नदियों, तालाबों का संरक्षण ही जल संकट का समाधान

कैसी विडम्बना है कि जिस शहर के बीच से सदानीरा यमुना जैसी नदी लगभग 27 किलोमीटर बहती हो, वह हर साल चैत्र बीतते ही पानी कि किल्लत के लिए कुख्यात हो जाता है। जब दिल्ली में यमुना लबालब होती है तो यहां के दूषित नाले व कारखाने उसमें ज़हर घोल देते हैं। जब पानी का संकट खड़ा होता है तो इस नदी की याद आती है। यह हाल केवल दिल्ली का नहीं, देश के लगभग सभी बड़े शहरों का है। अपने तालाबों पर मिट्टी डाल कर कंक्रीट से तन गया बैंगलुरु तो जल-शून्य की चेतावनी से बहाल है और जब मानसून आएगा तो शहर जल भराव के चलते ठिठक जाएगा। मुम्बई की पांच नदियां नाला बन गई और बरसात में जो पानी शहर की प्यास बुझाता, अब वह संकरे रास्तों से बह कर समुद्र के खारे पानी में  मिल जाता है और ज़रूरत के समय लोग भू-जल और टैंकर के ज़रिए जैस-तैसे ज़िंदगी काटते हैं। 
राजधानी दिल्ली कि लगभग 31 फीसदी आबादी को स्वच्छ पेय जल उनके घर में लगे नल से नहीं मिलता। हज़ारों टैंकर हर दिन कालोनियों में जाते हैं। उनके लिए पानी जुटाने के लिए पाताल को इतनी गहराई तक खोद दिया गया है कि सरकारी भाषा में कई स्थान अब  ‘डार्क जोन’ में आ गए हैं। दिल्ली के करीबी गाज़ियाबाद जो यमुना-हिंडन के त्रिभुज पर है, में अधिकांश कालोनियां पानी के लिए तरस रही हैं, क्योंकि दोनों नदियां अब कूड़ा ढोने का मार्ग बन कर रह गई हैं। आधुनिकता की इबारत लिखने वाले गुरुग्राम में ज़रूरत की तुलना में 105 एमएलडी  कम पानी की आपूर्ति हो रही है। दिल्ली में तो केवल यमुना ही नहीं बल्कि 983 तालाब- झील-जोहड़ हैं। जल संसाधन मंत्रालय की गणना बताती है कि इनमें से किसी को भी भी प्यास बुझाने के काबिल नहीं माना जाता। दिल्ली सैकड़ों किलोमीटर दूर से पानी मंगवाती है, लेकिन अपने ही तालाबों को इस योग्य नहीं रखती कि वे बरसात का जल जमा कर सकें। जिन तालाबों में जमा पानी जीवन की उम्मीद बन सकता है, उनमें से तीन-चौथाई जल निधियों का तो इस्तेमाल महज सीवर की गंदगी बहाने में ही होता है । 
तालाबों को चौपट करने का खमियाजा समाज ने किस तरह भुगता, इसकी सबसे बेहतर बानगी बैंगलुरू ही है। यहां समाज, अदालत और सरकार सभी जमीन माफिया के सामने असहाय हैं। यदि शहर की जल कुंडली बांचें तो यह बात अस्वाभाविक-सी लगती है कि वहां ज़रूरत का महज 80 फीसदी जल ही आपूर्ति हो पा रहा है। एक करोड़ 40 लाख आबादी वाले महानगर में अंधाधुंध शहरीकरण और उसके लालच में जल निधियां उजाड़ी जा रही हैं।  सरकारी रिकार्ड के मुताबिक नब्बे साल पहले बंगलुरू शहर  में 2789 झीलें हुआ करती थीं। सन् 60 आते-आते इनकी संख्या घट कर 230 रह गई। सन् 1985 में शहर में केवल 34 तालाब बचे और अब इनकी संख्या तीस तक सिमट गई है। जल निधियों की उपेक्षा का ही परिणाम है कि लोग बूंद-बूंद पानी को भी तरस रहे हैं। हैदराबाद और चन्नई में भी जैसे ही विदेशी कंपनियां आना शुरू हुई और आबादी बढ़ने के साथ मकानों की जरूरत बढ़ी तो  तालाब-नदियों को ही समेट  दिया गया और जल संकट को खुद आमंत्रित कर लिया गया। समझना होगा कि देश के 10 में से 7 महानगरों में भू-जल का स्तर अब बेहद खतरनाक स्तर पर है।  वर्ल्ड वाइच फंड फार नेचर (डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ .)की एक ताज़ा रिपोर्ट चेता चुकी है कि जब भारत आजादी के 100 साल मनाएगा तब देश के 30 शहर जल-हीन की सीमा तक सूख जाएंगे। इनमें महानगर और राजधानियां तो हैं ही, इंदौर, भटिंडा और कोयंबटूर जैसे शहर भी शामिल हैं। यह कड़वा सच है कि जलवायु परिवर्तन के कारण जल-चक्त्र गड़बड़ा गया है, लेकिन  इसके साथ ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की तरफ  तेज पलायन, अनियोजित शहरीकारण, काम बरसात, अधिक गर्मी और उथले जल-स्रोतों में अधिक वाष्पीकरण और साथ ही जल का कुप्रबंधन कुछ ऐसे कारण हैं जो जल संकट के लिए प्रकृति से अधिक इंसान को कतघरे में खड़ा करते हैं । अब सम्पन्न लोग बीस रुपये में एक लीटर पानी खरीद कर पीने में संकोच नहीं करते हैं तो समाज का बड़ा वर्ग पानी के अभाव में  कई बार स्नान से भी वंचित रह जाता है। यहां जानना ज़रूरी है कि भारत में औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश होती है जो कि दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है। यह बात दीगर है कि हम हमारे यहां बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित कर पाते हैं। शेष पानी नालियों, नदियों से होते हुए समुद्र में मिल जाता है। 
लोग यह भूल जाते हैं कि प्रकृति पानी को एक चक्र के रूप में प्रदान करती है और इस चक्र को गतिमान रखना सबकी ज़िम्मेदारी है। इस चक्र के अनियमित होने पैदा होता है जल संकट। प्रकृति के खज़ाने से हम जितना पानी लेते हैं, उसे वापिस भी हमें ही लौटाना होता है। पुराने तालाबों, कुओं, बावड़ियों और नदियों का उनके मूल स्वरुप में आना और उनका संरक्षण ही जल संकट का एकमात्र समाधान है। 

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