समाज को खोखला कर रहा है भ्रष्टाचार का दीमक

भ्रष्टाचार का मूल अर्थ है भ्रष्ट आचरण अर्थात् जब व्यक्ति कार्य करने की सीमा अर्थात् मर्यादा से अपने स्वार्थ से प्रेरित होकर कार्य करता है तो वह कार्य- कलाप भ्रष्ट कहलाता है। भारतीय संस्कृति में सच्चा जीवन शुद्ध विचार के साथ-साथ आचार-विचार का पुख्तापन पर विशेष ध्यान दिया गया। किसी भी मनुष्य की मनुष्यता उसके आचरण और बर्ताव से पहचानी जाती है। मनुष्य के गुण हर काल में एक से रहे हैं। काम के प्रति लगन और निष्ठा परोपकार, सहिष्णुता, दया, सत्य-निष्ठता, नि:स्वार्थ कर्म करना आदि गुण सदाचार के अभिन्न अंग माने गये। इस प्रकार मर्यादा से हटकर किये गये कार्य को भ्रष्टाचार का नाम दिया गया। स्वामी रामतीर्थ जी ने कहा है जब किसी राष्ट्र की जनसंख्या इतनी बढ़ जाती है कि सभी को अपनी ज़रूरत के मुताबिक वस्तुएं नहीं मिलतीं तो उस राष्ट्र में भ्रष्टाचार का जन्म होता है। स्वामी जी का कथन सटीक लगता है। वजह साफ है यदि हमारी ज़रूरतें कम होंगी तो हम कम आमदनी में भी अपना जीवन आसानी से चला सकते हैं। इसके विपरीत यदि हमारी सामाजिक रचना जटिल होती जायेगी तो देश में भ्रष्टाचार बढ़ता जायेगा। इस सामाजिक बुराई को रोकने का एकमात्र उपाय है बढ़ती जनसंख्या पर रोक लगाना और इसके सामान्तर संसाधनों को बढ़ाना मुश्किल ही नहीं, असम्भव है। विद्वानों ने भ्रष्टाचार की तुलना अर्थात् कल्पना एक ऐसे वृक्ष के रूप में की है जिस की जड़ ऊपर की ओर तथा शाखाएं नीचे की ओर हैं। इसका अभिप्राय यह है कि देश के राजनेता व्यवसायी, धनी, विद्वान तथा अधिकारी वर्ग का चरित्र यदि महान हो, भ्रष्टाचार से रहित हो तो जन साधारण कुछ डर से, कुछ प्यार से, कुछ अनुकरण कर स्वयं ही चरित्रवान हो जाता है। आज दिन-प्रतिदिन महंगाई के कारण घर परिवारों का आर्थिक तंत्र चरमरा गया है। इसी कारण भारतीय सामाजिक व्यवस्था को बड़ा आघात झेलना पड़ रहा है। सदियों से चली संयुक्त परिवार प्रणाली खत्म होती नज़र आ रही है। भ्रष्टाचार का काला धन सबसे बड़ा सहायक है। इस पर काबू पाना सरकार और राजनेताओं के लिए अति आवश्यक है। जैसे कि विनोबा भावे जी ने कहा था और बात सही भी उतरती है कि हमें समस्या और उसके समाधान पर विचार बार-बार करना चाहिए और उसे निष्ठा से अमल में लाना चाहिए। 

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