जीवन भर लड़ना पड़ेगा एक और कोरोना युद्ध

कोरोना के ज़हरीले विषाणु अपने अदृश्य कदमों से विश्व को अपनी गिरफ्त में लेकर भारत की एक सौ तीस करोड़ आबादी को घरों में कैद कर गये। कर्फ्यू तो बहुत से झेले लेकिन ऐसा डरा देने वाला कर्फ्यू पहली बार देखा कि जिसमें कश्मीर से लेकर मुम्बई और अहमदाबाद तक से सड़कों पर कामगार पैदल चल रहे हैं, अपने परिवार का बाजू पकड़, बच्चों को कन्धे पर लाद उस घर की, उस आश्रय की तलाश में जो उन्हें उम्र भर नहीं मिला। उन्हें जीने के लिए रोटी की तलाश थी।
गरीबी, भुखमरी और अंधेरे भविष्य के रूप में यह कोरोना तो उम्र भर उनका पीछा करता रहा। कभी जीका, कभी इबोला, कभी बच्चों के दिमागी बुखार, उससे पहले डेंगू, चिकननैक और बहुत पहले तपेदिक और प्लेग के रूप में। आप कहते हैं, इस बार यह कोरोना अदृश्य होकर सामने आया है। प्रतिरोध के लिए दवा-दारू, टीके ढूंढ रहे हैं, तलाश नहीं कर पाये। चिकित्सा वैज्ञानिकों ने अभी हाथ खड़े कर दिये। अब नीम हकीम जड़ी बूटियों से लेकर गोमूत्र के ताबीज़ बांट रहे हैं। प्राकृतिक बचाव वाले हाथ धोने से लेकर गरारे करने की सलाह दे रहे हैं।
युवक विदेश गये थे, चार पैसे कमा अपनों को बेहतर ज़िन्दगी देने के लिए। गांव की मिट्टी छोड़ बड़े अजनबी शहरों में पेट की भूख से मन की इच्छाओं को शांत करने के लिए। न विदेश अपने हुए, न शहरों ने उन्हें अपनाया। देखते ही देखते इन विषाणुओं ने संक्रामक होकर इस विकल्प को आदमखोर जंगलों में तबदील कर दिया। अब जिस नई ज़िन्दगी की तलाश में गये थे, वह पुरानी कराहती ज़िन्दगी से भी अधिक उनके लिए चीत्कार कर रही है।
जिन प्रासादों के साये में जीने के सपने देखे थे, उनकी ऊंची चोटियां स्वयं भयग्रस्त हो सिर छिपा रही हैं। मां की सुरक्षित गोद पहले गांव-घरों से छिनी, अब देश-विदेश के महानगरों मेें खांसते-खांसते बेदम हो गई है। कहते हैं इस कोरोना से आदमी छींकता है, जुकामग्रस्त होता है, सांस रुकती है, निमोनिया शरीर का द्वार खटखटाता है। बड़े लोगों ने सुरक्षित घरों के द्वार बन्द कर लिये। एक-दूसरे से कई गज़ की दूरी रख कर ज़हरीले विषाणुओं को मात दे रहे हैं।
यह कोरोना तो खत्म हो ही जाएगा, लेकिन इस कोरोना से कैसे निपटोगे जो इस देश ही नहीं, पूरे विश्व की बहुसंख्या का बरसों से पीछा कर रहा है। पिछली पौन सदी से इस देश की पौनी जनता ने पल-पल रूप बदलते इन विषाणुओं से छुटकारा पाने के सपने देखे हैं। ये सपने इन्हें नेताओं के भाषणों से मिलते हैं, उनकी शोभायात्राओं के नारों से मिलते हैं। इन सपनों के पूरा होने की उम्मीद वे अपनी वोटों की मदद से उनकी राजसत्ता की पालकियों के कहार बनते हैं। लेकिन बदले में उनको क्या मिला? कुछ दम तोड़ती पंचवर्षीय योजनाएं, कि जिनकी हर यात्रा का बिगुल बजाने वाला योजना आयोग सफेद हाथी घोषित कर दिया गया। सफेद हाथी जलावतन हो गया। रूप बदला, अब उसका नाम रखा है, नीति आयोग, जिसके पास अभी तक न कोई स्पष्ट नीति है, न उसे लागू करने का मानचित्र पेश करता आयोग। हां इन समस्याओं पर समाधान का चिन्तन अवश्य है।
यह चिन्तन ही इस देश की भीड़ के लिए चिन्ता बन गया। रोज़ी-रोटी की चिन्ता, अपने और परिवार की भूख मिटाने की चिन्ता। इन्हें कौन-सा भविष्य दें? यहां तो रोटी, कपड़े और मकान की चिन्ता ही खता न हो सकी। आप कहते हो, आप कोरोना वायरस का अभी उपचार न तलाश सके हैं, प्रयास लगातार जारी हैं। लेकिन भूख, बेकारी, कालाबाज़ारी, रिश्वतखोरी का इलाज भी आपने नहीं तलाश किया। हां, ईलाज के नाम पर नारों की तश्तरी में परोस कर हमने नेताओं की उज़ारेदारी और वंशवाद का वायरस अवश्य दे दिया। वायरस से डरे हुए लोगों को कहा जाता है घरों में बन्द रहिये। उन गंदी बस्तियों में जहां के घोटुलों में एक की जगह चार लोग एक-दूसरे पर लद कर जी रहे हैं। वायरस से भयावह हैं पेट न भर पाने का आतंक, भूख से सिसक कर दम तोड़ देने की आशंका।
यह आशंका ज़हरीले विषाणुओं से अधिक प्रबल हो कर उन्हें डस रही है। जो विषाणु नज़र नहीं आते, उनके संक्रमण की सम्भावना से अधिक साफ नज़र आती है, आंतड़ियों को ऐंठती हुई भूख, बेकार हाथों की वजह से साक्षात नाचती मौत की आमद। फिर किसी सुरक्षित गोद की तलाश में लोग अपनी पुश्तैनी मिट्टी और धरती की गोद की ओर लौट रहे हैं। स्पूतनिक और बुलेट ट्रेनों की इस तेजी के युग में पैदल चलते अपने पांवों के छाले और तन-मन में फटी बिवाइयों का त्रास लेकर। इन्हें लंगरों की मुफ्त खिचड़ी के लिए गिड़गिड़ाने का भविष्य नहीं चाहिये। इनके निकम्मे हो गये हाथों में काम करने का अपार बल है। यह कोरोना वायरस विदा हो जाएगा कि जैसे इसके पूर्वज विदा हुए थे इससे पहले।
लेकिन इन वंचितों की भूख, बेकारी को बढ़ाते, इनके जीवन को अभिशाप बनाते, चोरबाज़ारियों, महंगाई के ठेकेदारों, निर्माण अनुदानों के दलालों को विदा करना है। एक वायरस के विदा होने पर दूसरा वायरस बनने के प्रयास में लगे समाज और देश के इन छदम सिपहसलारों के मुखौटे नोचने पड़ेंगे। अगला वक्त मास्क पहनने नहीं, इन्हें उतार कर धरती की मिट्टी से मिट्टी को गांव-घरों के आंचल से एक घरेलू और कुटीर उत्पाद व्यवस्था को जन्म देने का होगा। इस दानवकाय यान्त्रिक जीवन से पैदा वायरसों से भी इसी लड़ाई से छुटकारा पाना होगा।