किसान महापंचायत क्या गेमचेंजर साबित होगी ?

वीडियो में एक व्यक्ति को भीड़ द्वारा संगसार (पत्थरों से मारना) करते हुए दिखाया गया था। यह अ़फगानिस्तान का वीडियो था, लेकिन इसे मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) के एक गांव की स्थानीय घटना से जोड़ कर वायरल किया गया, जिससे पूरे क्षेत्र में साम्प्रदायिक तनाव व्याप्त हो गया। इस पृष्ठभूमि में 7 सितम्बर, 2013 को एक महापंचायत का आयोजन नगला मंदसौर में किया गया, जिसमें दिए गये भड़काऊ भाषणों ने स्थिति को अधिक तनावपूर्ण बना दिया। अपने भाईचारे व सौहार्द के लिए सदियों से विख्यात मुजफ्फरनगर व शामली, जो 1947 के देश विभाजन में भी शांति की मिसाल रहे, में अप्रत्याशित भीषण दंगे हुए। इन दंगों में जानो-माल का नुकसान हुआ। बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हुए, लेकिन इससे भी बढ़कर पीढ़ियों से चला आ रहा आपसी विश्वास टूट गया और मतदाताओं का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण लगभग पूरे पश्चिम उत्तर प्रदेश व आस पास के क्षेत्रों में हो गया। इसके राजनीतिक परिणाम निकले। चौधरी चरण सिंह व उनके परिवार द्वारा स्थापित विभिन्न राजनीतिक दलों (जिनका वर्तमान अवतार राष्ट्रीय लोकदल है) और महेंद्र सिंह टिकैत की भारतीय किसान यूनियन की किसान राजनीति हाशिये पर चली गईं, क्योंकि इनका तो आधार ही भाईचारा व सौहार्द था। भाजपा नई दिल्ली व लखनऊ में सत्ता में आ गई।
अब सात वर्ष बाद फिर एक महापंचायत हुई है हालांकि 5 सितम्बर, 2021 को मुजफ्फरनगर के राजकीय इंटर कॉलेज के मैदान में देश के 40 किसान संगठनों के संयुक्त किसान मोर्चा के तत्वावधान में आयोजित इस महापंचायत का उद्देश्य केंद्र के तीन नये कृषि कानूनों को रद्द कराने व न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की कानूनी गारंटी की मांगों से संबंधित था, जिसके लिए किसान पिछले दस माह से दिल्ली की सीमाओं पर धरना दे रहे हैं। तथापि, इसके संभावित राजनीतिक प्रभावों को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है, विशेषकर इसलिए कि अगले वर्ष उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड सहित कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, जिनमें किसान मतदाताओं की भूमिका निर्णायक हो सकती है। शायद यही कारण है कि भाजपा के पीलीभीत से सांसद वरुण गांधी ने प्रदर्शनकारी किसानों के समर्थन में महापंचायत का वीडियो शेयर करते हुए ट्वीट किया, ‘मुजफ्फरनगर में आज (5 सितम्बर 2021) लाखों किसान (नये कृषि कानूनों के विरोध) प्रदर्शन करने हेतु एकत्र हुए हैं। वे हमारा ही हिस्सा, हमारा ही खून हैं। हमें सम्मानपूर्वक उनसे फिर से संपर्क साधना चाहिए।’ 
गौरतलब है कि 22 जनवरी, 2021 को जब केंद्र व किसानों के बीच 11वें चक्त्र की वार्ता भी बेनतीजा रही तो उसके बाद से दोनों के बीच कोई संपर्क नहीं रहा है। किसान नये कृषि कानूनों को रद्द करने व न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी से कम के लिए तैयार नहीं हैं, जबकि केंद्र ने संबंधित कानूनों में सिर्फ  मामूली फेरबदल करने का ही संकेत दिया है। इस गतिरोध को तोड़ने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने भी एक एक्सपर्ट कमेटी का गठन किया था, जिसने 85 किसान संगठनों से विचार-विमर्श के बाद सील बंद लिफाफे में अपनी रिपोर्ट इस साल 19 मार्च को सुप्रीम कोर्ट को सौंपी। रिपोर्ट को न सार्वजनिक किया गया है और न ही उस पर अभी कोई निर्णय लिया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने तीनों नये कृषि कानूनों को 11 जनवरी से होल्ड पर रखा हुआ है।
