विक्रेता संस्कृति की पहचान

बेचने वालों को इंतजार डेंगू का था, इसके बाद चिकनगुनिया के आने की हांक दी जाती थी, यह बीच से कोरोना कहां से आ गया? पहले लगा पहले कभी इससे मिलते-जुलते नाम का एक जूता बिका करता था। कहीं उसकी वापसी तो नहीं हो गई। भाई नया ज़माना है, आजकल हर चीज़ रूप बदल कर प्रकट होती है और अपने बिकने की हांक देने लगती है।बेचने के लिए ग्राहकों को जुटाना एक ऐसी ललित कला से तबदील हो गया है कि आजकल इसके नाम दुनिया की इस छत के नीचे किसी भी चीज को बेच डालते हैं। जी नहीं, मैं संगीत की बात नहीं कर रहा, कि जहां कभी दर्द भरे ऩगमे सोज़ भरी आवाज़ें लोगों का दिल लूट लेती थी। आजकल तो हुड़दंगी आवाज़ें, ऐसा रैप सांग पेश करती हैं जिसके साथ भागते हुए आपको उसकी लय और ताल का पता ही नहीं लगता। लोगों को नाचने के ठुमके लगाने पर विवश कर देता है। अब भरत नाट्यम और कूचीपड़ी पर ताता थैया करने वालों को तो लगता है, कि जैसे वह मोहनजोदड़ो की खुदाई के अवशेष हैं। आजकल तो इनकी प्रशिक्षण दुकानें भी जैसे किसी भूतकाल से तरन्नुम उठाती है, जैसे कहती हों, जो बेचते थे दर्द-ए-दिल, वह दुकां अपनी बढ़ा गये। बस यही बुरी आदत है हमारी कलम को। किस्सा बीमारियों की आमद के धूम धड़ाके का करना था और ज़िक्र करने लगे, डिस्को फीवर का, रैंप सांग की द्रुत लय का। देश में आजकल अतीत की गरिमा के वरदान के साथ भारतीयता जगाने के प्रयास हो रहे हैं, और हम चिल्लाते हुए विकास की द्रुत गति में फंस गये। अब नये-नये चक्रव्चूह रच इन्हें आधुनिक शीर्षक दे दिये जाते हैं। इन्हें न आज का कोई अर्जुन भेद पाता है, और न ही उसका अभिमन्यु। अब तो बन्धु यहां माइकल जैक्सन भी याद नहीं किये जाते। वह भी संगीत की इन नयी सुरों के जंगल में भटके दिवगंत हो गये। अब मज़े से बेसुरे अपने सर्राई आवाज़ से बाज़ार लूट रहे हैं। बिल्कुल ऐसे ही लगता है इन बीमारियां का बाज़ार। कभी सिरदर्द, खांसी-जुकाम और बुखार मौसम के हिसाब से अपने रोगी बटोरते थे। सीधी सादी दो-चार दवाइयां मरीज़ों का दुख हर लेती, लेकिन जल्दी ही बाज़ारों ने करवट बदली। अब ऐसी महामारियों की तलाश होने लगी, कि जिनके नाम भी किसी की समझ में न आयें और इनकी दवाइयां ऐसी फिरंगी हो जाएं कि किसी देसी दुकान में न पायी जाए, और पिछड़ी सदी के इन मरीज़ों को न ठीक कर पाए। वे ठीक हो जाएं तो अपनी कला से, और महाप्रयाण की नौबत आ जाए तो कभी मुड़के न देखें। लेकिन अब फ्लू, डेंगू और चिकनगुनिया को पीछे छोड़ कर यह कोरोना वायरस साब तशरीफ ले आये हैं। पता चला कि भई यह किसी भूत हो गये जूते का नया नाम नहीं, कि जिससे आपकी तापजोशी हो सके। यह वह भर्रा देने वाला गला भी नहीं, और इस पर दीवाने न हो जाने वाले व्यक्ति को किसी गुज़रे ज़माने का गया बीता कह कर नकार सकें।नई सदी है, बन्धु। नई तरह के बाज़ार विकसित होने लगे। यह महामारियों का बाज़ार है। इससे पहले आप संगीत के बाज़ार में भटक गये थे। हां, किताबों का बाज़ार तलाश करने न जाइएगा। यू-टयूब, इंस्टाग्राम और ट्विटर के युग में आजकल पुस्तक बाज़ार कौन तलाश करता है? मोबाइल, वीडियो और लैपटॉप के बाज़ार से फुर्सत मिले, तो पुस्तकों के बाज़ार का रुख करें। यारों ने कैप्सयूल के नाम पर प्राचीन से लेकर अर्वाचीन तक हर तरह का रकबा एक पैनड्राइव में बंद कर दिया। पुस्तक संक्षेप चिरजीवी हो गये, और पुस्तकें मूल्य देख कर नहीं तोल कर बिकने लगीं। इससे भी विदेशी भाषा का वर्चस्व कायम है। अंग्रेज़ी में रचना प्रतिष्ठा सूचक है, इसलिए उनका मोल-भाव नहीं होता। वह महंगे दाम में बिकता है। देसी पुस्तकों को चाहे पुराने युग का खज़ाना कह लो, उन्हें खरीदने वाले नहीं मिलते। समय ने मुखौटा बदला। पुराने बाज़ारों में उल्लू बोलते हैं। विक्रय कला के नये ज्योति स्तम्भ नये बाज़ारों का सृजन कर रहे हैं। पहले विकास बाज़ार बने थे। नारों से बेचने वाले हांक लगाते थे। कहते थे ‘अच्छे दिन आने वाले हैं। हर हाथ को काम मिलेगा। हर दाम पर बढ़िया माल।’ नगरी अंधेरी न हो, और राजा की चौपट नहीं, तो भई टके सेर भाजी और टके सेर खाना मिलेगा। लेकिन अन्धे कुएं में चिल्लाओं तो अपनी आवाज़ ही लौट कर आती है। बहुत दिन तक उसकी प्रतिध्वनि सुन कर चमत्कृत होते रहे लेकिन खाली आवाज़ पेट नहीं भरती, इसलिए इन नारों को स्थगन की राजनीति में डाल दिया गया। अब सजे हैं नये बाज़ार। तनाव और दहशत बेचने के बाज़ार, इस दिलासा के साथ कि देखो हर कठिन समय में हम तुम्हें उभारेंगे। इसलिए आओ और हमारी छतरी के नीचे बैठ जाओ। इस छतरी के पीछे भय का सैलाब है। आंतकियों के पागल प्रवाह का भय है, और राष्ट्रीयता का टकसाली सिक्का है जो इन बाज़ारों का सिपाहसालार है। लेकिन इतने से तो काम नहीं चलता। इसलिए इस दहशत के नेपथ्य में महामारियों का शक और बाज़ार खड़ा होने लगा। कोरोना वायरस की कहानी इसमें फिट बैठती है। शत्रु इसके बम बना रहा था, वायरस उसकी पकड़ से निकल भागे। अब 72 देशों के पर्यटन के बाद आपके देश में झांक रहे हैं। बन्धुओं बीमारी से सावधानी भली। अब हाथ नहीं मिलना नमस्ते युग को वापस लाना है। देखो हमारे चेलों और बाज़ारों ने तो अपना काम शुरू भी कर दिया। अभी कुछ रोज़ पहले मास्क और सैनिटाइज़रों  से बाज़ार भरे थे, अब दस मांगों तो एक मिलता है। वह बैठे बिठाये दुर्लभ हो गया। छपी कीमत से पांच गुणा दाम पर भी मिल जाए तो समझो गनीमत। जी हां, गनीमत मामले में ही शांति है। विकास है, बदलते युग की पहचान है। आइए, इस पहचान का सजदा करें। आमीन।