अमरीकी वैज्ञानिकों ने कोरोना के खिलाफ बी.सी.जी. टीकाकरण को बताया उम्मीद की किरण

नई दिल्ली, 1 अप्रैल (एजैंसी): अमरीकी वैज्ञानिकों ने भारतीय बच्चों को जन्म लेने के बाद टी.बी. से बचाने के लिए लगाए जाते बेसलिस कैलमेट गुरीन (बी.सी.जी.) टीकों को उम्मीद की बड़ी किरण (गेम-चेंजर) बताया कहा है कि इससे खतरनाक कोरोना वायरस से लड़ाई में बड़ी मदद मिल सकती है। अमरीका की न्यूयार्क इंस्टीच्यूट ऑफ टैक्नोलॉजी (एन.वाई.आई.टी.) के प्रकाशित होने वाले सर्वे में अमरीका से इटली जैसे देशों का उदाहरण देते कहा गया है कि बचपन से लगाए जाने वाली बी.सी.जी. टीकाकरण को राष्ट्रीय नीति में शामिल किया जा सकता है, जिससे कोरोना की रोकथाम में मदद मिल सकती है। वर्णनीय है कि कोरोना वायरस से बुरी तरह प्रभावित हुए अमरीका, इटली, नीदरलैंड व बैल्जियम जैसे देशों में बी.सी.जी. टीकाकरण की नीति नहीं है, जबकि जहां यह टीके लगाए जाते हैं वहां के लोग कोरोना से कम प्रभावित हुए हैं। तपेदिक (टी.बी.) से बुरी तरह प्रभावित भारत द्वारा 1948 में बी.सी.जी. टीकाकरण की शुरुआत की गई थी। भारतीय विशेषज्ञों ने अमरीकी वैज्ञानिकों  की इस पहल को आशामयी बताया इस संबंधी अभी कुछ कहने से संकोच किया है, परंतु यह सिद्ध हो चुका है कि बी.सी.जी. टीका सारस विषाणु के खिलाफ भी प्रभावशाली सिद्ध हो चुका है। पंजाब स्थित लवली प्रोफैशनल यूनिवर्सिटी (एल.पी.यू.) की अपलाइड मैडीकल साइंसिज़ फैकल्टी की सीनियर डीन मोनिका गुलाटी ने भाषा को बताया कि इसका मतलब यह नहीं कि इससे इलाज हो जाता है परंतु यह बीमारी की तीव्रता को घटाने योग्य है। 
उन्होंने बताया कि सारस विषाणु भी अमल में एक ‘कोरनेटिड वायरस’ है व बी.सी.जी. टीकाकरण के चलते ही भारत में कोरोना वायरस अधिक प्रभावी नहीं हो सका। वर्णनीय है कि दुनिया के 180 देशों में से 157 देशों में इस समय बी.सी.जी. टीकाकरण की मुहिम जारी है चाहे 23 देशों ने टी.बी. के मामले घटने के चलते इसका इस्तेमाल करना बंद कर दिया है।