क्यों दुनिया क्वारंटाइन है ?

रत्नगर्भा धरती हमारी जननी है। वह हमारा भरण पोषण करती है। हमें रहने के लिए आश्रय,खाने के लिए अन्न, कंदमूल,फल तथा पीने के लिए जल, श्वसन के लिए प्राणवायु अर्थात् वो सब कुछ प्रदान करती है,जो हम सब जीवधारियों को जीवित रहने के लिए उपयोगी है। कुदरत प्रदत्त ये तमाम सुविधाएं हमें नि:शुल्क मिलती हैं। भगवान भास्कर सदैव अपने दिव्य प्रकाश से स्नान कराते हैं। उनकी रोशनी अंधेरे को तो हरती ही है, हमारी मांसपेशियों को बलिष्ट भी बनाती है। अगर मैं कहूं कि कुदरत की संपूर्ण शक्तियां हमारी सहायता में सदैव तत्पर रहती हैं, तो अतिश्योक्ति नही होगी। परंतु अफसोस हम कुदरत की अनमोल संपदा का उचित उपयोग नहीं कर पाए। हम धरती मां की आदर्श संतान नहीं बन सके। सच तो यह है कि हम इंसान कुदरत की बिगड़ैल संताने हैं। प्रकृति के साथ छेड़खानी करते रहना हमारा स्वभाव बन चुका है। हम अपनी शक्तियों का प्रदर्शन करते हुए इस अद्भुत अलौकिक सृष्टि को नष्ट करने को उद्धधृत रहते हैं। अहंकार में इतने अंधे हो गए हैं कि कुदरत को लगाम लगाने के लिए एड़ी चोटी का प्रयास करते रहे। हम क्या पाए? कभी महसूस नहीं किया। लेकिन क्या नहीं पाए, उसकी फिक्र में हर लम्हा परेशान होते रहे। अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए रात-दिन एक कर दिए। उपलब्धियों के पीछे दौड़ते रहे। इस भागमभाग में कुदरत प्रदत्त जो भी मुफ्त उपहार पाए, सब दांव पर लगा दिए।...हमने हरे-भरे वनों को काटकर कंक्रीट में बदल दिया। यह जानते हुए कि वृक्ष हमारे परम मित्र हैं। धरती मां के आभूषण हैं। वृक्षो को काटकर हमने मां को श्रृंगार विहीन कर दिया।वनों की कमी के कारण प्रकृति असंतुलित हो गई। हवा प्रदूषित हो गई।वन्य प्राणियों के जीवन खतरे में पड़ गये। पर हमें तनिक भी अफसोस न हुआ। अपने सामर्थ्य पर इठलाते हुए हमने नदियों के मार्ग अवरुद्ध करने का प्रयास किया। पहाड़ों को खोखला कर दिया। वनस्पतियों को नष्ट कर दिया। कल कारखाने के कचरे जल स्रोतो में ज़हर घोलने का काम करने लगे। जीवनदायिनी गंगा मैया का पवित्र जल इतना प्रदूषित हुआ कि वह पीने लायक नहीं रहा। जल अवस्थित जीवों के प्राण संकट में पड़ गए। समुद्र और उसके तटों पर कचरे का अंबार लग गया। पशु पक्षियों के साथ भी हमारा रवैया शत्रुवत ही रहा। विकास की कहानी कहने वाले शहर और गांव टावरों से भर गए। उन टावरों से उत्पन्न रेडिएशन के कारण कई पशु पक्षी जो इंसान के साथ रहते आए थे, संकट में पड़ गये। इंसान स्वयं कई असाध्य रोगों से ग्रस्त हो गया। गौरैया विलुप्त हो गई। कबूतर जहां तहां मर कर गिरने लगे। हम गाय को माता कहने का स्वांग तो रचाते हैं ,पर वही गाय जब वृद्ध हो जाती है, उसे बेसहारा सड़कों पर कूड़ा कचरा खाने के लिए छोड़ देते हैं। इंसानी रिश्ते-नाते को भी हम तिलांजलि दे चुके थे। परिणामस्वरूप इंसान से इंसान के बीच इतनी दूरियां बढ़ गई कि भाई ही भाई के खून का प्यासा हो गया। कई बुजुर्ग मां-बाप निज संतान के प्यार के लिए तरसने लगे तो कई वृद्धाश्रम की शरण में छोड़ दिए गये।गरीब मां-बाप के लिए तो जिन्दगी और दुश्वार हो गयी, क्योंकि वृद्धा आश्रम के दरवाज़े गरीबों के लिए कभी नहीं खुलते।...हमारी हरकतों से अजीज धरती मां सिसकती रही ,कराहती रही। पर किसी ने उसके दर्द को महसूस नहीं किया। धरती मां अपनी संतानों के बुरे बर्ताव का ज़िक्र किससे करती? जुबान की बात अनसुनी करने वाले इंसान बेजुबानों की बात कैसे समझता? कहते हैं न हर बात की एक सीमा होती है। बर्दाश्त की भी एक हद होती है। प्राकृतिक शक्तियां मां की व्यथा से व्यथित होकर इंसान को मूक इशारे करने लगीं। परिणामस्वरूप ग्लेशियर पिघलने लगे,आसमान का रंग बदलने लगा,मौसम मनमौजी हो गया, पर इंसान कुछ नहीं समझा। उद्दंड बालक की तरह अपनी हरकतों मे मशगूल प्रकृति को विध्वंस करता रहा। कुदरती शक्तियां अंतत: मजबूर होकर इंसान को आईना दिखाने लगीं। एक नन्हा सा वायरस इंसान के सामने खम ठोकर खड़ा हो गया। आज अखिल विश्व उसके सामने घुटने टेके हुए हैं। किसी की बुद्धि काम नहीं कर रही। सारे अस्त्र-शस्त्र निष्फल हो चुके है। बचने की कोई युक्ति नजर नहीं आ रही है। लोग अपने घरों में कैद है। सारी दुनिया क्वारंटीन है। मुझे आभास होता है कि कुदरत अपनी बिगड़ी औलादों को कान पकड़कर घरों में कैद करने के लिए मजबूर हो गई है। ताकि इंसान अपने मन पर बैठे स्वार्थ की मोटी परतें साफ कर शांत चित सोच विचार करे। स्वार्थ से संक्रमित मन को स्वस्थ करने का प्रयास करे।  

(सुमन सागर)