सुखबीर को पंजाब का मोह

अकाली दल के प्रधान स. सुखबीर सिंह बादल की भूमिका कुछ इसलिए बदल गई प्रतीत होती है क्योंकि वह अब प्रदेश की विधानसभा के नहीं अपितु देश की संसद के सदस्य बन गये हैं। स्थान बदलने के साथ कुछ विचार एवं बोली भी बदलती है। ज़िम्मेदारी निभाना अलग कर्म है एवं बयान देना अलग क्षेत्र है। देश की संसद में उन्होंने अपना पहला भाषण दिया है। उन्हें एक बार फिर चंडीगढ़ को पंजाब में शामिल करने की बात याद आई है हालांकि वह पंजाब से बाहर रह गये पंजाबी भाषी इलाकों की यहां बात करना भूल गये हैं। उन्हें पंजाब के पानी की याद आई है तथा यह भी कि राजस्थान को पंजाब की ओर से दिये जा रहे पानी का भी मूल्य लेना चाहिए था तथा लेना चाहिए। उन्हें पंजाब में धरती के नीचे वाले पानी के पाताल में चले जाने की बात भी याद आई है। पानी के गहराते जाते संकट में से निकलने के लिए गेहूं एवं धान के फसली चक्र को बदलने का एहसास भी हुआ है तथा इसके साथ ही पंजाब के उद्योगों के अवसान एवं खास तौर पर पंजाब के उद्योगों के बड़ी संख्या में हिमाचल, जम्मू-कश्मीर और उत्तराखंड में पलायन करने का भी एहसास हुआ है। नि:संदेह पंजाब आज कई पक्षों से गम्भीर संकट में फंसा हुआ दिखाई देता है। उसके समक्ष अनेक चुनौतियां आ खड़ी हुई हैं। पंजाब में विगत लम्बे समय से कांग्रेस एवं अकाली-भाजपा गठबंधन का शासन रहा है। इन दलों की नीतियों के अनुसार ही प्रदेश की दशा एवं दिशा निर्धारित होती रही है। हम समझते हैं कि प्रदेश यदि आज मंदी की हालत में से गुज़र रहा है, यदि इसकी आर्थिकता लड़खड़ा रही है तो इसके लिए इन दलों के बड़े नेता ही ज़िम्मेदार हैं। स. प्रकाश सिंह बादल एवं अन्य अकाली नेताओं ने किसानों को बिजली-पानी मुफ्त देने की घोषणाएं कीं। लाख रोके जाने के बावजूद वे अपने इस हठ पर कायम रहे। आज यदि पंजाब राजस्थान बनता जा रहा है तो इसके लिए इन नेताओं को अधिक ज़िम्मेदार माना जाएगा। अकाली दल ने मोर्चे पर मोर्चा लगा कर पंजाबी सूबा मांगा, परन्तु उनके हाथ एक छोटा-सा प्रांत थमा दिया गया। यदि वे इस बात पर कभी-कभी बोलते भी रहे तो भी उनकी इस आवाज़ में कोई दम नहीं था। यहां तक कि चंडीगढ़ के मामले पर भी वे कोई मजबूत स्टैंड न ले सके। लौंगोवाल-राजीव समझौते के अंतर्गत चंडीगढ़ पंजाब को देने की घोषणा की गई परन्तु बाद में प्रधानमंत्री राजीव गांधी इससे मुकर गये। इसके बावजूद अकाली नेता शासन करने की अपनी लालसा के दृष्टिगत सत्ता से चिपके रहे। इसके लिए स. सुरजीत सिंह बरनाला और स. बलवंत सिंह बड़े दोषी करार दिये जा सकते हैं। बाद की अकाली सरकारों ने चंडीगढ़ लेने के लिए कितने यत्न किए, इसे लेकर कुछ भी छिपा हुआ नहीं है। अकाली सरकारों के समय चंडीगढ़ से अधिकतर कार्यालय उठा कर मोहाली ले जाये गये। और तो और, अकाली-भाजपा सरकार ने पंजाब के लिए विरासत का दर्जा रखने वाले पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ पर भी अपना अधिकार छोड़ दिया था तथा इसे केन्द्रीय विश्वविद्यालय बनाने के लिए फाइल केन्द्र को भेज दी थी, परन्तु इसका तीव्र विरोध होने के दृष्टिगत बाद में यह फाइल वापिस मंगवा ली गई। अकाली दल की सरकारें कर्मचारियों की नियुक्ति संबंधी 60:40 का अनुपात भी बरकरार न रखवा सकीं। सुखबीर सिंह बादल ने अनेक कारणों के दृष्टिगत नये चंडीगढ़ की लालसा पाल कर एक प्रकार से चंडीगढ़ के मामले को और भी कमजोर कर दिया। यहां तक कि केन्द्र की ओर से पंजाब के सीने पर बनाये गये इस केन्द्र शासित क्षेत्र में पंजाबी भाषा की पूरी तरह से मिट्टी पलीद कर दी गई, परन्तु अकाली इस पर कभी भी कोई दृढ़ स्टैंड नहीं ले सके। अनेक लेखक सभाएं एवं पंजाबी बुद्धिजीवी अवश्य इसके विरुद्ध आवाज़ उठाते रहे, परन्तु अकाली-भाजपा नेता इस पर खामोश ही रहे। पहाड़ी प्रांतों को दी गई विशेष सुविधाओं के कारण पंजाब के उजड़ रहे उद्योगों को बचाने के लिए अकालियों एवं भाजपा वालों ने दिल्ली जा कर कितने मोर्चे लगाये, इसका सभी को पता है। उनके शासन काल में सिवाय केन्द्र को कुछ पत्र लिखे जाने के अतिरिक्त इस मामले पर तिनका भी नहीं तोड़ा गया। राजस्थान को जाने वाले पानी को रोकने के लिए अकालियों एवं भाजपा ने किस सीमा तक क्रियात्मक पग उठाये, इस संबंध में भी किसी को कुछ पता नहीं। यदि अब सब कुछ खो कर अकाली नेता होश में आये भी हैं तो संसद में मात्र भाषण करके वे पंजाब को किस प्रकार पुन: अपने पांव पर खड़ा कर सकेंगे, इसकी समझ कम से कम इस समय पंजाब-वासियों को नहीं आ रही। इसीलिए आज बड़ी संख्या में पंजाबी इस पीड़ा को भोग रहे हैं। इसीलिए पंजाब आज आर्थिक मंदी में से गुज़रते हुए दिशाहीनता की स्थिति में भटकते हुए दिखाई दे रहा है। 

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द