क्या दक्षिणी राज्यों के हाथ में होगी सत्ता की कुंजी ?

दिल्ली की गद्दी का रास्ता लखनऊ की गली से होकर जाता है। यह बात 1984 के आम चुनाव तक तो एकदम सही थी, लेकिन जब 1989 से गठबंधन सरकारें बनने लगीं तो सत्ता संतुलन में दक्षिण भारत की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई और पहली बार दक्षिण से प्रधानमंत्री (पीवी नरसिम्हा राव व एचडी देवगौड़ा) बनें। 1989 के बाद की परम्परा को 2014 में भाजपा ने तोड़ा जब उसे लखनऊ यानी उत्तरी भारत की बदौलत ही पूर्ण बहुमत प्राप्त हो गया। लेकिन भाजपा की यह शानदार जीत भारत के 29 राज्यों में से केवल 12 (10 हिंदी पट्टी में व 2 पश्चिम में) के कारण थी, जहां उसे अपनी कुल सीटों का 85 प्रतिशत हासिल हुआ था। जिस बल पर उसे  2014 में यह सफ लता मिली थी, वह अब मौजूद नहीं हैं, इसलिए अगर वह अपने पांच वर्ष पहले के प्रदर्शन को दोहराने में नाकाम रहती है तो दक्षिण के बड़े राज्य अपनी परम्परागत भूमिका में लौट आयेंगे यानी उनके हाथ में ही दिल्ली की सत्ता की कुंजी होगी। कहने का अर्थ यह है कि दक्षिणी राज्यों में जो चुनावी नतीजे आयेंगे वह यह तय करेंगे कि दिल्ली में सरकार किस की बनती है और इसलिए यह परिणाम स्थानीय हितों से बहुत आगे जाते हैं। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल, कर्नाटक व केंद्र शासित पुडुच्चेरी में लोकसभा की 130 सीटें हैं यानी 543 का पांचवे हिस्से से अधिक यहां पर हैं। 2014 में उत्तर भारत के ठीक विपरीत भाजपा को इन 130 सीटों में से सिर्फ 21 सीटें (15 प्रतिशत) मिली थीं, जो उसकी कुल सीटों का मात्र 7 प्रतिशत थीं। 2019 में वह इसमें कितनी वृद्धि कर सकती है? 2014 में अनुमान लगाया जा रहा था कि दिल्ली में गठबंधन की सरकार में जयललिता भी प्रधानमंत्री बन सकती हैं, इसलिए अन्नाद्रमुक को तमिलनाडु की 39 में से 37 सीटें प्राप्त हुईं। इस बार तमिलनाडु में उसकी राजनीति के दो सबसे बड़े सितारों (जयललिता व करुणानिधि) के बिना चुनाव हो रहा है। इस बदली स्थिति में अन्नाद्रमुक सिर्फ  20 सीटों पर चुनाव लड़ रही है और बाकी पर उसके 7 एनडीए पार्टनर्स हैं, जिसमें 5 सीटें भाजपा को भी मिली हैं। ध्यान रहे कि तमिलनाडु में सत्ता की कुर्सी अन्नाद्रमुक व द्रमुक के हाथ में ही रहती है। ऐसे में एनडीए के समक्ष दो बड़ी समस्याएं हैं- एक, आम जनता में यह बात घर कर गई है कि अन्नाद्रमुक दिल्ली की कठपुतली बन गई है, जिससे द्रविड़ गर्व आहत हो रहा है और इसमें मतदान से मात्र दो दिन पहले द्रमुक की कनिमोझी के घर आयकर छापों ने आग में घी का काम किया है। दूसरा यह कि अन्नाद्रमुक के परम्परागत मतदाताओं में जबरदस्त विभाजन हो रहा है। उससे अलग हुई टीटीवी दिनाकरण की एएमएमके ने 38 सीटों पर विद्रोही प्रत्याशी उतारे हैं। ऐसे में एनडीए को सिर्फ  जाति गणित का ही भरोसा है, खासकर उत्तरी तमिलनाडु में जहां पीएमके के कारण उसके पास मजबूत वन्नियार वोट है। इसी जाति पर भाजपा को भी अपनी पांच सीटों पर भरोसा है। बहरहाल, तेलंगाना व आंध्र