जितना बड़ा जूता, उतनी लगेगी पॉलिश

आजकल विद्वान लोग पढ़ने-लिखने को निरर्थक मानने लगे हैं, और नेतागिरी करने वाले जनसेवा को। राजनीति का अर्थ हो गया कि अपने और अपने बन्धुबा-धवों के लिए आप कितना ऊंचा चिल्ला सकते हैं। कितने गलत काम सही करवा सकते हैं। कितने तबादले रुकवा सकते हैं। विद्वानों की बात करें या कला जगत के मसीहाओं की। ये लोग धड़ल्ले के साथ भाषा के ज्ञान को, कला की बारीकियों को, वचनालयों की पुस्तकें चाट जाने की आदत को नकारते हैं। इनका कहना है कि दूसरों का लिखा-पढ़ने से अपनी मौलिकता पर आघात होता है। भाषा की बारीकियां और अपना शब्द ज्ञान बढ़ाने से मुखर अभिव्यक्ति अपंग होती है। इसे आज के सांस्कृतिक मूल्यों का ऋण भी मान लेते हैं वे।
कैसा है यह युग? हथेली पर सरसों जमाने का युग। हवाई मीनारों की चोट तक पहंचने के लिए चोर गालियां तलाश करने का युग। इसे शार्ट कट संस्कृति का नाम दिया जाता है। वैसे तो युग चेतना, सांस्कृतिक रुपान्तरण और नये समाज के निर्माण के लिए या फरहाद की तरह पहाड़ तोड़ कर दूध की नहर निकाल लाने में इनका विश्वास कभी नहीं रहा। ऐसे लोग अपना लाहौर पाने के लिए लम्बी सड़क पर चलते रहते हैं, और कहीं राह में ही गर्क हो जाते हैं। इन्हें लोग मूर्खोधिराज की उपाधि से आभूषित करना चाहते हैं। उनका कहना है कि जब आप हर कदम पर अपना एक लाहौर, अपना एक कुतुबमीनार निर्माण कर सकते हैं, तो भला कुतुबमीनार तक पहुंचने का असली रास्ता पूछने का तुक क्या है। क्यों न गुरुत्वाकर्षण के नियम को न्यून का नहीं आइन्स्टीन का बताइए और इसे अपनी खोज बता दीजिए। ऐसे लोग आपको कहीं भी सुशोभित दिखायी दे जायेंगे। ये लोग टॉलस्टाय के ‘वार एण्ड पीस’ जैसे जगत प्रसिद्ध उपन्यास को आतंकवादी साहित्य बता आपकी सफाई चाहेंगे। पकड़ में आ जाने पर कह देंगे, हम तो जंगलों में होते युद्ध और शांति की बात कह रहे थे। उसके लेखक का नया नाम भी बता देंगे। आप उसके बारे में अधिक ज्ञान चाहेंगे, तो कह देंगे, ‘तभी तो कहता हूं अधिक न पढ़ो। अधिक पढ़ना भटका देता है।’ छोड़िये, ऐसा मौलिक होना बहुत सहज है। अब बाज़ार के बारे में लिखना है तो बाज़ारू हो जाइए।  लोकप्रिय साहित्य लिखना है तो लुगदी साहित्य के लिए सर्वाधिक बिक्री प्रतियोगिता करवाइए। सीख लीजिये जमुना गये तो जमुनादास और मथुरा गये तो मथुरा दास। भला इसमें पढ़ना-पढ़ाना कहां से आ टपका?
