महिलाओं संबंधी कानून की भी हो समीक्षा
कानून कोई भी हो, उसके सदुपयोग और दुरुपयोग की सम्भावनाएं बनी रहती हैं। समय-समय पर उनकी समीक्षा और आवश्यकतानुसार परिवर्तन आवश्यक है क्योंकि हमारा विधि समाज, वकील से लेकर न्यायाधीश तक, कोई न कोई कमी तलाश ही लेते हैं जिससे अदालती प्रक्रिया प्रभावित हो जाती है। अपराधी बच जाता है और निर्दोष सज़ा भुगतता है। न्याय के प्रति अविश्वास पनपने लगता है।
न्यायिक व्यवस्था में आस्था नहीं रहती
कई बार अदालतों द्वारा इस तरह के निर्णय सुनाए जाते हैं कि जघन्य अपराध के लिए लंबी सज़ा काटने के बाद पाया जाता है कि अभियुक्त निर्दोष था, हमारी कानून व्यवस्था में कमी का संकेत है। इस दौरान उसके साथ जो हुआ, जो उसने सहा, उसके लिए ज़िम्मेदार व्यक्ति चाहे पुरुष हो या महिला अथवा सामाजिक संगठन, उसे सज़ा हुई हो, ऐसा देखने सुनने में नहीं आता।
एक उदाहरण है, दिल्ली में तीस हज़ारी अदालत में वर्षों से झूठे मामले में सज़ा काट रहे एक व्यक्ति को बरी करने का फैसला न्यायमूर्ति अतिरिक्त सेशन जज श्री अग्रवाल ने हाल ही में दिया और कहा कि दुष्कर्म जैसा घिनौना आरोप लगाने वाली महिला के विरुद्ध कार्रवाई हो। यह महिला उस व्यक्ति को बहुत समय से ब्लैकमेल कर रही थी। उसने कई बार धमकी दी थी कि अगर उसकी मांगी रकम उसे नहीं दी गई तो वह उसे दुष्कर्म के मामले में फंसाकर उसकी ज़िंदगी तबाह कर देगी। जब उसकी धमकियों का असर होता दिखाई नहीं दिया तो उसने झूठा आरोप लगाकर पुलिस थाने में शिकायत की और अथित मिलीभगत से उसे गिरफ्तार कराया। अदालत में मुकद्दमा शुरू हुआ और जज साहिब को मामले में सुनवाई के दौरान पता चला कि सात लाख रुपये वसूलने के लिए महिला ने किया था। बाद में अदालत ने यह भी पाया कि यह महिला इसी तरह कुछ और लोगों से भी पैसा वसूल करती रही है।
बात सन् 2019 की है। महिला और यह व्यक्ति दिल्ली के एक होटल में मिलते हैं, वहां इनके बीच महिला की सहमति से संबंध बनते हैं। अदालत की लंबी प्रक्रिया चलती है। व्यक्ति जेल में बंद हो जाता है। सात साल तक मुकद्दमा चलता है और अंत में उसे निर्दोष घोषित किया जाता है। यह भी सामने आया कि इस महिला ने इसी तरह के आरोप पांच और व्यक्तियों पर लगाये थे जिनके मुकद्दमें विभिन्न राज्यों की अदालतों में चल रहे हैं।
प्रश्न यह है कि क्या चोरी, हत्या, हिंसा और दुष्कर्म के झूठे आरोप में पुरुष के निर्दोष सिद्ध होने के लिए जो समय लगा, उस की भरपाई कैसे हो सकती है? इसका उत्तर भारतीय न्याय संहिता में कहीं नहीं मिलता। क्या यह हमारे कानूनों की कमी नहीं है कि महिला द्वारा लगाये आरोप जो उसने अपने किसी स्वार्थ को पूरा करने के लिए लगाये हो सकते हैं, उसके विपरीत पहले ही मान लिया जाता है कि ग़लती पुरुष की ही होगी? पुरुष के निर्दोष सिद्ध होने पर भी महिला के प्रति कानून का रवैया हमदर्दी का रहता है। इसका असर पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों पर पड़ना निश्चित है।
केवल महिला सुरक्षा के लिए कानून
