राज्यों की स्वायत्तता के लिए तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन ने की एक और पहल
रौशनी कम है अंधेरा भी बहुत है तो क्या,
शम-ए-उम्मीद कहीं दूर जगी है देखो।
हालांकि भारत की आज़ादी के बाद चाहे भारत को राज्यों की यूनियन कहा गया और भारतीय संविधान में भारत के फैडरल (संघीय) ढांचे का विचार ही सृजित किया गया था, परन्तु केन्द्र की कांग्रेसी तथा उसके बाद की सरकारों ने हर ढंग-तरीके से भारत के संघीय ढांचे को कमज़ोर करने तथा केन्द्र सरकार की शक्तियां बढ़ाने का काम ही किया। नि:संदेह भाजपा की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के शासन काल में भारत के संघीय ढांचे के पक्ष में तो कुछ भी नहीं हुआ, परन्तु उस शासन काल में संघीय ढांचे पर कोई बड़ा तथा प्रत्यक्ष हमला भी नहीं हुआ था, परन्तु जब से 2014 में केन्द्र में भाजपा की नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार बनी है, उस समय से लगातार भारत के संघीय ढांचे को एकात्मक राज्य (यूनिटरी स्टेट) में बदलने के प्रयास हो रहे हैं।
यहां उल्लेखनीय है कि पंजाबी मानसिकता आम तौर पर अधिक अधिकारों की समर्थक रही है, परन्तु सिख मानसिकता विशेष रूप से राज्यों को अधिक अधिकार की समर्थक है और इसीलिए राज्यों के अधिकार कम करने का विरोध करती रही है। यही कारण था कि अकाली दल ने लगभग एक वर्ष के लम्बे विचार-विमर्श के बाद अपने 16-17 अक्तूबर, 1973 के श्री आनंदपुर साहिब सम्मेलन में राज्यों को अधिक अधिकारों की मांग के लिए एक प्रस्ताव पारित किया था, जो श्री आनंदपुर साहिब के प्रस्ताव के रूप में चर्चित हुआ था। बाद में अकाली दल ने इससे एक कदम और आगे जाते हुए मई, 1994 को अमृतसर घोषणा-पत्र भी जारी किया था।
हालांकि श्री आनंदपुर साहिब के प्रस्ताव में देश विरोधी कुछ भी नहीं था, परन्तु अकाली दल की रणनीतिक गलती यह थी, कि यह देश के सभी राज्यों के लिए अधिक अधिकारों की मांग का प्रस्ताव होने के बावजूद ऐसा प्रभाव दे रहा था, जैसे यह सिर्फ सिखों की मांग हो। हालांकि यह प्रस्ताव पारित करने के बाद अकाली दल ने इस पर कोई विशेष कार्य नहीं किया था और न ही देश के अन्य राज्यों को साथ लेने के लिए कोई बड़ा अभियान चलाया था, परन्तु 1982 में जब धर्म युद्ध मोर्चा श्री अकाल तख्त साहिब से शुरू किया गया तो इसे मोर्चा की मांगों में शामिल कर लिया गया। संत जरनैल सिंह भिंडरांवाला द्वारा भी इस प्रस्ताव को समर्थन दिया गया था। इस प्रस्ताव को केन्द्र सरकार ने अलगाववाद के प्रस्ताव की भांति प्रचारित किया तथा 1984 की दुर्घटनाओं के बाद कांग्रेस ने रणनीतिक रूप में अपना चुनाव प्रचार देश की ‘एकता तथा अखंडता’ को बचाने के नाम पर करने के लिए पंजाब तथा असम में लोकसभा चुनाव न करवाने का फैसला लिया। उस समय कुल 514 सीटों पर चुनाव हुआ। दो नामज़द सदस्य भी थे। इन चुनावों में कांग्रेस 404 सीटें जीत गई। कांग्रेस ने 49.10 तथा भाजपा ने 7.74 प्रतिशत वोट हासिल किये थे, परन्तु भाजपा को सीटें सिर्फ दो ही मिली थीं जबकि उस समय तेलुगू देशम पार्टी सिर्फ 4.31 प्रतिशत वोटों के साथ 30 लोकसभा सीटें जीत कर देश की मुख्य विपक्षी पार्टी बन गई थी।
