मौसम की बढ़ती अनिश्चितता के कारण अब ज़रूरी है नई कृषि नीति!
देश का 87 प्रतिशत हिस्सा भीषण गर्मी और लू से प्रभावित है। तन, मन को झुलसाता तापमान हमारे खेत, खलिहान को भी झुलसा रहा है। बढ़ता तापमान, उससे प्रसूत जलवायु परिवर्तन तथा उसकी पर्यावरणीय विद्रूपताएं वैश्विक हैं और इसके चलते हमारे समेत सबकी खेती किसानी चौपट होने का अंदेशा है। 2050 तक दुनिया की आबादी 10 अरब होगी तो अनाजों की मांग बेतरह बढ़ेगी और उनकी खेती भी। लेकिन तापमान की बढ़ोत्तरी से फसलों के प्रभावित होने के चलते इतनी आबादी का पेट भरना कठिन होगा। इसे लेकर हमको अपने बारे में बाकी दुनिया के मुकाबले कुछ ज्यादा ही चिंतित होने की ज़रूरत है। सच यही है कि सत्वर बढ़ती अर्थव्यवस्था के बावजूद अभी भी हम औद्योगिक नहीं कृषि प्रधान देश हैं। हमारे 60 प्रतिशत से अधिक लोगों की आजीविका कृषि पर आधारित है। बहुतायत लोग पशुपालन, फलों और फूलों की खेती इत्यादि पर निर्भर हैं और इन सबको तापमान की बढ़ोत्तरी से खतरा है। आंकलन कहता है कि 2039 तक जलवायु परिवर्तन के खतरों के चलते देश में कृषि उत्पादन लगभग 17 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। जब ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स भारत को जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित दस शीर्ष देशों में रखता है तो यह तथ्य और चिंतनीय हो जाता है।
देश में रबी की फसल का रकबा पिछली साल की तुलना में तकरीबन चार लाख हेक्टेयर बढ गया है, अनुमान के अनुसार उम्मीद की जा रही है कि तिलहन छोड़ दलहन और गेहूं इत्यादि का उत्पादन पहले से ज्यादा होगा। पर यह बढ़त रकबे की बढ़त के अनुरूप नहीं है। जाहिर है, किसान जितना श्रम और लागत लगायेगा, उसे उसका प्रतिफल उतना नहीं मिलेगा। आगे यह संकट और गहरायेगा। अगर 27 लाख की सब्सिडी पाने वाले अमरीकी किसानों का गेहूं देश में आया तो मात्र 45 हजार तक अनुदान पाने वाले भारतीय किसानों का गेहूं मूल्य के मामले में नहीं टिक पायेगा, हालांकि ये बाज़ार की बात है, लेकिन इसमें भी किसान और किसानी शामिल ही है। खैर, घटते उत्पादन के बीच पेट भरने के लिए हमको दूसरों से ज्यादा खाद्यान्न चाहिये; क्योंकि डेढ अरब पहुंचती हमारी आबादी दूसरों के मुकाबले कहीं बहुत ज्यादा है। विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ने और उसके तीव्र विकास के अलावा आर्थिक उन्नति के बहुतेरे दावों के बावजूद जमीनी सच यही है कि देश की अधिकांश आबादी जिसमें सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़ों में बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले अमीर राज्य के निवासी भी शामिल हैं, सरकार द्वारा बांटे गये सस्ते या मुफ्त खाद्यान्न पर निर्भर हैं। अपना दाना न रहा तो हम यह कैसे बांट पाएंगे। इसका असर राजनीति पर भी प्रतिकूल पड़ेगा। बेशक खाद्यान्न वितरण के मामले में हम आत्मनिर्भर हैं पर जलवायु विज्ञानी कहते हैं कि तापमान 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाए तो गेहूं का उत्पादन 17 प्रतिशत तक कम और धान की बारी आने पर 2 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने का मतलब है उसके उत्पादन में तकरीबन एक टन प्रति हेक्टेयर की कमी होना। मतलब बढ़ती गर्मी आजीविका और खाद्य सुरक्षा दोनों को खतरे में डालने वाली है, साथ ही मुफ्त खाद्यानों के लाभार्थियों वाली राजनीति को भी।
मौसम में बदलाव, गर्मी के दिन ज्यादा और सर्दी के दिन कम कर रहा है, जिससे पूरा फसल चक्र गड़बड़ा जा रहा है। किसान पुराने ढर्रे पर चलकर बुआई, कटाई कर नुकसान उठा रहे हैं और नए को अपना नहीं पा रहे। अनिश्चितता और असमंजस की इस नई स्थिति में उनका पुराना अनुभव काम नहीं आ रहा और कभी उन्हें मात्रा के तौर पर बेहतर उपज नहीं मिल रही तो कभी दाने पुष्ट नहीं, कमजोर, गुणवत्ता हीन पैदावार। भले सरकार अपनी खरीद के मूल्य बढ़ा दे पर ऐसी आफत में किसान की आमदनी दोगुना तो होने से रही। तीव्र तापमान से प्रदूषण, भू-क्षरण, जमीन की नमी कम होने और सूखा पड़ने के कारण फसलों की ही नहीं जमीन की गुणवत्ता भी गिरती है। भीषण तापमान, तिस पर बेहद कम वर्षा तथा जल स्रोतों, जलाशयों, का तेजी से सिकुड़ना। ऐसे में जहां दो तिहाई कृषि क्षेत्र खेती के लिये वर्षा जल पर निर्भर हों, फसलों की परम्परागत सिंचाई में भारी बाधा पैदा होगी। गर्मी खेतों में कीट-पतंगों की प्रजनन क्षमता बढ़ाकर उनका प्रकोप लाएगा तो अधिक कीटनाशी के इस्तेमाल से मुसीबतें पैदा होंगी। यह कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता को तापमान प्रभावित करेगा। गेहूं, सरसों, जौ और आलू ,मक्का, ज्वार और धान ही नहीं चाय, सेब जैसे कई फलों का उत्पादन भी घटेगा। दूसरे तमाम देशों ने अपनी परिस्थिति और प्राथमिकता के अनुरूप उपाय आरंभ कर दिये हैं, अपना देश भी 2008 से ही इस मामले में कई सरकारी योजनाएं क्रियान्वित कर रहा है। तब ‘अनुकूलन’ पर आधारित राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन शुरू किया गया था। नि:संदेह मौजूदा सरकार भी इस ओर ध्यान दे रही है, क्योंकि उसकी प्राथमिकता में किसान सदैव ऊपर रहे हैं लेकिन फिलहाल अभी भी इस ओर किए जाने वाले सभी प्रयास फुटकर योजनाओं तक सीमित हैं जबकि कृषि प्रधान देश होने के नाते हमें तत्काल नए कुछ उपाय करने होंगे। इन उपायों के लिये एक सुविचारित नीति की आवश्यकता है बल्कि एक नई समग्र कृषि नीति की, जो जलवायु परिवर्तन, बढ़ती गर्मी, उसके दुष्प्रभावों और आसन्न खतरों एवं उसके निदानों को केंद्र में रखकर बनी हो। बढ़ता तापमान जलवायु परिवर्तन का जनक है, जो मानव जीवन को हर तरह से कष्टकारी बनने वाली पर्यावरणीय स्थितियों का निर्माण कर रहा है। इसलिये यह सरकार के साथ-साथ सारी जनता की साझी चिंता होनी चाहिये क्योंकि अब जलवायु परिवर्तनशीलता मात्र आंकड़ों की बातें या सैद्धांतिक बहसों का विषय न रहकर सामने दिखने वाली वास्तविकता बन चुकी है।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर