मोदी के इर्द-गिर्द समाप्त होता तिलिस्म

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दिल्ली आए। केन्द्रीय नेताओं से मिले। फिर लखनऊ वापस चले गए। इसके साथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से उनके हटाए जाने की अफवाहों पर विराम लग गया। योगी की दिल्ली यात्रा उनकी विजय यात्रा रही। पहली बार मोदी-शाह की जोड़ी को यह अहसास हुआ कि अपनी इच्छा के अनुसार वे पार्टी में सब कुछ नहीं कर सकते। योगी उन दोनों पर भारी पड़े और उन्हें हटाने का विचार उन्हें त्यागना पड़ा। कहने को तो कहा जा सकता है कि बंगाल के चुनाव नतीजों ने मोदी को कमज़ोर कर दिया है, लेकिन सच्चाई यह है कि मोदी उसके पहले से ही कमज़ोर पड़ रहे हैं। विधानसभा चुनावों में भाजपा को जीत दिलाने की उनकी क्षमता 2019 के लोकसभा चुनाव में उनकी जीत के पहले से ही संदिग्ध हो चुकी थी। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में उनकी पार्टी हारी थी। 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद तो भाजपा विधानसभा चुनावों में अधिकतर हार का ही सामना करती रही है। असम एकमात्र अपवाद है, जहां मोदी ने भाजपा को जीत दिलाई। उसके पहले हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा हारी थी। हरियाणा में तो जोड़-तोड़ कर सरकार बन भी गई, लेकिन दिल्ली में एक बार फिर शर्मनाक हार का सामना मोदी को करना पड़ा। उसके पहले झारखंड में भी करारी हार का सामना करना पड़ा था। बिहार में स्थिति बेहतर थी, लेकिन वहां नितीश कुमार का भी योगदान था। इसलिए पिछले दो मई की बंगाल की हार से एकाएक मोदी कमजोर हो गए, ऐसा नहीं कहा जा सकता।
दरअसल, कोरोना संकट शुरू होने के बाद मोदी के इर्द गिर्द बुना तिलिस्म समाप्त होता जा रहा था। उन्हें एक ऐसे अवतार पुरुष के रूप में प्रोजेक्ट किया जा रहा था। जिसने हिमालय पर जाकर सिद्धि प्राप्त कर रखी है और जिसके नेतृत्व में भारत और भारत के लोग सुरक्षित हैं। लेकिन कोरोना संकट ने उनके इस तिलिस्म को धो डाला। करोड़ों विस्थापित मज़दूरों का ख्याल किए बिना ही उन्होंने लॉकडाउन घोषित कर दिया और सारी गाड़ियों और रेलगाड़ियों के परिचालन पर रोक लगा दी। उसके बाद आज़ादी के बाद का सबसे बुरा दौर शुरू हो गया। करोड़ों मज़दूरों की दुर्दशा के बीच उन्होंने ताली-थाली बजाने और दीया जलाने का उत्सव मनाना शुरू कर दिया। बैंड बाजा बजाए जाने लगे और हेलिकॉप्ट से फूल बरसाए जाने लगे। चूंकि मीडिया खासकर टीवी मीडिया द्वारा लोगों का ब्रेनबाश कर यह करवाया जा रहा था, तो लोग मजे ले लेकर कर भी रहे थे।उत्सव मनाने के अलावा कोरोना संकट से लड़ने की जगह उन्होंने जनविरोधी कानून बनाने शुरू कर दिए और इस आपदा को अवसर में बदलने की घोषणा कर दी। ‘आत्मनिर्भर’ शब्द का जुमला फेंका, जो सुनने में तो लगता था कि वे देश को आत्मनिर्भर बनाने की बात कर रहे हैं, लेकिन जिसका असली मतलब लोगों को समझ में आया, तो पता चला कि उनकी ‘आत्मनिर्भरता’ का मतलब लोगों को अपने हालात के भरोसे छोड़ देना था, जिसमें वे सरकार से कोई उम्मीद न करें। मतलब कि वह जनता के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त होने की घोषणा कर रहे थे। उनकी आत्मनिर्भरता का मतलब कोरोना की दूसरी लहर के समय लोगों की समझ में पूरी तरह आ गया, जब कोरोना पीड़ित परिवार ऑक्सीजन, अस्पताल में बैड और दवाइयों के लिए मारे मारे फिर रहे थे और कालाबाज़ारियों के पौ बारह हो रहे थे।
इस सितम ने प्रधानमंत्री मोदी को भाजपा और संघ के समर्थकों के बीच भी कमज़ोर किया है। संकट के दौरान मोदी आगे बढ़कर कोरोना के खिलाफ  लड़ाई का नेतृत्व करते भी नहीं दिखे। उन्होंने सबकुछ नौकरशाहों के ऊपर छोड़ दिया। नोटबंदी और जीएसटी के दौरान भी उन्होंने वही किया था। घोषणा करके सब कुछ नौकरशाहों के ऊपर छोड़ देते। हमारे नौकरशाह कितने सक्षम हैं, इसके बारे में देश के लोगों को पहले से ही पता है। इसलिए एक तरफ  नौकरशाह और दूसरी तरफ  बाज़ार और कालाबाज़ार के बीच में देश की जनता संकट के दौरान पिसती रही है। इसका असर यह हुआ कि अब नरेन्द्र मोदी की नेतृत्व क्षमता को लेकर ही प्रशासन तंत्र से जुड़े लोगों को संदेह हो गया है। यह संदेह भारतीय जनता पार्टी और संघ से जुड़े लोगों को भी हो गया है। यही कारण है कि मोदी की पकड़ संघ और भाजपा पर कमज़ोर हुई है और वह अपनी इच्छा को पार्टी पर अब थोप नहीं सकते। योगी आदित्यनाथ को भी पता है कि कोरोना की दूसरी लहर के दौरान उत्तर प्रदेश में जो अव्यवस्था फैली, उसके लिए कौन कितना ज़िम्मेदार है। (संवाद)