इसके बाद तो अकाली दल ने श्री आनंदपुर प्रस्ताव को जैसे भुला ही दिया था, परन्तु अब जब भाजपा की केन्द्र सरकार देश को लगातार एकात्मक ढांचे की ओर धकेलने की कोशिशों तथा राज्यों के सभी अधिकार धीरे-धीरे अपने हाथ में लेती जा रही है, तो इस प्रकार प्रतीत हो रहा है कि इसका विरोध करने का न तो किसी पक्ष के पास समर्था बची है और न ही इच्छा, परन्तु अचानक इस गहरे अंधेरे में डी.एम.के. नेता तथा तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन की राज्यों के अधिकारों के लिए केन्द्र सरकार को दी गई चुनौती अंधेरे में जलते आशा के दीये से कम नहीं है। यह भी खुशी की बात है कि पंजाब के मुख्यमंत्री तथा अकाली दल के नेताओं ने भी उनके साथ खड़ा होने का थोड़ा-सा साहस दिखाया है।
स्टालिन संघीय ढांचे के लिए एक उम्मीद
प्रसिद्ध शायर निदा फाजली के एक शे’अर है :
हर एक बात को चुप-चाप क्यूं सूना जाये,
कभी तो हौसला करके ‘नहीं’ कहा जाये।
बिल्कुल इसी प्रकार ही एम.के. स्टालिन ने भाजपा की देश को एकाधिकारवादी एकात्मक ढांचे की ओर ले जाने की कोशिशों को ‘ना’ कहने का साहस किया है। उन्होंने कई मामलों में संघवाद के पक्ष में स्पष्ट स्टैंड लिया है। उनकी ओर से तमिलनाडू के राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा तमिलनाडु विधानसभा में पारित किये गये विधेयकों को लम्बे समय तक रोके रखने का सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी थी। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला दिया है कि कोई भी राज्यपाल तीन महीने से अधिक विधेयक को दबा कर नहीं रख सकता। सुप्रीम कोर्ट ने तो यह भी कह दिया है कि यदि विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिये भी किसी राज्यपाल द्वारा भेजा जाता है तो राष्ट्रपति को भी तीन महीने के निश्चित समय में इस पर फैसला लेना पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु विधानसभा के रोके गये 10 विधेयकों को राज्यपाल की स्वीकृति के बिना ही कानून के रूप में स्वीकार करने की घोषणा कर दी है। अब एक कदम और आगे उठाते हुए तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने विधानसभा में प्रस्ताव पारित करके राज्यों को अधिक अधिकार देने के लिये एक समिति बनाने की घोषणा की है। यह समिति सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जज तथा तीन अन्य विद्वानों पर आधारित होगी, जो राज्यों को अधिक अधिकार देने के लिये रिपोर्ट पेश करेगी।
उल्लेखनीय है कि एम.के. स्टालिन ने वक्फ विधेयक का भी विरोध किया है और इससे पहले केन्द्र द्वारा देश को एकात्मक ढांचे की ओर ले जाने की अन्य बहुत-सी कोशिशों का भी वह विरोध करते रहे हैं जिनमें प्रमुख रूप में सी.ए.