बड़े जूतों के लिए पालिश का इन्तज़ाम

अचानक ज़माने को रोटी के सिवा और बहुत सी बातें सूझने लगी हैं। जी क्या फरमाया आपने? क्या मेहनत करके रोटी खाने की बात? क्या श्रमशीलता से राष्ट्र निर्माण की बात? क्या देश की युवा पीढ़ी में नया जोश भर कर उन्हें राष्ट्रीय निष्ठा से ओतप्रोत कर देने की बात? या कि आज़ादी के पचहत्तर वर्ष गुज़ार अमृत महोत्सव मनाते हुए शतक जयन्ती अर्थात् बीस सौ सैंतालीस को एक नया भारत बना इस भीड़ भरे देश को तोहफे के रूप में दे देने की बात? 
माफ कीजिये, ऐसी बातें शुरू से ही साफ कर देना बहुत अच्छा लगता है। अब जब कि भाषण, उद्घोषणायें और दावे बार-बार दुहराने से बासी से लगने लगे हैं, तो उन्हें कोई नया तेवर तो देना ही पड़ता है। बचपन में एक जासूसी उपन्यास में पढ़ा था कि ‘भई जितना बड़ा जूता होता है, पालिश भी उतनी ही लगती है।’ हंसे गोपाली।
फटीचर लोग नंगे फटे बिवाइयों वाले पांव लेकर कथित तरक्की के इस कंटक मार्ग पर चलने के लिए ही ऐसे चमकदार बड़े जूते पा लेने की इच्छा न जाने कितने बरस से करते रहे, लेकिन जूता किसे मिला। यह जूता महानगरों की बड़ी शू कम्पनियों से चला, रास्ते में विदेशी साया पा गया। खबर मिली कि इस बार ऐसी सब वस्तुओं के निर्यात में रिकार्डतोड़ वृद्धि हो गई है। महानगर से चला चमचम जूता उसी तरह अपहृत हो गया कि जैसे फालतू कहला कर अनाज, दवाएं, चिकित्सा उपकरण और कोरोना टीके अपहृत हो जाने का मूड अब देश में बन रहा है। 
‘अच्छे दिन आयेंगे’ के वायदे की तरह चमकते जूते बाहर भेजने की होड़ में हम तो अपने पांव का चमरौधा जूता या टूटी फटी चप्पल भी खो बैठे। अपनी अस्सी करोड़ आबादी पेट भरने के लिए रियायती अनुदान प्राप्त अनाज पर गुज़र  बसर कर रही थी, कि लो हमने दुनिया भर के भूख से संत्रस्त लोगों का पेट भरने का ठेका ले लिया। शर्त यही है कि विश्व व्यापार संगठन अपनी खरीद के पैमाने ढीले कर ले, ताकि हमारे धनकुबेर अपना औना-पौना माल तक विदेशी मण्डियों में खपा सकें। भई, जानते हो न विकट दिन हैं। रूस और यूक्रेन में भयावह युद्ध छिड़ा हुआ है। आपूर्ति बाधित हो रही है, इसलिए अपनी वस्तुओं के निर्यात में हमें खुला खेल फर्रुखाबादी मिलना चाहिए ताकि इस देश के अरबपति खरबपति हो जाएं। चिन्ता तो इन्हीं की होनी चाहिए बन्धुवर, क्योंकि निजी क्षेत्र ही देश के विकास को बढ़ाने का ज़ामिन बन गया। जानते नहीं हो, महामारी के इन दो पूर्ण-अपूर्ण बंदी के सालों में देश कम से कम बारह बरस पिछड़ गया है। इसी तरह आगे आएगा। 
अब मन्दी और महंगाई निष्प्रभावी आर्थिक बूस्टरों और पतनशील मांग के इस ज़माने में एक ही रास्ता रह गया है, निजी क्षेत्र और सरकारी क्षेत्र की भागीदारी के नाम पर हर नये खुलते सरकारी क्षेत्र में ‘उनके’ बढ़ते कदम, जहां लाभ की भरती थैलियां ही ‘उनका’ एकमात्र सच हैं। बदले में जनकल्याण के नाम पर लुभावनी मुफ्त संस्कृति तो गरीबी के अंधेरे में डूब गई कतारों को परोस दी गई है। व्यक्ति अब यहां भूख से नहीं मरेगा, कह कर हमने अधमरे लोगों को लंगर और राहत संस्कृति का झुनझुना पकड़ा दिया है, लेकिन कोई नहीं पूछता कि भई ये सब लोग भरपूर काम कर सकने वाले लोग हैं। ये लगातार काम तलाश भी रहे हैं। फिर तुमने क्यों उन्हें भूख से न मरने देने का सरकारी वचन दे दिया, लेकिन उन्हें यथोचित काम देने का आश्वासन नहीं दिया अभी तक? बल्कि देश की युवा शक्ति को ऐसी शिक्षा दे रहे हो कि जो उन्हें किसी डिजिटल नैटपोषित काम के तो नज़दीक भी फटकने नहीं देती। हां, नवशिक्षण के नाम पर चोर दरवाज़े से पार पत्र और वीज़ा बनवाने के नये सूत्र, नये मंत्र अवश्य पकड़ा रही है। अब जितना बड़ा जूता होता है, पालिश भी उतनी ही अधिक लगती है, यह चोर दरवाज़ा खुलवाने के लिए अगर चांदी का पेचकस कुछ अधिक घुमाना पड़ेगा तो इसे बदले ज़माने की रीत कहिये। समझ आ रही है।
यह रीत हर जगह चलती नज़र आती है। घोषणा होती है, देखो हमने भ्रष्टाचार खत्म कर दिया, लेकिन आधी-अधूरी परेशान बनी सड़कें संदेश देती हैं कि जनाब, महंगाई अधिक हो गई, इसलिए ठेकेदारों के बिलों के भुगतान के समय उनके अफसर को कमीशन का प्रतिशत अधिक दे दीजिये।  पहले इस बढ़ी कमीशन का जुगाड़ कर लो, पूरी बनी सड़क बाद में ले लेना। भ्रष्टाचार के पूरी तरह खत्म हो जाने की घोषणा तो आज़ादी के शतक उत्सव तक भी टाली जा सकती है कि जैसा रोज़गार, महंगाई। नियन्त्रण और डिजिटल शिक्षा का कार्यक्रम हमने अगले उत्सव तक टाल दिया है। 
लेकिन यह याद रखो, नहीं टलेगी अभी महामारी के लौट आने की आशंका। आशंका बनी रहेगी, तभी तो दवाइयों की मांग बढ़ती रहेगी, निजी अस्पतालों में मरीज़ों की कतार चलती रहेगी। यह सब चलता ही रहना चाहिए। यहां तो युद्ध भी सुना है आपूर्ति का संकट पैदा करने के लिए लड़े जाने लगे हैं। इन बड़े-बड़े लोगों के जूते भी तो इतने बड़े हो गये। इनके लिए पालिश का इंतज़ाम भी तो करते रहना है, चाहे वह युद्ध खींच कर हो या महामारी के लौटने की चेतावनी दे कर।  आशंका बढ़ेगी, तभी तो चोर द्वार का व्यापार बढ़ेगा। अपना क्या है। हमने तो न जाने कहां अपने पांव का जूता खो दिया। अब अपने लिए एक सस्ता चमरौधा ही मिल जाता, काश!