टूटा हुआ चश्मा

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
चाय वाला चाय रख गया था। दोनों ने अपना-अपना कप उठा लिया और चाय पीने लगे। चाय पीते- पीते अचानक रमन को कुछ याद आया
‘शेखर मेरे अंकल का हास्पीटल बन रहा है- जल्दी ही शुरू होने वाला है-अगर तू कहे तो मैं उन से बात करता हूं- उन के अस्पताल मेें तेरी लैब हो जाएगी
शेखर का चेहरा खुशी से चमक उठा।
‘कर यार ................ प्लीज़’
‘ठीक है, मै बात करता हू’ रमन बोला।
दोनो दोस्तों ने चाय खत्म की।
‘अच्छा शेखर मैं चलता हूं।
‘ठीक है दोस्त- मेरे काम का ध्यान रखना’
‘ओ.के.’
चार दिन के बाद शेखर ने रमन को फोन किया
‘अभी पूछ कर बताता हू’ रमन ने कहा
थोड़ी देर बाद रमन का फोन आया-’हां भई शेखर क्या हाल चाल है’
‘ठीक है भाई - वो बात हुई क्या’
‘हां हो गई है- अंकल कह रहे थे कि अस्पताल में तेरी लैब सैट करवा देंगे - पर हर टैस्ट में 50 प्रतिशत कमीशन रहेगा’
सुनकर शेखर सोच में पड़़ गया। कुछ क्षणों तक चुप्पी छाई रही।
‘क्या बात भाई - तुम चुप क्यो हो गए’
’भाई 50 प्रतिशत कमीशन दे कर मुझे क्या बचेगा’
‘अंकल कह रहे थे कि उस की चिन्ता मत करो, मैं अपने आप
कवर करवा दूगां’ शेखर ने भारी मन से हामी भर दी।
‘आशा किरण’ नाम से अस्पताल खुल गया था। डॉ. अग्रवाल इस के संचालक थे। विदेश से डाक्टरी की डिग्री लेकर आए थे। रमन ने डाक्टर साहब से शेखर का परिचय करवा दिया था। हस्पताल में शेखर की लैब स्थापित हो गई थी। दो-तीन महीने में अस्पताल का कार्य कूब चल गया। सारा दिन मरीजों की भीड़ लगी रहती। डाक्टर साहब मरीज के हाथ में टैस्ट करवाने के लिए पर्ची थमा देते थे। शेखर के पास पर्ची पहुँच जाती जिस पर ऊपर कोने मे गोल दायरे में टैस्ट की कीमत डाक्टर साहब द्वारा अंकित होती थी। यह कीमत सामान्य से पाँच से आठ गुणा तक अधिक होती थी। शुरू-शुरू में तो शेखर को कुछ अजीब सा लगा किन्तु मोटी कमाई के लालच में वह अन्दर ही अन्दर उत्साहित हो गया और कुछ नहीं बोला।
हस्पताल में देर रात तक ड्यूटी करनी पड़ती थी अत: कुछ दिनों के बाद शेखर शहर में ही एक अच्छे मकान में पेइंग गैस्ट हो गया। रहने के लिए बढ़िया सुसज्जित कमरा था जिसमें दरवाजों, खिड़कियो पर सुन्दर पर्दे, सोफा सैट, बालकनी में फूलदार पौधों के गमले.... घर की शोभा देखते ही बनती थी। गांव से  रिश्ता टूटता जा रहा था। थोड़े ही दिनों में डी.वी.डी. भी आ गई।
एक दिन दीनू काका और लक्ष्मी बेटे शेखर के पास आए। शेखर का जीवन-स्तर का बदलाव देखकर मां बहुत प्रसन्त हुई। मन ही मन ईश्वर का धन्यवाद किया। परन्तु दीनू काका को इतने कम समय में इतनी तरक्की हज़्म नहीं हुई।
उन्होंने शेखर से पूछा- ‘बेटे कितने कमा लेते हो
‘ पिता जी- हस्पताल का काम बहुत है- डाक्टर साहब विदेश से डिग्री करके आए है।
‘फिर भी एक दिन में कितने टैस्ट आ जाते है।
‘कभी गिने नहीं.... परन्तु डाक्टर साहब का रेट बाजार से चार पाँच गुणा है।
‘तुम्हें कितने मिलते है’ दीनू काका ने पूछा
‘ मुझे हर टैस्ट में आधे पैसे मिलते है।
यह सुनकर दीनू काका कुछ उदास हो गये। उन्होने सारी उम्र मेहनत की कमाई पर निर्वाह किया था।
कुछ देर बाद बोले- ’बेटे मुझे यह हेरा-फेरी वाला काम जचा नहीं’
‘आप को तो बस साईकिल मरम्मत का काम ही जचा है’ शेखर मुहँ बनाकर गुस्से से बोला- ’ जिसमे ढंग से रोटी भी नहीं बनती’ लक्ष्मी पास बैठी सुन रही थी। उस ने इशारे से पति को चुप रहने को कहा। दीनू काका भाँप गए कि बेटे को पैसों का घमंड हो चला है। वह खामोश हो गए। दो दिन बेटे के पास रहकर दोनों ने वहांसे विदा ली।
हस्पताल में काम करने वाली नर्स रेखा कभी-कभी मरीज के साथ चल कर टैस्ट की पर्ची देने आती थी। गोरा रंग, मोटी-मोटी आँखे सुती हुई लम्बी चोटी...... शेखर उस को मन ही मन चाहने लगा था। रेखा इसी शहर की थी। शेखर उस से बातचीत करना चाहता था परन्तु हिम्मत नहीं हो पा रही थी। एक दिन जैसे तैसे कर के शेखर ने रेखा से बातचीत करने का मन बनाया। वह किसी मरीज के साथ आई थी।
(क्रमश:)