कामयाबी के नये मन्त्र बाज़ार में गये हैं। फिल्म अनाड़ी का वह संवाद इन्हें अच्छा नहीं लगता जब मोती लाल का सड़क पर गिरा पर्स लौटाने राजकपूर उसके पास जाता है और मोती लाल कहता है, बरखुरदार, कामयाब वह होता है, जिसे सड़कों पर गिरे पर्स मिले और वह उन्हें लौटाये नहीं। जो दूसरों का पर्स लौटाने चला आया, ऐसा गावदी कभी बड़ा आदमी नहीं बन सकता। जिन लोगों ने पर्स लौटाने की ज़हमत नहीं उठायी, वही दुनिया की बड़ी-बड़ी समस्यां का समाधान करने में सफल हो रहे हैं। अनाज महंगा हो जाये, भूख से आंतें कराहने लगे, तो निरीह प्राणी को उपवास का अर्थ समझाओ, समस्या हल हो जायेगी। आटो उद्योग का भट्ठा बैठने लगे, चार-पहिया, दोपहिया वाहन बनाने वाले छंटनी में आ बेकारों की कतारों में बैठने लगे, तो कह दो सब टैक्सी उद्योग की सफलता का कसूर है। अब देखो न ओला और उबर ने वाहन उद्योग की कमर तोड़ दी। एक फोन करो, टैक्सी हाज़िर, अब भला करोड़ों रुपया वाहन उद्योगों के विकास में कौन फंसाये? बिल्कुल उसी तरह जैसे आप कहने लगें कि हमारी मायें और बहिनें घर में अच्छा खाना बना लेती हैं, सस्ता भी पड़ता है, इसलिए होटल उद्योग का भट्ठा बैठ जायेगा। वहां कौन खायेगा? अर्थशास्त्र कठिन ज्ञान है भई। इसे पढ़ने और समझने की ज़हमत कौन उठाये? इसीलिए तो समझ नहीं आता कि जब पेट्रोल महंगा हो जाता है, तो मकानों के किरायों से लेकर चाय का कप तक महंगा क्यों हो जाता है? सरलीकरण के इस ज़माने में कठिन सवालों के हल कौन तलाश करता है? इसीलिए तो देश के मसीहाओं को समझ नहीं आती कि हमने सड़कों पर दुर्घटनाओं से मरने वालों की संख्या कम करने के लिए यातायात के नियम सख्त किये थे, जुर्माने दस गुणा बढ़ाये थे, मौतें तो घटी नहीं, चालान की कुल राशि बड़ी नहीं, लेकिन यह चालान उगाहने वाली खाकी वर्दी के नीचे मोटरसाइकिल की जगह बड़ी कार कैसे आ गई? अब इन लोगों ने सिफारिश मानने के भी रेट बढ़ा लिये। बड़ी सिफारिश तो जेब की गर्मी कम, टटपूंजिया सिफारिश तो टेंट की पौ-बारह, साथ ही जड़ दो, ‘भाई-जान आपके कहने पर छोड़ रहा हूं, नहीं तो आप जानते हैं कानून आजकल कितना सख्त हो गया है।
साहब, पुरानी कहावत है, जितना बड़ा जूता होता है, पॉलिश भी उतनी ही ज्यादा लगती है। लगभग तीन वर्ष हुए एक झटके से सब बड़े नोट बंद कर दिये थे। रातों-रात सफेद धन काला हो गया। गरीब गुरबा लोग बैंकों के बाहर कतार लगाये खड़े थे, परेशानी से हृदयाघात सह रहे थे कि उनके खाते में बारह लाख रुपए अब आये कि आये। अजी, बारह लाख की क्या पूछते हो, बारह छदाम भी, नहीं आये। रातों के मुंह तो कोई और खुले, धड़ाधड़ सब काले नोट उनमें समा कर सफेद हो गये। जितने नोट बंद किये थे, उससे अधिक बैंक खातों जमा हो गये। बेशक जूता बड़ा था, पॉलिश भी उतनी ही लगी। 
चौबे जी छब्बे जी बनने चले थे, दुबे जी बन कर रह गये। बैंकों ने इतनी तरक्की की, कि अब लड़खड़ाते हुए एक-दूसरे में विलय हो रहे हैं। मंडियों के भाग्य निर्माता विदेश में बैठ कर चैन की बांसुरी बजा रहे हैं। देश डिजीटल हो रहा है। सरकार समझाती है, मृत खातों का अर्थ पैसा मारना नहीं, एक रजिस्टर से दूसरे रजिस्टर में जाना होता है। बात समझ नहीं आयी। आयेगी भी नहीं। भला आजकल पढ़ने लिखने का क्या लाभ?