दिल्ली में कठिन होती जा रही है कोरोना के विरुद्ध लड़ाई

देश की राजधानी दिल्ली में चार तरह का प्रशासन है। दिल्ली सरकार का, केंद्र सरकार का, नगर निगम का और सेना का। इन चारों के अपने-अपने अस्पताल भी हैं। केंद्र सरकार के अस्पतालों में 14 हजार के करीब बेड्स हैं। दिल्ली सरकार के अस्पतालों में 11 हजार बेड्स हैं और नगर निगम के अस्पतालों में करीब तीन हज़ार बेड्स हैं। दिल्ली में चूंकि सेना की छावनी है इसलिए उसकी मैडीकल सुविधा भी बहुत अच्छी है। इसके बावजूद कोरोना के तीन हजार मरीजों के इलाज में नगर निगम से लेकर दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार तक के पसीने छूट रहे हैं। इसे सिस्टम की विफलता नहीं तो और क्या कहेंगे? सारी प्रशासनिक इकाइयां एक दूसरे पर आरोप लगा रही हैं। दिल्ली सरकार का कहना है कि केंद्र ने अपने अस्पतालों के 14 हजार बेड्स में सिर्फ  आठ सौ बेड्स कोरोना मरीजों के लिए दिए हैं। ऐसे ही निगम के अस्पतालों में भी तीन हज़ार बेड्स हैं मगर उनमें से भी बहुत कम बेड्स कोरोना मरीजों को आबंटित हुए हैं। दूसरी ओर भाजपा के नेता दिल्ली सरकार को नाकाम साबित करने में लगे हैं। लेकिन असल में यह सबकी साझा नाकामी है, जो इतनी बड़ी व्यवस्था तीन-चार हज़ार मरीजों का इलाज नहीं कर पा रही है। 
मीडिया के ‘रक्षा विशेषज्ञों’ का अद्भुत ज्ञान
वैसे तो हिंदी मीडिया में कई एंकर, पत्रकार ऐसे हैं, जिन्होंने अपनी मूर्खताओं के झंडे गाड़े हैं, मगर चीन के साथ चल रहे टकराव के बीच एंकरों में जो सामरिक विशेषज्ञता देखने को मिली, वह कमाल की है। अपनी प्रचंड सामरिक विशेषज्ञता के दम पर कई एंकरों ने तो मूर्खता का एवरेस्ट खड़ा कर दिया है। सबसे तेज चैनल की एक चर्चित महिला एंकर ने तो सीमा पर टकराव के लिए सेना को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा है कि अगर चीनी सेना सीमा में घुसी तो यह नहीं कह सकते कि सरकार सोती रही, यह कहिए कि सेना सोती रही, क्योंकि यह सेना की जिम्मेदारी है। विज्ञापन के रूप में रिश्वत मांगने के आरोप में जेल काट आए एक एंकर ने बताया कि अगर चीन से युद्ध हुआ तो चीन के सैनिक लड़ने से मना कर देंगे। उसके मुताबिक चीन ने 1979 से 2015 तक सिंगल चाइल्ड की पॉलिसी अपनाई और इस वजह से ज्यादातर चीनी सैनिक अपने मां-बाप की इकलौती संतान हैं, जिनका लालन-पालन बड़े नाज़ों से हुआ है। इसलिए अगर युद्ध हुआ तो वे लड़ेंगे ही नहीं। इसी तरह देश के सबसे बड़े औद्योगिक घराने के चैनल में हिंदी का अर्णब गोस्वामी बनने का प्रयास करने वाले एक एंकर ने कहा कि 1962 में चीन बौद्ध धर्म को मानता था इसलिए उसके पास एक आध्यात्मिक शक्ति थी, लेकिन अब वह आध्यात्मिक शक्ति खत्म हो गई है, इसलिए वह नहीं जीत सकता है।
बुद्धिजीवियों की अजीब दलीलें!
केंद्र सरकार, भाजपा और उससे जुड़े कथित बुद्धिजीवी चीन के साथ टकराव के मसले पर तरह-तरह की दलीलें गढ़ने में भी जुटे हुए हैं। यह काम चीन के साथ टकराव बढ़ने के साथ ही शुरू हो गया था। इस सिलसिले में भाजपा और संघ जुड़े पुराने लोगों ने सवाल उठाया कि भारत के कम्युनिस्ट कहां हैं? हालांकि यह सवाल बेमतलब है, क्योंकि देश की कम्युनिस्ट पार्टियां अब पूरी तरह से अप्रासंगिक हो गई हैं। इस घटनाक्रम में अन्य विपक्षी दलों पर भी कोई सवाल नहीं बनता है। बहरहाल एक दलील यह भी दी जा रही है कि चीन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बढ़ती ताकत से घबरा गया है, इसलिए वह भारत को परेशान कर रहा है। यह उस प्रोपेगेंडा का हिस्सा है जिसके तहत पिछले कई सालों से कहा जा रहा है कि मोदी के आने के बाद दुनिया में भारत की ताकत बढ़ी है। हालांकि हकीकत बिल्कुल अलग है। ऐसे ही चीन के हमलावर बर्ताव के बारे में यह भी कहा जा रहा है कि भारतीय कम्पनियां चीन से अपना कारोबार समेट कर भारत लौट रही हैं। इसलिए चीन बौखलाया हुआ है और भारत को परेशान कर रहा है। कोरोना वायरस में अपनी जिम्मेदारी से ध्यान भटकाने के प्रयास का नैरेटिव मुख्यधारा के मीडिया में भी आया हुआ है। इन सारी दलीलों की अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में खिल्ली उड़ रही है।
नए संसद भवन का निर्माण कैसे होगा?
कोरोना वायरस के संकट और खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के चलते केंद्र सरकार ने सारी योजनाओं पर रोक लगा दी है। अगले साल 31 मार्च तक सिर्फ  उन्हीं योजनाओं को पैसे आबंटित होंगे, जिनकी घोषणा प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना या आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत हुई है। ऐसे में सवाल है कि नई संसद के निर्माण का क्या होगा? इंडिया गेट से लेकर विजय चौक तक का पूरा लैंडस्केप बदलने के लिए तैयार गई सेंट्रल विस्टा की योजना का क्या होगा? प्रधानमंत्री के नए आवास और नए सचिवालय का क्या होगा? गौरतलब है कि तमाम विपक्षी पार्टियां सरकार से इस योजना को रोकने की मांग कर रही हैं। विपक्ष को यह पैसे की बरबादी लग रही है और नगर योजना से जुड़े आर्किटेक्ट या इतिहास की समझ रखने वाले बुद्धिजीवी भी इतिहास बोध या सौंदर्य बोध की चिंता में इस योजना का विरोध कर रहे हैं। मगर सरकार अड़ी हुई है कि 2022 तक सेंट्रल विस्टा का निर्माण होगा और जिस समय भारत की आज़ादी के 75 साल पूरे होंगे, उस समय संसद का सत्र नए संसद भवन में होगा। यह पूरी परियोजना करीब 20 हज़ार करोड़ रुपए की है। सवाल है कि ऐसे आर्थिक संकट के समय इतनी बड़ी रकम खर्च करने को सरकार कैसे न्यायसंगत ठहराएगी? व्यावहारिक सवाल यह भी है कि अगर 31 मार्च 2021 तक यह योजना भी रुकी रहती है तो उसके बाद डेढ़ साल में कैसे इसका निर्माण पूरा हो जाएगा ताकि 15 अगस्त 2022 तक आज़ादी के 75 साल का जश्न नई संसद में मनाया जा सके।