टूटा हुआ चश्मा

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
रेखा का प्रसव का समय नजदीक आ गया था। लक्ष्मी कुछ रोज़ पहले ही बहू की सेवा सुरक्षा करने बेटे के घर आ गई। निश्चित समय पर शेखर और रेखा के घर लड़के का जन्म हुआ। लक्ष्मी फूली नहीं समा रही थी। आस-पड़ोस बधाइयां देने आ रहे थे। दीनू काका को भी फोन पर बता दिया था। वह भी आ चुके थे। घर में चहल-पहल हो गई थी।
जन्म के छठे दिन बच्चे का नामकरण करने के लिए घर में समारोह रखा गया। सभी रिश्तेदार और जान-पहचान वाले आमंत्रित थे। हस्पताल का स्टाफ भी आया हुआ था। मन्त्रोच्चारण के साथ पंडित जी ने बच्चे का नामकरण किया। वैभव नाम रखा गया। रात के 11 बजे तक खान-पान व नाच गाना चलता रहा। उसके पश्चात् सभी मेहमान विदा हो गए। अब केवल शेखर के माता-पिता और रेखा के परिवार के सदस्य रह गए थे। सभी इकट्ठे बैठे हुए थे।
अचानक शेखर दीनू काका की ओर मुखातिब हुआ और गुस्से से बोला ’ ये क्या है पिता जी....... कम से कम आज आप ढंग के कपड़े नहीं पहन सकते थे...... और यह चश्मा..... एक नया चश्मा नहीं खरीदा गया आप से...... सब के अन्दर मेरी किरकिरी करवा दी आप ने’
दीनू काका को काटो तो खून नहीं। लक्ष्मी के चेहरे पर एक रंग आ रहा था, एक जा रहा था। दोनो उठ कर दूसरे कमरे में चले गए। देर रात तक दोनों को शेखर और उस के ससुराल वालों के हँसी ठहाके सुनाई देते रहे। लगभग सारी रात दोनो ने जाग कर बिताई।
अगली सुबह बड़ी मुश्किल से दीनू काका और लक्ष्मी ने चाय का कप गले से नीचे उतारा और उदास मन से बहू-बेटे पौत्र को आशीर्वाद देकर घर की राह पकड़ी।
घर आ कर लक्ष्मी ने चारपाई पकड़ ली। दीनू काका भी दो तीन बुखार से तपते रहे। बीच -बीच में सुनयना उन की सुध ले जाती थी। समय चक्र अभी थोड़े ही दिन चला था कि लक्ष्मी ने दुनिया को अलविदा कह दिया। दीनू काका का विलाप करते-करते बुरा हाल था। बहू-बेटा गाँव आ गए थे। शाम को अन्तिम सस्कार कर दिया गया। दीनू काका अब बिल्कुल अकेले रह गए थे। सारा दिन खामोश पड़े रहते। कोई अफसोस प्रकट करने आता तो केवल हाथ जोड़ देते थे।
तेरहवें दिन लक्ष्मी की रस्म क्रिया का कार्यक्रम था। सभी रिश्तेदार गांव वाले शरीक हुए। सब ने दीनू काका को सांत्वना दी। अगली सुबह बहू-बेटा शहर लौट गए।
अब कभी-कभार दीनू काका के पास बेटे का फोन आ जाता था। औपचारिकता भर बातचीत होती थी।
एक दिन शेखर का फोन आया। कुशल क्षेम पूछने के बाद शेखर बोला-
‘पिता जी अब गाँव वाला मकान बेचना पड़ेगा।’
‘क्यो- क्यो हुआ दीनू काका ने विस्मय से पूछा।
’आप को तो पता है शहर में किराए पर रहना कितना मुश्किल काम है- मिनटों में महीना खत्म हो जाता है- अब खर्चे वैसे भी बढ़ चुके है- मै शहर में अपना मकान बनाना चाहता हूं- उस के लिए पैसों की ज़रूरत है।
‘यही गांव में अपना पुराना मकान गिरा कर दोबारा अच्छा बना लो- कम से कम जगह के पैसे तो बच जाएंगे’ दीनू काका ने समझाया।
‘नहीं पिता जी- अब मै गाँव मे नहीं रह सकता- मै आप को जैसा कह रहा हू वैसा करिए’ रूखा स्वर था शेखर का।
‘अच्छा बेटा- जैसी तुम्हारी मर्जी’ दीनू काका ने भारी मन से कहा और शून्य में ताकने लगे जैसे मन ही मन कह रहे हों-
‘बेटा मैंने अपने टूटे हुए चश्मे में से अपना भविष्य पहले ही देख लिया था। (समाप्त)