किसानों के लिए प्रेरणादायक है गुरिन्द्र पाल सिंह की कृषि

पंजाब के संगरुर जिले के भवानीगढ़ में सफलता से खेती कर रहा 41 वर्षीय पढ़ा-लिखा ग्रेजूएट गुरिन्द्र पाल सिंह शहरों की ओर भाग रहे नौजवान किसानों के लिए प्रेरणादायक है। वह गांवों में रहते हुए अपने जीवन का ढंग, रहन-सहन सही और शुद्ध रख कर अन्य व्यवसाओं से अधिक संतोष से अपना जीवनयापन कर रहा है। गुरिन्द्र पाल सिंह ‘ज़ैलदार गुरिन्द्र’ के नाम से जाना जाता है, क्योंकि उसके दादा-पड़दादा ज़ैलदार थे। एक पटवारी का लड़का आजकल स्वयं नम्बरदार है।
 उसने पारम्परिक धान-गेहूं का फसली चक्कर अपनाया हुआ है। चाहे वह घर में उपयोग होने वाली सभी वस्तुएं फल, सब्ज़ियां और दूध स्वयं ही तैयार करता है, उसे गेहूं की नयी किस्मों की बिजाई करने का बड़ा शौक है।  उसने सबसे अधिक उत्पादकता वाली डीबीडब्ल्यू-303 किस्म भी लगाई हुई है। यह किस्म आईसीएआर-भारयीय गेहूं एवं जौ के अनुसंधान संस्थान (आईआईडब्ल्यूबीआर) करनाल द्वारा विकसित की गई है। वैसे तो संस्थान ने इस किस्म का बीज कम मात्रा में बीज उत्पादकों को दिया है ताकि भविष्य में इस किस्म का प्रसार हो जाए परन्तु कुछ अग्रणी किसानों को भी बीज देने हेतु चुना गया है। गुरिन्द्र पाल सिंह उन भाग्यशाली किसानों में है, जिसे इस किस्म का अढ़ाई किलो बीज आईआईडब्ल्यूबीआर के निदेशक ज्ञान इन्द्र प्रताप सिंह द्वारा प्राप्त हुआ। डा. ज्ञान इन्द्र प्रताप सिंह के अनुसार डीबीडब्ल्यू-303 किस्म की औसत उत्पादकता 78.2 से 82.2 क्विंटल प्रति हैक्टेयर के बीच है। यह किस्म 96 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक उत्पादन की क्षमता रखती है। इस किस्म का बीज खुली मंडी में कहीं भी उपलब्ध नहीं है। कुछ विक्रेता ‘एक्सपर्ट सुपर-303’ किस्म का बीज डीबीडब्ल्यू-303 के तौर पर बेच कर अपने हाथ रंग रहे हैं। गुरिन्द्र पाल ने अढ़ाई किलो बीज एक एकड़ रकबे पर हाथ से डिबलिंग तकनीक से बाटों पर लगाया है जिससे वह 30 से 32 क्विंटल बीज पैदा करने की उम्मीद लगाए बैठा है। इसके अतिरिक्त उसने दूसरी अधिक उत्पादन देने वाली डीबीडब्ल्यू-187 किस्म 24 एकड़ रकबे में लगाई हुई है। इस किस्म का बीज गत वर्ष उसे यंग फार्मर्स एसोसिएशन रखड़ा से प्राप्त हुआ था, जिसके उपरान्त उसने 4 बीघे रकबा लगाया और इससे 23 क्विंटल बीज पैदा किया। इस तरह औसत 28 क्विंटल प्रति एकड़ आई। इसके अतिरिक्त उसने 1.5 एकड़ में प्रयोग के लिए ‘सुनहरी’ किस्म लगाई हुई है, जिसे 766 दानामवी दिया जा रहा है। वह गेहूं में तीन थैले यूरिया के और एक थैला डी.ए.पी. का डालता है। अब वह गुल्ली डंडे की दवाई स्प्रे करने की तैयारी में है। वह वैज्ञानिकों से पूछ रहा है कि ज़िद्दी गुल्ली डंडे को नष्ट करने वाली शगुन दवाई का क्या इन किस्मों पर छिड़काव हो सकता है। इसके अतिरिक्त वह ‘लिहोसीन’ का फोलीकोर के साथ मिला कर स्प्रे करेगा ताकि उसकी फसल का उचित विकास हो। 
खरीफ में उसकी मुख्य फसल धान है। उसने कृषि सन् 2012 से शुरू की और तभी से भी वह पूसा-44 किस्म लगाता आ रहा है। इस किस्म ने उसे 35 क्ंिवटल प्रति एकड़ का औसतन उत्पादन दिया है। यह दूसरी किस्मों से सिर्फ 5 से 7 दिन ही अधिक पकने को लेती है। इस किस्म को कोई बीमारी भी नहीं आई। हालांकि कुछ वैज्ञानिक कहते हैं कि इसे बीमारी अधिक लगती है। गुरिन्द्र पाल कहता है कि यदि शुद्ध बीज हो तो इस किस्म की फसल को बीमारी आती ही नहीं। गुरिन्द्र ने कभी धान के अवशेष या पराली को आग नहीं लगाई, तो भी वह पूसा-44 की बिजाई कर गेहूं को समय पर 15 नवम्बर से पहले लगा लेता है। सिर्फ किस्मों का चयन वह पूरी सूझबूझ से करता है और उसमें कोई बचत नहीं करता। 
गत खरीफ के सीज़न में भी उसने पराली की गांठें बंधवा कर एक प्लांट को देकर खेल खाली कर लिए और उन खेतों में रोटावेटर और ड्रिल से गेहूं की बिजाई की। चाहे प्लांट वालों ने उससे गांठें बांधने और उठाने के 1500 रुपये प्रति एकड़ चार्ज किए। वह हैरान है कि पंजाब सरकार ने पंजाब राज्य बीज प्रमाणन अथारिटी को पूसा-44 किस्म के बीज को प्रमाणित न करने के निर्देश भेजे हैं। वह कहता है कि वह उसके साथियों के साथ आगामी खरीफ के सीज़न में भी यही किस्म लगाएगा क्योंकि इस किस्म से कोई और किस्म अधिक लाभ नहीं देती।
इसके अतिरिक्त गुरिन्द्र पाल ने 2 बीघे में बाग लगाया हुआ है जिसमें आंवला, आम, अमरूजद, जामुन, फालसा और किन्नू के पौधे लगाये हुए हैं। वह बाग से उपलब्ध फल अपने घर में इस्तेमाल करता है या रिश्तेदारों एवं दोस्तों में बांट देता है। उसने कभी फल बेचे नहीं।