बहरहाल, लगता नहीं है कि इस मसले का जल्द कोई हल निकल पायेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि कृषि क्षेत्र को तुरंत सुधार व आधुनिकीकरण की आवश्यकता है और सरकार ने सुधारों के लिए पहल की है, जिनसे छोटे किसान बिचौलियों के दबाव से मुक्त हो जायेंगे। मोदी सरकार ने 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य रखा है। दूसरी ओर जिन तीन कृषि कानूनों को सरकार किसानों के लिए आवश्यक समझती है, उनके विरोध में किसान 26 नवम्बर, 2020 से दिल्ली की सीमाओं पर धरना दे रहे हैं। किसानों को लगता है कि ये कानून उन्हें कॉर्पोरेट जगत का मोहताज बना देंगे, उनका अपने खेत व खेती पर नियंत्रण नहीं रहेगा। प्रधानमंत्री ने टोक्यो ओलम्पिक में भारतीय पदक विजेताओं से तो फोन पर बात की, लेकिन अपने को एक फोन कॉल की दूरी पर बताने के बावजूद दिल्ली की सीमा पर बैठे किसानों से वार्ता नहीं की। सरकार ने संसद के मानसून सत्र में विपक्ष की मांग को न मानते हुए किसानों की समस्याओं पर चर्चा तक नहीं करायी। इससे यही संकेत मिलता है कि सरकार किसानों की मांगों को मानने के बिल्कुल मूड में नहीं है।
पिछले कुछ माह से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का प्रयास यह प्रचार करने में रहा है कि किसान आंदोलन खत्म हो चुका है। इससे पहले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की कोशिश थी कि इसे सिर्फ पंजाब, हरियाणा व पश्चिम उत्तर प्रदेश के ‘रईस’ किसानों का आंदोलन बताया जाये। साथ ही धरने पर बैठे किसानों को उसने खालिस्तानी, पाकिस्तानी, आतंकी व मवाली तक कहा। अत: मुजफ्फरनगर महापंचायत के जरिये संयुक्त किसान मोर्चा ने यह प्रदर्शित किया कि उसका आंदोलन पहले की तरह ही मजबूत है और वह उत्तर के चंद राज्यों तक सीमित नहीं है बल्कि उसका अखिल भारतीय प्रभाव है। महापंचायत में कर्नाटक, महाराष्ट्र, ओडिशा, बंगाल आदि के किसान भी शामिल थे, जिन्होंने अपनी अपनी मातृभाषा में भाषण दिए। 
महापंचायत से मालूम होता है कि किसानों ने 2024 तक के लिए अपने आंदोलन का कार्यक्रम तय किया हुआ है। 2024 में आम चुनाव होने हैं। इसका अर्थ यह है कि किसानों को लगता है कि जब तक सत्ता परिवर्तन नहीं होगा या सत्तारूढ़ दल को चुनावों में नुकसान नहीं होगा, तब तक उनकी मांगों का माना जाना संभव नहीं है। इसलिए उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड (जहां 2022 में विधानसभा चुनाव होने हैं) में जगह-जगह पर किसान महापंचायतें आयोजित करने की योजना तैयार की गई है। 27 सितम्बर को भारत बंद का आह्वान किया गया है। बहरहाल, किसान राजनीति के सफल होने के लिए आवश्यक है कि किसानों में महेंद्र सिंह टिकैत के दौर का भाईचारा, सौहार्द व विश्वास लौटकर आये। इसलिए राकेश टिकैत ने महापंचायत में इस बात पर बल दिया कि वह किसानों का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं होने देंगे। 7 सितम्बर, 2013 की महापंचायत भाजपा के पक्ष में गेमचेंजर साबित हुई थी। अब देखना यह है कि 5 सितम्बर, 2021 की महापंचायत से किसानों का राजनीति में महत्व लौटता है या नहीं?
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर