मानवीय प्रेम के प्रेरणा पुरुष संत कबीर

ज्ञानमार्गी शाखा व अध्यात्मवाद के पुरोधा संत कबीर दास का जन्म 1399 ई. में काशी में 621 वर्ष पूर्व हुआ था। नीमा और नीरू दम्पति ने इनका पालन पोषण किया था। कबीर अनपढ़ थे, लेकिन अध्यात्मवाद की उनमें गहरी पैठ थी। अपने समय के वह मानव समाज के उत्कृष्ट प्रतिनिधि थे। इसलिए उनके मानव मन में कोई भेदभाव नहीं था। उनकी दृष्टि में मानव संसार एक जैसा था। संत कबीर के अध्यात्मवाद का गहनता से अध्ययन किया जाए तो कबीर जैसा अनुभव बहुत कम संतों में पाया जाता है। उनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक स्तर का था। उन्होंने अपनी वाणी में जो कुछ भी कहा है वह सत्य तथा यथार्थ पर आधारित है। संत कबीर उच्च कोटि के समाज सुधारक थे, इसलिए उन्होंने अपनी वाणी में समाज की बुराइयाें, ऊंच-नीच, जाति-पाति, कर्मकांड, आडम्बर जैसी कुरीतियों का जमकर विरोध किया। वह द्वेषरहित निर्भय प्रकृति के थे। भारतीय समाज में हिन्दू-मुस्लिम के बीच बंधुत्व भाव का अंकुर उत्पन्न करने का अभिप्राय व्यक्तिगत साधना की पुनीत अनुभूति थी। कबीर ने अपने दार्शनिक चिंतन में आत्मानुभव पर जोर दिया, न कि हिन्दू-मुस्लिम विचाराें से प्रेरित होकर अंधानुकरण किया। कबीर ने बाहरी आडम्बरों में योगी, संन्यासी, शैव, पीर इत्यादि की किसी न किसी रुप में आलोचना ही की। कबीर ने समूचे जगत की रचना को एक ओंकार अथवा नूर से माना है।संत कबीर ने सांसारिक जीवों को ऐसी मोह माया में लिप्त बताया है जो काम, क्रोध, लोभ, मोह व अंधकार से बाहर नहीं निकल पाये हैं। उनकी दृष्टि में जन्म और मरण दो सीमाएं हैं। मनुष्य को अज्ञानता की नींद में सुलाए रखता है जिसे काल खा जाता है परन्तु जो जीव सचेत होकर जागृत है, वह आत्मिक तौर पर नहीं मरता है। संत कबीर इस बात के पक्षधर थे कि मनुष्य जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल मिलता है इसलिए मनुष्यको बाहरी कर्मकांड त्याग कर सच्ची प्रभु भक्ति में लगना चाहिए। आत्मा और परमात्मा में जब भेद मिट जाता है तब इस अवस्था को वह मुक्ति मानते  हैं। उनके काल में गोरखनाथ संप्रदाय का बोलबाला था। ये नाथ हठ योग की साधना से प्रभावित थे जो पाखंडी कर्मों को बल देते थे, जबकि कबीर ने वाणी में हठ योग का खुला खंडन किया है। अध्यात्मवाद के मार्ग पर चलने वालों की दिव्य दृष्टि में मनुष्य को हर तरह की शक्ति देने वाले का परमात्मा चाहे एक ही है, बाकी सब जीव उस प्रभु के अधीन उसका अंश मात्र हैं। कबीर के चिंतन में भक्ति, नैतिकता और धर्म की धारणा ही मूल थी। संत कबीर ने मानव प्रेम से समाज का पुनरुत्थान किया। कबीर ने अपने उपदेशों से मनुष्य को बाहरमुखी होने की बजाय अंतरमुखी होने का रास्ता दिखाया। उन्हाेंने कभी यह नहीं कहा कि आप घर, समाज छोड़कर ईश्वर की खोज में निकल जाओ। संत कबीर ने सामाजिक संघर्षों को सहते हुए भी मनुष्य को उस घर का रास्ता बताने की कोशिश की जहां से फिर जन्म-मरण से छुटकारा मिल जाता है व आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है। यदि हमने संसार से ही मोह रखा तो जीवन-मरण के बंधन से छुटकारा नहीं पा सकेंगे। अत: जहां मोह है वहीं आना पड़ेगा। संत कबीर भले ही सवा छह सौ साल पहले हुए थे लेकिन उनके संदेश व उनकी चेतना आगे की सदियों के लिए प्रासंगिक है। भारतीय समाज को जातिगत और साम्प्रदायिक भेदभाव से मुक्त कराने के लिए भक्ति काल के संत कवियाें का प्रयास भावनात्मक और आध्यात्मिक प्रतिरोध था। आज़ादी के 73 वर्ष बाद भी जाति और सम्प्रदाय के नाम पर बढ़ते विद्वेष को देखकर लगता है कि हमें कबीर के भावनात्मक और आध्यात्मिक उपायों की भी उतनी ही आवश्यकता है जितनी तार्किक, कानूनी और संस्थागत उपायों की है। कबीर के जीवन दर्शन को यदि साकार करने का संकल्प लेना है तो उनकी समग्र चेतना को भी छूने का प्रयास करना होगा साथ ही अहंकार के विसर्जन और समभाव का संदेश भी फैलाना होगा, यही सच्चा समाजवाद है। वह न तो किसी धर्म के थे व न ही किसी समाज के। वह किसी इलाके और देश के न होकर पूरी मानवता के लिए थे। उनकी कथनी और करनी में भेद नहीं था। संत कबीर मानवीय रूप प्रेम के प्रेरणा पुरुष थे परन्तु उनके प्रेम का मार्ग अत्यंत कठिन है। इसीलिए वह कहते थे कि-‘यह खाला का घर नहीं है जहां हर कोई पहुंच सके, वहां पहुंचने के लिए अपना शीश उतारकर हाथ पर रखना पड़ता है।’ लेकिन आज मानव प्राणी एक दूसरे का शीश उतारने को आतुर हैं। क्या वे कबीर के मर्म से प्रेरणा लेने हेतु कदम उठायेंगे? यही संकल्प कबीर की चेतना को छूने वाला जीवन का यथार्थ भी है। इस वर्ष कबीर जयंती 24  जून को है।  (सुमन सागर)