हाये।
नियां हुई आखर वो अपनी दोस्त दारी हाये-हाये
पूरी तरह से ना चखा था घुटालों का मज़ा 
रह गया दिल पे मिरे इक बोझ हाये हाये 
कोई भी कुछ देर तेरे पास टिक पाया नहीं 
वक्फे वक्फे से रही है तू कंवाकी हाये हाये
हर एक साधु संत का अपना जलाल है
धर्म-ओ-कर्म की मंडी का वो इक दलाल है
भगतन की जुल्फें देख कर बोले महात्मा
देवी! तमाम दुनिया ही इक माया जाल है।
 हाये सैलाब में कर देता है क्या-क्या पानी
घर में मुफलिस के भी घुस आता है अंधा पानी
मेंडक और सांप मिरे रात के महिमां बने 
शाम के वक्त ही जो आया बाढ़ का पानी
तुम वज़ीरों पे ना इल्ज़ाम रखो रिश्वत का 
थेह मीयां राज़ है उन यारों का धंधा पानी 
 कहूं बात ऐसी मैं ऐ खुदा! जो हंसी खुशी को जमाल दे 
़गम-ए-ज़िन्दगी की उदासियों को हर एक दिल से निकाल दे
कोई मंत्री को सुझावो दे कि सरोपा राज़ को भेंट हो
जो ना शाल कोई भी मिल सके तो धोती कंधे पे डाल दे
जब से आया है बुढ़ापा सूझता कुछ भी नहीं
रोशनी ना एक फट्टा आंखों में मंज़र रह गया
एक अल्हड़ सी हसीना हम को बाबा कह गयी
हर निशान आंख का ऐनक के अंदर रह गया
बैरे ने ला सरव कर दीये टेबल पर दो खाने
बीवी बैठी बगलें झांके, मीयां लगे उड़ाने
बैरा बोला आप ना खातीं क्या है कोई लड़ाई 
शब्द सुने गुस्ताखी के तो महिला यूं झल्लायी
खा लूंगी अरे जा के बैरा, तू क्यों हुआ उदास
दांतों का बस एक ही सैट है हम दोनों के पास
हो मुबारक साल का पहला महीना आप को
और मिल जाये नई कोई हसीना आप को
हम दसम्बर में पूछेंगे हज़रत यह ज़रूर
मिल गया क्या इश्क की मंज़िल का ज़ीना आपको
यह तो राज़ भी जानते थे कि मेरे वाली उम्र में न हसीना की चाह होती है और न ही इश्क की मंज़िल के ज़ीने की। आशा है कि ऊपर जाकर वह मेरे लिए विश्राम स्थल तो ढूंढ लाएंगे! देखते हैं कितना सफल होते हैं।
अंतिका
(स्वर्गीय मौज मेले)
निकलना खुलद से आदम का सुनते आये थे लेकिन
बहुत बेआबरू हो के तेरे कूचे से हम निकले
—मिज़र्ा ़गालिब
मैं जिसको लगा दूं, वही जन्नत में चला जाये
लाया हूं नया जूता, मैं मस्जिद से चुरा के
—बोगम हैदराबादी 
ऐसी जन्नत का क्या करे कोई 
जिसमें लाखों बरस की हूरें हों
—द़ाग दिलवी
जन्नत में ना मैं है, ना मुहब्बत, ना जवानी
किस चीज़ पे इन्सान बसर-ए-औ़कात करेंगे
—अब्दुल हमीद अदम
घुस जाऊंगा जन्नत में, ़खुदा से बस यही कह कर 
यहीं से आये थे आदम, यह मेरे बाप का घर है।
—शौक बहिरायची 

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