बाढ़ ने सिद्ध किया, नदियों पर सिर्फ पंजाब का अधिकार
दिल ही तो है न संग-ओ-खिशत
दर्द से भर न आए क्यों?
रोएंगे हम हज़ार बार
कोई हमें सताए क्यों?
महान शायर मिज़र्ा ़गालिब का यह शे’अर पंजाब में बाढ़ से हुई हानि और पंजाब के साथ हुए अन्याय की दासतां पर पूरी तरह उचित बैठता है। अब तो पंजाब में बाढ़ की तीसरी लहर आने की भी सम्भावना डरा रही है। अब तक भी पंजाब में लाखों एकड़ फसल बर्बाद हो चुकी है। कई स्थानों पर तो धान की पुन: लगाई गई पनीरी फिर से डूब गई है। सड़कें टूट गई हैं, मशीनरी भी बह गई है। मकान गिर गये हैं, पशु भी मरे हैं, मानव जानें भी गई हैं। लोगों ने तो लोगों की सहायता की है, लंगर पहुंचाए हैं, पनीरी मुफ्त दी है, ज़िन्दगियां बचाई हैं, दरारें भरी हैं। शिरोमणि कमेटी ने भी अनेक स्थानों पर लंगर भेजे हैं परन्तु सरकारों ने अभी तक आश्वासन के अलावा कुछ नहीं दिया। न केन्द्र सरकार ने ही अच्छी तरह से पंजाब का हाथ थामा है और न ही पंजाब सरकार जितनी सहायता चाहिए थी, वह कर सकी है। इस मुसीबत के समय में अधिकतर स्थानों पर राजनीतिक नेता फोटो सैशन करवाने को ही सहायता समझते रहे। कहीं-कहीं अकाली दल तथा कांग्रेस विरोध की आवाज़ उठाते नज़र आए, परन्तु लोगों की आवाज़ नहीं बन सके। मुआविज़ा तथा विशेष गिरदावरी के मामले में भी अभी तक कुछ स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा। इसलिए ़गालिब के लफ्ज़ों में ‘एह दिल है, पत्थर नहीं’ जो भरे ना और संताप झेल रहे लोगों की आंखों में आंसू कैसे न आएं?
बाढ़ ने साबित किया कि पानी सिर्फ पंजाब का
ताज़ा आई बाढ़ में सतलुज, रावी तथा ब्यास नदियों ने मुख्य नुकसान सिर्फ पंजाब का ही किया है। हिमाचल का अधिक नुकसान बरसात, फटते बादलों तथा भूस्खलन के कारण हुआ है। हरियाणा में बाढ़ की मार यमुना तथा घग्गर नदियों के कारण हुई है। राजस्थान तथा दिल्ली में तो पंजाब की इन तीन नदियों के कारण कोई नुकसान नहीं हुआ। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रमाणित नदियों के पानी बारे रिपेरियन कानून के अनुसार नदी-पानी का मालिक वह प्रदेश ही होता है, जिस प्रदेश में उन नदियों का पानी बाढ़ में नुकसान करता है। इन तीनों नदियों में आई बाढ़ की मार जो पंजाब को ही झेलनी पड़ती है तो इनके पानी पर स्वामित्व भी पंजाब का ही है। कानूनी और नैतिक दोनों तरह से इस पानी पर राजस्थान, हरियाणा तथा दिल्ली का कोई अधिकार नहीं है। भारत के संविधान के 7वें शैड्यूल की धारा 17 यह स्पष्ट करती है कि पानी प्रदेशों का विषय है। हमारी नदियां अंतर्राज्यीय नदियां नहीं हैं कि केन्द्र को कोई अधिकार या बहाना मिलता हो। ये नदियां पहाड़ों से उतरती हैं, पंजाब से होते हुए पाकिस्तान में चली जाती हैं। ब्यास नदी हिमाचल से चलती है और पंजाब में 292 मील चल कर सतलुज नदी में मिल जाती है।
