कब पूरा होगा, काम मांगते हर हाथ को रोज़गार देने का वायदा ?

आज भारतीय अर्थ-व्यवस्था के बारे में कोई एक सबसे ज्वलंत प्रश्न पूछा जाये तो वह यह होगा कि इस देश की युवा पीढ़ी का भविष्य क्या है? भारत को एक युवा देश के रूप में पहचान दी जाती है। इसकी आधी जनता कार्यशील या कार्य योग्य आयु वर्ग में आती है। यह आयु वर्ग 18 से 35 वर्ष का माना जाता है, लेकिन इससे भी सबसे महत्त्वपूर्ण है ‘18 से 25 वर्ष का आयु वर्ग’ जो अपना जीवन शुरू करना चाहता है, और काम के लिए उसकी छटपटाहट देखी नहीं जाती।सरकार समय-समय पर हर हाथ को रोज़गार देने का वायदा करती है। नेहरू से लेकर मोदी तक के हर शासनकाल में भिन्न-भिन्न रोज़गार योजनाओं के द्वारा हर हाथ को काम देने का यह वायदा दोहराया जाता रहा। प्रधानमंत्रियों के नाम पर रोज़गार योजनाओं के नाम बदलते रहे, लेकिन नाम बड़े और दर्शन छोटे की तरह नाम बदले, काम की उपलब्धता नहीं। बेकारों की संख्या ने कम होने का नाम नहीं लिया। अगर आज भी भारत जैसे कृषि प्रधान देश में छिपी हुई बेरोज़गारी के वजूद को स्वीकार कर लिया जाये, तो आज देश की कार्य योग्य युवा पीढ़ी में से दो तिहाई लोग ऐसे हैं जिन्हें आपसी योग्यता और समर्थ्य के मुताबिक काम नहीं मिला।
देश में कुल बेरोज़गारी के आंकड़े चौंका देते हैं। इस समय भारत एक सौ तीस करोड़ जनसंख्या वाला अत्याधिक जनसंख्या वाला देश है। दुनिया में अभी भी सबसे अधिक जनसंख्या  चीन की है। लेकिन यह आंकड़े पुराने हो गये कि दुनिया में हर पांचवां आदमी चीनी है और हर सातवां आदमी, भारतीय है। क्योंकि अनुशासनबद्ध चीन ने ‘हम एक हमारा एक’ के नारे से कुछ इस प्रकार परिवार नियोजन किया, कि वहां चिकित्सा सुविधाएं और औसत उम्र बढ़ जाने के साथ चीन एक ज़रूरत से अधिक बूढ़ों वाला देश हो गया। वहां का शासन चौंका कि कहीं चीन बूढ़ों का देश ही न बन जाये और श्रम शक्ति का हृस न हो जाये, इसलिए अब वहां नारा प्रचलित हुआ है, ‘हम दो हमारे दो’। इस बीच चीन की द्रुत गति से बढ़ती हुई जन्म दर तो कम हो गई। लेकिन इधर भारत में परिवान नियोजन और जनसंख्या नियंत्रण नहीं हो पा रहा, इसलिए वह दिन दूर नहीं जब भारत की जनसंख्या चीन से आगे निकल जाएगी। लेकिन यह भारत की शक्ति और समर्थ्य बढ़ाने नहीं, घटाने वाली बात है। मोदी जी अपनी पहली और दूसरी शासनपारी में जब ‘मेक इन इंडिया’ का नारा देकर विदेशी निवेशकों को भारत आने के लिए प्रलोभित करते थे, तो एक बात बल देकर कहते थे कि भारत में निवेशकों को सस्ते श्रम की प्रचुर उपलब्धता रहेगी।बेशक पिछले 6-7 बरस की मोदी शासन पारियों में विदेशी निवेश भारत आया, परन्तु अपने काम के लिए अनुपयोगी श्रम उन्हें उपलब्ध हुआ। उधर शिक्षा संस्थानों में रोज़गारोन्मुख शिक्षा देने के वायदों के बावजूद नई शिक्षा नीति तो अभी नहीं बन सकी। वहीं दकियानूसी लार्ड मैकाले द्वारा चित्रित शिक्षा पद्धति देश के शिक्षा संस्थानों में चल रही है। इससे निकलते हुए स्नातक ‘सफेद कालर वाले बाबू’ तो बन सकते हैं, लेकिन वह न तो किसी जटिल यान्त्रिक निवेश के लिए उपयोगी हैं, और न ही उनमें अपना स्वरोज़गार या अपने छोटे-बड़े उद्यम शुरू करने का साहस है। देश की बेकारी समस्या हल करने के लिए मोदी सरकार का दो करोड़ रोज़गार प्रति वर्ष या कम से कम चार करोड़ रोज़गार प्रदान कर देने का वायदा था, लेकिन वास्तविकता यह है कि मोदी सरकार की पिछली पारी में पचास लाख से अधिक रोज़गार का सृजन नहीं हो सका। देश में 11 करोड़ बेकारों का एक स्थायी बैकलाग पैदा हो गया है। जनसंख्या की बेरोक-टोक वृद्धि दर ने इसमें प्रति वर्ष से सवा से डेढ़ करोड़ काम मांगते हुए नये जवान और जमा करने शुरू कर दिये।मंदी झेलती, सरकार के पास न तो अपनी नौकरियां देने का कोई पूल था और खाली खज़ाने और घाटे के बजट उसके रास्ते में खड़े थे। सरकार ने देश में और विशेष रूप से पंजाब में रोज़गार मेले लगाने शुरू कर दिये। यहां तकिया निजी क्षेत्र द्वारा प्रेषित हो सकने वाले रोज़गार अवसरों पर रख दिया गया, लेकिन इन रोज़गार मेलों में केवल काम के वायदे थे, और इतने कम वेतन की पेशकश कि नौकरी तलाशता देश का युवा वर्ग इनसे केवल हताश ही हुआ।इधर इस कृषि प्रधान देश में खेतीबाड़ी इतना अनुत्पादक धंधा बन गया है कि गांवों में उभरती इस नई पीढ़ी ने इन पुश्तैनी धंधों को स्वीकार करने से मना कर दिया। नौकरी की तलाश में इनका महाभिनिष्क्रमण शहरों की ओर होने लगा। इस समय स्थिति यह है कि गांवों से आती हुई युवा पीढ़ी शहरों से उभरती हुई युवा पीढ़ी से अधिक रोज़गार मांग रही है। आंकड़े साक्षी हैं कि गांवों में युवा पीढ़ी को सौ दिन, एक वर्ष में रोज़गार देने वाली ‘मनरेगा’ योजना में कृपाकांक्षियों का दबाव बहुत बढ़ गया है, और उसी अनुपात में इसके भाग्य विधाताओं में भ्रष्टाचार का बोलवाला भी बढ़ा है। भला, ऐसी विकट स्थिति में देश की बेकार युवा पीढ़ी अपना भविष्य किस रोज़गार में तलाश करे? हर शासन में घोषित होती रोज़गार योजनाएं तो उसका आज तक पेट नहीं भर सकीं।