हमारे देश में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर कई तरह के कानून हैं। दहेज मांगने का आरोप लगाना आम बात है और इसके तहत घर के सभी सदस्यों को कटघरे तक पहुंचाया जा सकता है। सम्पत्ति विवाद में महिलाओं की हिस्सेदारी को लेकर इन दिनों काफी तेज़ी आई है। इसके बाद घरेलू हिंसा के मामले हैं। अब तलाक के मुकद्दमे से पहले इन मामलों का निपटारा होना ज़रूरी है। भारतीय न्याय संहिता में महिला द्वारा अपने साथ हुए अत्याचार की शिकायत करते ही यह मामला गैर-ज़मानती हो जाता है। पहले गिरफ्तारी होगी, फिर अदालत तय करेगी कि ज़मानत पर रिहा हो या नहीं। यह प्रक्रिया इतनी लम्बी हो सकती है कि पुरुष समझौता करने की बात कह कर अपना पीछा छुड़ाना चाहता है, लेकिन वह ऐसा भी नहीं कर सकता। ज़रा सोचिए, बिना किसी वारंट या तफतीश के सीधी गिरफ्तारी, निर्दोष के लिए तो यह अदालती कार्यवाही से पहले ही सज़ा हो जाने के समान है। महिला गाली-गलौज करे तो कोई केस नहीं बनता और अगर पुरुष यह करे तो सीधी गिरफ्तारी हो सकती है।
दुष्कर्म के आरोप पर जो निर्णय माननीय न्यायाधीश ने दिया वह एक ऐतिहासिक फैसला है क्योंकि सम्मान और प्रतिष्ठा पाने में पूरी उम्र लग जाती है लेकिन उसे ध्वस्त करने में किसी महिला का इतना कहना ही काफी है कि उसका दुष्कर्म किया गया है। ऐसे एक नहीं कई उदाहरण हैं जिनमें किसी महिला की किसी बात या व्यवहार पर आपत्ति जताई गई तो सीधा जवाब दिया जाता है कि छेड़छाड़ का आरोप लगाकर शिकायत दर्ज करा दी। ऐसा इसलिए है कि ऐसा कानून बना है जो महिलाओं की सुरक्षा के लिए ज़रूरी है, लेकिन समय के साथ उसकी समीक्षा नहीं हुई तो उसका दुरुपयोग होना शुरू हो गया। मान लिया जाता है कि महिलाएं ही पीड़ित हो सकती हैं, परन्तु आंकड़ों के आधार पर आधे से अधिक मुकद्दमें पुरुषों को पीड़ित करने के हैं।
समीक्षा के लिए क्या किया जाए
सबसे पहले विभिन्न प्रावधानों की स्पष्ट व्याख्या होनी चाहिए ताकि उनका कोई भी पक्ष विपरीत अर्थ न निकाल सके। कानून में बदलाव यह ध्यान में रख कर किया जाए कि यौन शोषण, छेड़खानी, उत्पीड़न और निर्दयता के झूठे आरोप पुरुष की सामाजिक प्रतिष्ठा, मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डालते हैं। झूठे आरोप लगाने वाली महिलाओं के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई का प्रावधान हो।
महिलाओं के लिए अनेक हेल्पलाईन और शेल्टर होम हैं, इसी प्रकार पुरुषों के लिए भी व्यवस्था की जाए ताकि वे जब मुसीबत में फंस जाएं तो उनकी मदद की जा सके। पुलिस और न्यायपालिका की भूमिका पर अक्सर सवाल उठते हैं कि वे महिला के पक्षधर हैं जबकि उनके आचरण से निष्पक्ष दिखना ज़रूरी है। किसी प्रलोभन या दवाब की गुंजाइश न रहे। पुरुष हो या महिला दोनों के साथ समान व्यवहार किया जाए। लिंग के आधार पर छूट नहीं मिले और सत्य की बात हो। घरेलू हिंसा जैसे अपराध के लिए सख्त कानून हैं और उनमें पुरुष को ही अपराधी माना जाता है। यह बदलाव हो कि महिला भी अपराधी हो सकती है। अभी तक तलाक की प्रक्रिया में पति पर ही पूरी ज़िम्मेदारी डाली जाती है।
यह ऐसा विषय है जिस पर खुलकर बात की जानी चाहिए, केवल लिंग भेद के कारण किसी को दोषी ठहराना गलत है। 2022 में आत्महत्या करने वालों में 72 प्रतिशत पुरुष थे और अधिकांश महिलाओं द्वारा झूठे और निराधार आरोपों से पीड़ित थे। यह बहस का विषय है कि पुरुष भी घरेलू हिंसा के शिकार होते हैं, उनके लिए विशेष मानसिक चिकित्सालयों की आवश्यकता है। प्रताड़ित महिलाओं की अपेक्षा पीड़ित पुरुषों की संख्या अधिक है जो प्रतिदिन किसी न किसी हिंसा का सामना करते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि कोई कानून उनके पक्ष में नहीं है।