सतलुज नदी मानसरोवर ग्लेशियर के निकट तिब्बत स्थित राका या राक्षश-तल झील से निकली है। इसका पुराना नाम इरावती नदी था। सतलुज तथा रावी पाकिस्तान में जाकर चिनाब नदी में, फिर सिंध नदी में जा मिलती हैं और अंत में समुद्र में समा जाती हैं। स्पष्ट है कि इन तीनों नदियों का ही राजस्थान, हरिणाणा तथा दिल्ली के साथ कोई सम्पर्क सम्बंध नहीं है। संविधान के 7वें शैड्यूल की धारा 17 के अनुसार पानी राज्यों का विषय है तो केन्द्र सरकार, सुप्रीम कोर्ट तथा संसद भी पंजाब पर धक्के से कोई फैसला नहीं थोप सकतीं। शायद सुप्रीम कोर्ट के सुयोग्य न्यायाधीशों को इसका एहसास है और शायद इसी लिए ही वे एस.वाई.एल. नहर के मामले पर केन्द्र को दोनों प्रदेशों में आपसी समझौता करवाने के लिए कहते हैं। नि:संदेह हिमाचल प्रदेश अवश्य अपर-रिपेरियन राज्य है जो पंजाब से कुछ हक मांग सकता है परन्तु स्मरणीय है कि किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय या राष्ट्रीय कानून के अनुसार वह पंजाब में आ रहे पानी के प्राकृतिक बहाव को बदलने या रोकने का हकदार नहीं है।
इन बाढ़ों ने पंजाब का एक और अधिकार भी उजागर किया है कि पंजाब की तीनों नदियों रावी, ब्यास तथा सतलुज का हरियाणा रिपेरियन राज्य नहीं है परन्तु पंजाब ज़रूर घग्गर का रिपेरियन राज्य है क्योंकि घग्गर की बाढ़ पंजाब का अधिक नुकसान करती है।
रद्द करो सभी पुराने तथा जबरन थोंपे समझौते
कमाल-ए-तिशनगी की इंतिहा हूं।।
समन्दर हूं मगर प्यासा रहा हूं।
पंजाब ने राजस्थान, दिल्ली तथा हरियाणा को अपनी नदियों का पानी देकर स्वयं अपना भूमिगत पानी इतना उपयोग कर लिया है कि हमारे 97 प्रतिशत ब्लाक डार्क ज़ोन बन गये हैं। हम धरती से हर वर्ष 35.78 अरब क्यूबिक मीटर पानी निकालते हैं, जबकि सिर्फ 21.58 अरब क्यूबिक मीटर पानी ही दुबारा रिचार्ज होता है अभिप्राय यह कि हर वर्ष हमारे भूमिगत पानी के भंडार 14 अरब क्यूबिक मीटर की दर से कम हो रहे हैं। परिणाम क्या होगा, कोई अनपढ़ भी बता देगा। पंजाब अगले दशक भर में रेगिस्तान बनने की ओर बढ़ रहा है। पीने वाला पानी तो अभी से ही मूल्य मिलता है या आर.ओ. आदि से साफ करके पीना पड़ता है।
सवाल है कि इसका इलाज क्या है? और जवाब है कि इसका एकमात्र इलाज है कि पंजाब अब तक जबरन थोंपे गए सभी एकपक्षीय समझौते रद्द करे। अपनी ज़रूरत नदियों के पानी से पूरी करे, नहरों का, सूओं का तथा बरसाती पानी को धरती में रिचार्ज करने का लक्ष्य बना ले तथा लागू करे। फिर शेष बचता पानी पड़ोसी प्रदेशों को एक उचित कीमत पर बेचे। अभी-अभी 2019 में दिल्ली ने हिमाचल से पानी मोल लेने का समझौता किया है। पानी की कीमत के साथ-साथ उसने हिमाचल को दिल्ली में बेशकीमती ज़मीन पर प्लाट भी दिए हैं।
