प्रसिद्ध सूर्य मंदिर कोणार्क

कोणार्क का सूर्य मंदिर भारत के उड़ीसा राज्य के पुरी ज़िला के पुरी नामक शहर में स्थित है। इसे लाल बलुआ पत्थर एवं काले ग्रेनाट पत्थर से 1236-1265 पू. में गंग वंश के राजा नृसिंहदेव द्वारा बनवाया गया है। यह मंदिर, भारत के सबसे प्रसिद्ध स्थलों में से एक है। इसे युनेस्को द्वारा सन 1984 में विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया। कलिंग शैली में निर्मित यह मंदिर सूर्य देव (अर्क) के रथ के रूप में निर्मित है। इस को पत्थरों पर उत्कृष्ट नक्काशी करके बहुत ही सुंदर बनाया गया है। संपूर्ण मंदिर स्थल को एक बारह जोड़ी चक्रों वाले, सात घोड़ों से खींचे जाते सूर्य देव के रथ के रूप में बनाया गया है। मंदिर अपनी कामुक मुद्राओं वाली शिल्पाकृतियों के लिए भी प्रसिद्ध है। आज इसका काफी भाग ध्वस्त हो चुका है। इसका कारण वास्तु दोष एवं मुस्लिम आक्रमण रहे हैं। यहां सूर्य को बिरंचि-नारायण कहते थे।
सूर्य मंदिर का स्थापत्य
मंदिर की संरचना, जो सूर्य के सात घोड़ों द्वारा दिव्य रथ को खींचने पर आधारित है, परिलक्षित होती है। अब इनमें से एक ही घोड़ा बचा है। इस रथ के पहिए, जो कोणार्क की पहचान बन गए हैं, बहुत से चित्रों में दिखाई देते हैं। मंदिर के आधार को सुंदरता प्रदान करते ये बारह चक्र साल के बारह महीनों को प्रतिबिम्बित करते हैं जबकि प्रत्येक चक्र आठ अक्षरों से मिल कर बना है जोकि दिन के आठ पहरों को दर्शाते हैं।
मुख्य मंदिर तीन मंडपों में बना है। इनमें से दो मण्डप ढह चुके हैं। तीसरे मंडप में जहां मूर्ति थी, अंग्रेज़ों ने भारतीय स्वतंत्रता से पूर्व ही रेत व पत्थर भरवा कर सभी द्वारों को स्थायी रूप से बंद करवा दिया था, ताकि मंदिर और क्षतिग्रस्त न होने पाए। इस मंदिर में सूर्य भगवान की तीन प्रतिमाएं हैं। इसके प्रवेश पर दो सिंह हाथियों पर आक्रामक होते हुए रक्षा में तत्पर दिखाये गए हैं। यह सम्भवत: तत्कालीन ब्राह्मण रूपी सिंहों का बौद्ध रूपी हाथियों पर वर्चस्व का प्रतीक है। दोनों हाथी, एक-एक मानव के ऊपर स्थापित हैं। ये प्रतिमाएं एक ही पत्थर की बनीं हैं। ये 28 टन की 8.4 फीट लम्बी  8.9 फुट चौड़ी तथा 9.2 फुट ऊंची हैं। मंदिर के दक्षिणी भाग में दो सुसज्जित घोड़े बने हैं, जिन्हें उड़ीसा सरकार ने अपने राजचिन्ह के रूप में अंगीकार कर लिया है। मंदिर सूर्य देव की भव्य यात्रा को दिखाता है। इसके प्रवेश द्वार पर ही नट मंदिर है। यह वह स्थान है, जहां मंदिर की नर्तकियां, सूर्यदेव को जल अर्पण करने के लिए नृत्य किया करती थीं। पूरे मंदिर में जहां तहां फूल-बेल और ज्यामितीय नमूनों की नक्काशी की गई है। इनके साथ ही मानव, देव, गंधर्व, किन्नर आदि की आकृतियां भी ऐन्द्रिक मुद्राओं में दर्शित हैं। मंदिर अब आंशिक रूप से खंडहर में परिवर्तित हो चुका है। यहां की शिल्प कलाकृतियों का एक संग्रह, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के सूर्य मंदिर संग्रहालय में सुरक्षित है। महान कवि श्री रवीन्द्र नाथ टैगोर इस मंदिर के बारे में लिखते हैं: कोणार्क जहां पत्थरों की भाषा मनुष्य की भाषा से श्रेष्ठतर है। यह मंदिर भारत के उत्कृष्ट स्मारक स्थलों में से एक है। यहां की स्थापत्यकला वैभव एवं मानवीय निष्ठा का सौहार्दपूर्ण संगम है। मंदिर का प्रत्येक इंच, अद्वितीय सुंदरता और शोभा की शिल्पाकृतियों से परिपूर्ण है। उड़िया शिल्प कला की हीरे जैसी उत्कृष्ट गुणवत्ता पूरे परिसर में अलग दिखाई देती है। 
पौराणिक महत्व
यह मंदिर सूर्यदेव (अर्क) को समर्पित था, जिसे स्थानीय लोग बिरंचि-नारायण कहते थे। यह जिस क्षेत्र में स्थित था, उसे अर्क-क्षेत्र या पद्म-क्षेत्र कहा जाता था। पुराणानुसार, श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब को उनको मिले श्राप से कोढ़ रोग हो गया था। साम्ब ने मित्रवन में चंद्रभागा नदी के सागर संगम पर कोणार्क में , बारह वर्ष तपस्या की, और सूर्य देव को प्रसन्न किया। सूर्यदेव, जो सभी रोगों के नाशक थे, ने उसके रोग का भी अंत किया था। सो, सूर्य के सम्मान में, साम्ब ने एक मंदिर के निर्माण का निश्चय किया। अपने रोग-नाश के उपरांत, चंद्रभागा नदी में स्नान करते हुए, उसे सूर्यदेव की एक मूर्ति मिली। यह मूर्ति सूर्यदेव के शरीर के ही भाग से, देवशिल्पी श्री विश्वकर्मा ने बनायी थी। साम्ब ने अपने बनवाये मित्रवन के एक मंदिर में इस मूर्ति की स्थापना की। तब से यह स्थान पवित्र माना जाने लगा।