हिंदी के शुभचिंतक ही इसके विरोधी हैं !
अगर आप गहराई से सोचें तो साफ हो जाएगा कि हिंदी के सबसे बड़े विरोधी कौन हैं? जी हां, ये इसके तथाकथित शुभचिंतक ही हैं, वरना तो बिना किसी हो हल्ले, बिना किसी शोर शराबे के भी देश में हिंदी लगातार आगे बढ़ रही है। लेकिन जब भी कोई उत्साही राजनेता अपनी सियासत को चमकाने के लिए हिंदी को अनिवार्य बनाने की मांग करता है या किसी भी रूप में उसके प्रति सहानुभूति प्रकट करता है, तो हिंदी का विरोध होना शुरू हो जाता है? अब इसे ही लें, हिंदी को लेकर तमिलनाडु का तनाव अभी कहीं से कम होने का कोई संकेत भी नहीं दे रहा था कि महाराष्ट्र में भी हिंदी को लेकर विवाद शुरु हो गया है।
दरअसल महाराष्ट्र की फडणवीस सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 (एनईपी-2020) को लागू करने की योजना के तहत फैसला किया है कि राज्य के सभी सरकारी और निजी स्कूलों में कक्षा 1 से 5 तक तीसरी भाषा के रूप में हिंदी पढ़ना अनिवार्य होगा। राज्य सरकार के इस फैसले का महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) के अध्यक्ष राज ठाकरे ने तुरंत विरोध किया है। उन्होंने एक बयान जारी करते हुए कहा कि ‘मैं स्पष्ट शब्दों में कहता हूं कि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना इस अनिवार्यता को बर्दाश्त नहीं करेगी।’ इसके पहले उन्होंने यह भी कहा कि हम हिंदू हैं, लेकिन ज़रूरी नहीं है कि हिंदी भी हों।
एमएनएस के बाद कांग्रेस ने भी नाराज़गी जताई है और धीरे-धीरे बाकी सभी राजनीतिक पार्टियां जो सत्ता में नहीं हैं, नाराज़गी जताने के मूड में आ गई है, क्योंकि महाराष्ट्र सरकार ने जिस तरह से घोषणा की है, उससे भले हिंदी को कुछ फायदा न हो, लेकिन ऐसा संदेश ज़रूर ध्वनित हो रहा है कि मानो मराठी पर हिंदी की प्राथमिकता थोपी जा रही हो, लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हो रहा अक्सर देखा गया है कि एक तरफ तो राजनेता चुनावी मौकों पर हिंदी बेल्ट में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने तक के सपने दिखाते हैं और दूसरी तरफ हिंदी के पक्ष में अगर कोई झूठ-मूठ का भी बयान आ जाए तो वोट बैंक की चिंता में ज़रूरत से ज्यादा संवेदनशील हो जाते हैं। ऐसे मौकों पर पल भर में भावनाएं उग्र हो जाती हैं। लेकिन जब वे हिंदी की भावनाओं को सहलाने की कोशिश करते हैं, तब भी वोट ही बड़ा फैक्टर होता है। पहले भावनाओं का यह खेल सबसे ज्यादा दक्षिण भारत, बंगाल और उत्तर-पूर्व के राज्यों में ही मुखर था, महाराष्ट्र में भी थोड़ी-बहुत हिंदी विरोधी बातें होती रही हैं, लेकिन महाराष्ट्र स्वाभाविक रूप से हिंदी विरोधी राज्य कभी नहीं रहा बल्कि मुम्बई जैसा देश का सबसे महत्वपूर्ण नगर तो अप्रत्यक्ष रूप से हिंदी भाषी शहर ही है और महाराष्ट्र के राजनेताओं ने भी, कभी भी हिंदी का इतना उग्र विरोध नहीं किया कि मुम्बई के हिंदी भाषी माहौल और उसकी संस्कृति को निर्णायक रूप से ठेस पहुंचे।