पंजाब पानियों का मालिक है तथा इसकी कीमत लेने का अधिकारी है। इसके ऐतिहासिक प्रमाण भी हैं। 1873 ईसवी में जब पटियाला, नाभा तथा जींद रियासतें जो उस समय पंजाब से अलग स्वतंत्र राज्य थे, ने सरहिंद नदी से पानी लिया तथा रिपेरियन कानून द्वारा पंजाब को पानी का मूल्य दिया गया। फिर 1921 में गंग नहर का निर्माण शुरू हुआ, जिसका उद्घाटन 26 अक्तूबर, 1927 को वायसराय लार्ड इरविन ने किया तथा यह फिरोज़पुर के हुसैनीवाला से बीकानेर तक पानी लेकर गई। तब भी पंजाब को पानी की कीमत मिलती रही। चलो, ब्रिटिश शासन की बात छोड़ें। राजस्थान जिस 29 जनवरी, 1955 की भारत के केन्द्रीय सिंचाई तथा ऊर्जा मंत्रालय की बैठक के आधार पर 80 लाख एकड़ फीट पानी पंजाब से ले रहा है, उसे ही बैठक के पैरा नम्बर 5 में लिखा गया था कि (इस) पानी की कीमत संबंधी फैसला एक अलग बैठक बुला कर लिया जाएगा, परन्तु आज तक 68 वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी वह बैठक नहीं हुई तो इससे बड़ी धक्केशाही क्या हो सकती है? फिर भी एग्रीमैंट या समझौता किसी वस्तु के देने तथा उसके बदले कुछ लेने के क्रियान्वयन का नाम है। जब पानी के बदले पंजाब को कुछ मिलता ही नहीं तो इसे समझौता कहा ही नहीं जा सकता। यह तो सरासर धक्केशाही है। पंजाब की पहली सरकारें इस धक्केशाही के विरुद्ध लड़ने में विफल रहीं या उनकी नीयत ही नहीं थी।
हालांकि पंजाब विधानसभा दो बार, एक बार कैप्टन अमरेन्द्र सिंह के मुख्यमंत्री होने के समय तथा एक बार स. प्रकाश सिंह बादल के शासन दौरान सरकार को निर्देश दे चुकी है कि इन प्रदेशों से पानी की रॉयल्टी लेने के लिए कार्रवाई करे परन्तु ऐसा नहीं हुआ। सो, मौजूदा भगवंत मान सरकार हौसला तथा नीयत दिखाए तथा अपना हक लेने के लिए सभी समझौतों सहित कैप्टन के समय बने कानून जिनमें राजस्थान को जा रहा है पानी देने की बात की गई थी, को रद्द करने का साहस करे तथा पंजाब का भविष्य संवारे। यह हमारा अधिकार है।
तू अपने ओहदा-ए-मुन्सिफ
से मुन्सिफ अस्तीफा दे दे,
अगर हकदार का हक तुझ
से दिलवाया नहीं जाता।
(नवाज असीमी)
किसान एकता समय की मांग
जो कुछ पंजाब में घटित हो रहा है, जिस तरह पंजाब के रेगिस्तान बनने की सम्भावनाएं बनती जा रही हैं, जिस तरह पंजाब की सभी परम्परागत मांगों के आधार ही खत्म किये जा रहे हैं, जिस तरह किसान यूनियनें अलग-अलग मार खा रही हैं, तथा दूसरी तरफ जिस तरह किसानों की एकता से जुड़े मोर्चे के समक्ष केन्द्र सरकार को झुकना पड़ा था, उससे स़ाफ स्पष्ट है कि किसान एकता पंजाब की बेहतरी के लिए सबसे ज़रूरी है। हमारे सामने ही है कि किसान मोर्चे की सफलता के बाद कैसे किसान एकता में दरार पड़ गई? इसलिए ज़रूरी है कि किसान नेता अपने अहं को त्याग कर एकता के लिए आगे आएं तथा पंजाब की मांगों तथा ज़रूरतों का एक सांझा चार्टर तैयार करके उसके लिए संघर्ष का कार्यक्रम जो पहले मोर्चे की तरह ही शांतिपूर्ण हो, बनाएं, परन्तु यह ज़रूरी है कि इस दौरान उन काली भेड़ों की तलाश करके उन्हें ज़रूर अलग कर दिया जाए, जो पहले मोर्चे के समय माहौल खराब करने के यत्न करती रहीं तथा मोर्चे की जीत के बाद किसान एकता को छिन्न-भिन्न करने में सफल हुई थीं। पंजाब को सचमुच एक शांतिपूर्ण, समझ-बूझ तथा एकता के साथ संघर्ष करने के लिए संयुक्त ताकत की इस समय सबसे अधिक ज़रूरत है।
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