ए. का विरोध, गैर-हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी थोपने का विरोध तो वह बहुत डटकर कर रहे हैं। उन्होंने तीन भाषी फार्मूला मानने से भी इन्कार कर दिया है। उन्होंने यहां तक कहा है कि हिन्दी जहां-जहां भी गई, वह स्थानीय भाषा को निगल गई। उन्होंने कहा कि उत्तर भारत में हिन्दी, भोजपुरी, मैथिली, अवधि, ब्रज भाषा, बुंदेली, गड़वाली, मगरी, मारवाड़ी, मालवी, संथाली सहित 25 स्थानीय भाषाओं को निगल चुकी है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि हिन्दी धीरे-धीरे पंजाबी को भी निगल रही है। यदि कोई विश्वास नहीं करता तो वह हरियाणा तथा हिमाचल में रह गये पंजाबी क्षेत्रों तथा चंडीगढ़ का हाल देख सकता है। वैसे पंजाब में राज्य भाषा एक्ट में तीन बार संशोधन होने के बावजूद अभी भी पंजाब क्रियात्मक रूप में तीन भाषी राज्य ही बना हुआ है और अनेक निजी स्कूलों में तथा अमीर घरों में पंजाबी को अभी भी दुत्कारा जाता है। पंजाबी अभी तक अदालतों की भाषा भी नहीं बन सकी। कम्प्यूटर युग तथा साफ्टवेयर के समकक्ष कब बनेगी, पता नहीं जबकि दुनिया में हिन्दी, गुजराती तथा बंगाली सहित 56 भाषाओं में साफ्टवेयर बनाने के लिए पायथन तथा बेसिक की-बोर्ड बन चुके हैं।
एम.के. स्टालिन ने जी.एस.टी. में से राज्यों को उचित हिस्सा न देने का भी विरोध किया है। उन्होंने विधानसभा में एकात्मक राज्य के प्रतीक ‘नीट’ टैस्ट के विरुद्ध भी प्रस्ताव पारित किया है और केन्द्र की नई ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ को राज्यों के शिक्षा अधिकारों के विरुद्ध बताया है। उन्होंने ‘एक देश एक चुनाव’ को राज्यों की प्रभुसत्ता पर हमला बताया है। हम समझते हैं कि पंजाब की सभी राजनीतिक पार्टियों और सभी पंजाबियों को भी धर्म, जात-पात से ऊपर उठ कर स्टालिन से सीखना चाहिए और उनका समर्थन करने का भी हौसला करना चाहिए, नहीं तो हमारी स्थिति साज़ी अमरोहवी के इस शे’अर की तरह होगा :
मंज़िलें लाख कठिन आएं गुज़र जाऊंगा।
हौसला करके बैठूंगा तो मर जाऊंगा।
पंजाबी फिज़ूल के मामलों में फंसे
आश्चर्यजनक बात है कि तमिलनाडू के मुख्यमंत्री स्टालिन देश की दशा और दिशा बदलने के लिए कितने बड़े-बड़े काम कर रहे हैं परन्तु पंजाब में सरकार और विपक्ष दोनों फिज़ूल के विवादों में अपनी सामर्थ्य और समय बर्बाद कर रहे हैं। विपक्ष के नेता प्रताप सिंह बाजवा ने एक समाचार के आधार पर जो बयान दिया, उस पर इतना शोर-शराबा नहीं होना चाहिए था। चाहे यह ठीक है कि विपक्ष के नेता को भी यह बात अपने सूत्रों से मिली करने के स्थान पर स्पष्ट रूप में बताना चाहिए था कि यह एक समाचार पत्र में प्रकाशित समाचार है, जो चिन्ता में डालने वाला है, परन्तु यदि उन्होंने कह भी दिया तो इसका जवाब राजनीतिक तरीके से ही दिया जाना चाहिए था, न कि बात का बतंगड़ बना कर ऐसा मामला दर्ज करना बनता था। अनुरोध है कि पंजाबियों की ताकत और समय को ऐसे फिज़ूल के विवादों में बर्बाद न करें, अपितु यह ताकत और सामर्र्थ्य पंजाब की प्रभुसत्ता को बचाने तथा पंजाब, पंजाबी और पंजाबीयत के साथ हुए और हो रहे अत्याचारों को रोकने और छीने गए अधिकारों को वापस लेने एवं पंजाबी सभ्याचार और जवानी को बचाने के लिए इस्तेमाल होनी चाहिए।
आईना देख कर ़गरूर फिज़ूल,
बात वो कर जो दूसरा न करे।
(मुज़तर खैराबादी)
मो. 92168-60000