लेकिन लगता है फडणवीस सरकार कुछ ज्यादा ही खुद को राष्ट्रवादी साबित करने की कोशिश कर रही है, क्योंकि जब नई शिक्षा नीति-2020 में स्पष्ट है कि मातृ भाषा और अंग्रेज़ी के बाद तीसरी कोई भी भाषा वैकल्पिक होगी, तो फिर इस तरह का विवाद खड़ा करने का क्या तुक है कि हिंदी को एक तय स्तर तक अनिवार्य भाषा के रूप में पढ़ाया जाए? इससे तो राष्ट्रीय शिक्षा नीति की मूल भावना ही सवालों के दायरे में खड़ी हो जाती है कि अगर राष्ट्रीय शिक्षा नीति स्पष्ट रूप से हिंदी की वकालत करने की बजाय किसी भी तीसरी भाषा की बात करती है, तो फिर इसमें जानबूझकर तीसरी भाषा के रूप में हिंदी को क्यों चिन्हित किया जाए? आखिर तमिलनाडु में केंद्र सरकार से लेकर तमाम हिंदी समर्थक क्या तर्क दे रहे हैं? यही न कि राज्य को कोई भी तीसरी वैकल्पिक भाषा अपने शैक्षिक कार्यक्रम में शुरु करनी चाहिए। यहां तक कि केंद्र सरकार के अलग-अलग मंत्रियों से लेकर गृहमंत्री अमित शाह और शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने भी कई बार स्पष्ट कहा है कि केंद्र सरकार यह कतई नहीं चाह रही कि तमिलनाडु तीसरी भाषा के रूप में हिंदी को ही पढ़ाना शुरु करें, वह कोई भी तीसरी भाषा हो सकती है, चाहे तेलगू हो, चाहे कन्नड हो या मलयालम।
ऐसे में फडणवीस सरकार की इस अनिवार्यता को किस खांचे में रखकर समझा जाए। अगर राष्ट्रीय शिक्षा नीति में हिंदी की अनिवार्यता पर ज़रा भी ज़ोर नहीं दिया गया तो फिर मुख्यमंत्री और सत्तारूढ़ राज्य सरकार ऐसा क्यों कह रही है कि हिंदी को अनिवार्य बनाया जायेगा? क्या इससे फडणवीस ज्यादा हिंदी सैवी साबित हो जाएंगे? सच तो यह है कि जब हिंदी को लेकर राजनीति नहीं की जाती, हिंदी को जबरन लाइम लाइफ में लाकर अपनी सियासत चमकाने की कोशिश नहीं की जाती, उस समय हिंदी सबसे तेज़ और मजबूत विकास कर रही होती है। हिंदी में आज जो भी महत्वपूर्ण संसाधन है, बाजार में उसकी जो कुछ ताकत है, उसमें हिंदी भाषियों से ज्यादा गैर-हिंदी भाषी लोगों का योगदान है। हिंदी भाषा में सबसे बड़ा योगदान हिंदी सिनेमा का माना जाता है। यह हिंदी सिनेमा ही है, जिसने भारत के 99 फीसदी गैर-हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी को फैलाया है।
शुरु से लेकर आजतक हिंदी सिनेमा के 90 फीसदी से ज्यादा निर्माता निर्देशक मूलत: गैर-हिंदी भाषी क्षेत्रों से आये हैं, सबसे ज्यादा पंजाबियों ने, एक जमाने में मराठियों और बंगालियों ने, हिंदी सिनेमा को हर तरह से समृद्ध किया है। फिर हम क्यों महाराष्ट्र या दूसरे किसी प्रांत में हिंदी की सुपरमेसी थोपने की कोशिश करते हैं? हिंदी अगर आज बाज़ार की और संवाद की सबसे मजबूत भाषा है तो इसमें हिंदी भाषियों से ज्यादा गैर-हिंदी भाषियों का योगदान है।
हिंदी में ऐसा कोई संकट नहीं है जिसके एवज में फडणवीस सरकार यह विवाद खड़ा करे, उल्टे हिंदी को तो पूरे देश में सबसे ज्यादा महाराष्ट्र का ही शुक्रगुजार होना चाहिए और उसमें भी देश की वित्तीय राजधानी मुम्बई का, जो कि मराठी भाषी प्रांत की राजधानी होते हुए भी बड़े पैमाने पर हिंदी भाषी लोगों को संरक्षण देता है।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर