हिन्दी फिल्मों में साहित्य की मशाल जलाने वाले गीतकार शैलेन्द्र

‘सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी, सच है दुनिया वालो कि हम हैं अनाड़ी।’ यह गीत आज भी हर किसी के द्वारा गुनगुनाया  जाता है । इस गीत के रचयिता शंकर सिंह शैलेन्द्र ने फिल्मी जगत में सिर्फ  शैलेन्द्र के नाम से ही फिल्मी गीतों में अपनी पहचान बनाई है। हिन्दी फिल्मों में साहित्य की मशाल जलाकर उसे ज़िन्दा रखने वालों में शंकर सिंह शैलेन्द्र का नाम सबसे ऊपर है। यूं तो शंकर सिंह शैलेन्द्र एक फिल्मी गीतकार के रूप में चर्चित रहे लेकिन वह एक कवि, एक साहित्यकार और एक लेखक के रूप में भी अपनी खास पहचान रखते थे।
मई 1955 में उनके द्वारा लिखी गई गैर-फिल्मी रचना काव्य संग्रह के रूप में ‘न्यौता और चुनौती’ भी प्रकाशित हुई जो प्रगतिवादी साहित्य की कालजयी रचना मानी जाती है। 30 अगस्त सन् 1932 को रावलपिंडी जो अब पाकिस्तान में है, में जन्मे शंकर सिंह शैलेन्द्र ने सन 1949 में फिल्म बरसात के गीत ‘बरसात में हमसे मिले तुम कि सजन’ से अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत की थी। अपने ज़माने के मजदूर नेता शंकर सिंह शैलेन्द्र का चर्चित गीत ‘हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है’ आज भी प्राय: हर आन्दोलन में गुनगुनाया जाता है, जो शोषित और पीड़ित मज़दूरों को न्याय दिलाने में आज भी मदद करता है।  सन् 1958 में बनी फिल्म ‘यहूदी’ में उनका गीत ‘ये मेरा दीवानापन है...’ तथा फिल्म ‘ब्रह्मचारी’ के गीत ‘मैं गाऊं तुम सो जाओ...।’ शंकर सिंह शैलेन्द्र की याद को चिर स्मृत किये हुए हैं। उनकी फिल्म ‘आवारा’, ‘श्री 420’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’, ‘आह’, ‘जागते रहो’, ‘पतिता’, ‘गुमनाम’, ‘मेरी सूरत तेरी आंखें’, ‘संगम’, ‘काला बाज़ार’, ‘साहब’ ‘सीमा’, ‘मधुमती’, ‘गाईड’, ‘बूट पालिश’, यहूदी’, ‘बरसात’, ‘बन्दिनी’, ‘अनाड़ी’, जैसी चर्चित फिल्मों में अपने गीतों का योगदान करने वाले सदाबहार रहे शैलेन्द्र में जनवादी सोच गहराई तक थी।आज़ादी के बाद रावलपिंडी से भारत में आ बसे शैलेंद्र ने अपना बचपन मथुरा में बिताया और फिर रेलवे में नौकरी करने मुम्बई चले गए। मुम्बई में वह एक ट्रेड यूनियन नेता के रूप में भी काफी उभरे और उनका लिखा गाना ‘हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में संर्धा हमारा नारा है’  हमेशा के लिए अमर हो गया। शंकर सिंह शैलेन्द्र के गीतों में कहीं संदेश नज़र आता है तो कहीं उनके गीत हर दिल में जोश भरते नज़र आते हैं। आध्यात्मिक सीख देने वाले उनके गीत ‘सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है वहां हाथी है न धोड़ा है वहां पैदल ही जाना है’ को आज भी सन्मार्ग दिखाने वाला गीत कहा जाता है। वही उनके गीत ‘तू ज़िन्दा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर’ को सुनकर हर किसी के अन्दर कुछ कर गुज़रने का जज़्बा पैदा होता है।अपनी प्रसिद्ध फिल्म ‘तीसरी कसम’  के लिए अपना सब कुछ लुटा देने वाले शैलेन्द्र को सर्वाधिक शोहरत  उनके इस दुनिया से कूच करने के बाद ही सही किन्तु फिल्म ‘तीसरी कसम’ से मिली। इस फिल्म की बदौलत उन्हें राष्ट्रपति पदक भी हासिल हुआ। शंकर सिंह शैलेन्द्र ने कई फिल्मों जैसे नया दौर, बूट पालिश, मुसाफिर व श्री 420 में अभिनय भी किया। साथ ही फिल्म परख के लिए संवाद भी लिखे। उन्हें फिल्म ‘यहूदी’, ‘अनाड़ी’ व ‘ब्रह्मचारी’ में गीत लेखन के लिए फिल्म फेयर पुरस्कार भी मिले। लेकिन उन्होंने कभी भी पुरस्कार को कोई विशेष तरजीह नहीं दी। अपने जीवन में  करीब एक हज़ार गीत लिखने वाले और लगभग 200 फिल्मों के लिए अपने गीत देने वाले शैलेन्द्र ने अपना जीवन साधारण ढंग से बिताया और संघर्ष करते-करते ही इस दुनिया से चले भी गए। 14 दिसम्बर, 1966 में इस जीवन को अलविदा कहने वाले शैलेन्द्र की अब यादें ही बाकी हैं। प्रसिद्ध साहित्यकार भीम साहनी ने अपने जीवनकाल में इस लेखक के साथ एक बातचीत में माना था कि शैलेन्द्र जैसा कविराज फिल्म क्षेत्र में कोई दूसरा नहीं हुआ, जिसने आम लोगों के दर्द को अपने गीतों में पिरोकर फिल्मों के माध्यम से जनता के सामने परोसा। फ णीवर नाथ रेणु ने एक बार शैलेन्द्र को पत्र लिख कर उनके गीत चिट्ठिया हो तो हर कोई बाचे भाग न बाचे कोई’ की जमकर तारीफ  की थी। फिल्म निर्माता व नायक रहे राज कपूर तो शैलेन्द्र के दीवाने थे। एक कवि सम्मेलन में शैलेन्द्र के गीतों को सुनकर अपनी फिल्म के लिए गीत लिखने का न्यौता देने वाले राजकपूर का न्यौता भी शैलेन्द्र ने उस समय ठुकरा दिया था, परन्तु जब उनके जीवन में आर्थिक तंगी आई तो उन्हें काम मांगने के लिए राजकपूर के पास जाना पड़ा था, फिर भी राजकपूर ने उन्हें गले लगाकर उन्हें अपनी फिल्मों में काम दिया। शैलेन्द्र की मृत्यु के बाद राजकपूर ने अपने इस दोस्त को श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि मेरे दोस्त, तुम अपने गीतों के कारण हमेशा अमर रहोगे। कथाकार कमलेश्वर भी गीतकार शैलेन्द्र के प्रशंसक थे। उन्होंने कहा था कि शैलेन्द्र के गीत जनसरोकार की मनोभूमि पर सृजित हैं। इसी इसी कारण शैलेन्द्र को जन कवि के रूप में भी मान्यता मिली।