प्रदेश में दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियां- भाजपा व कांग्रेस हाशिये पर हैं। कांग्रेस 2004 व 2009 में केंद्र में सत्ता बनाने में इसलिए सफ ल रही थी कि इस क्षेत्र में उसने अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज की थी। लेकिन इस समय जो इस क्षेत्र से सूचना मिल रही है तो उसके आधार पर कहा जा सकता है कि आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी की वाईएसआर-कांग्रेस और तेलंगाना में के. चन्द्रशेखर राव की टीआरएस की स्थिति बहुत मजबूत है। ध्यान रहे कि टीआरएस ने 2018 के विधानसभा चुनाव में जबरदस्त सफ लता प्राप्त की थी। अब यह दोनों ही पार्टियां चुनाव बाद दिल्ली में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने की इच्छा रखती हैं। दक्षिण में कर्नाटक एकमात्र राज्य है जहां भाजपा अपने दम पर मजबूत है और पिछले तीन संसदीय चुनावों में उसने ही इस राज्य में सबसे ज्यादा सीटें जीती हैं। कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटों में से भाजपा ने क्रमश: 18 (2004), 19 (2009) व 17 (2014) सीटें जीती थीं। 2018 के विधानसभा चुनाव में भी वह सबसे बड़ी पार्टी थी। अब जो इस राज्य से रिपोर्टें मिल रही हैं उनसे मालूम होता है कि उत्तर-पश्चिम मुंबई-कर्नाटक की दस सीटों, जो बेलगांव व उत्तर कन्नड़ से शिमोगा तक हैं, पर भाजपा की स्थिति मजबूत है। लेकिन उसने जो 2014 में हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र में कुछ सीटें जीती थीं उनमें कांग्रेस-जद(एस) का संयुक्त वोट प्रतिशत उससे अधिक है। मैसूर-कर्नाटक क्षेत्र जद(एस) का गढ़ है जो कांग्रेस के कारण उसके लिए अधिक मजबूत हो गया है। इसका अर्थ यह है कि 2014 में भाजपा ने जो 17 सीटें जीती थीं उनमें से कम से कम छह- बल्लारी, कोप्पल, दावनगरी, मैसूर, बीदर व हवेरी में जबरदस्त कांटे की टक्कर है। केरल में कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी वायनाड से प्रत्याशी हैं, जो इस बात का संकेत है कि वह अपनी पार्टी को दक्षिण में फिर से मजबूत करना चाहते हैं। अन्य राज्यों की तुलना में केरल यह भी बताता है कि विपक्ष के समक्ष एकता की विस्तृत चुनौतियां क्या हैं। केरल में मुख्य मुकाबला कांग्रेस व वामपंथ के बीच है। सबरीमाला की पृष्ठभूमि में भाजपा भी तीन सीटों को टारगेट कर रही है। भाजपा की दक्षिण में 21 सीटें थीं 2014 में, अगर उसे इस क्षेत्र में मामूली बढ़त भी मिलती है तो भी हिंदी पट्टी में उसे जो नुकसान का अनुमान है, विशेषकर उत्तर प्रदेश में बसपा-सपा के गठबंधन व राजस्थान, मध्य प्रदेश व छतीसगढ़ में कांग्रेस के उदय के कारण, उसकी भरपाई दक्षिण में कठिन है। बात सिर्फ  इतनी-सी है कि इस बार त्रिशंकु लोकसभा आने के अनुमान बहुत प्रबल हैं। ऐसे में क्षेत्रीय पार्टियों की सरकार बनाने में भूमिका बढ़ जायेगी और यही कारण है कि दक्षिण के राज्य किंग मेकर की स्थिति में होंगे।          
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