दलाईलामा तथा उनकी धारणा

इन दिनों मेरी जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली की समाज विज्ञान की पूर्व प्रोफेसर डा. रेणुका सिंह से साथ लम्बी मुलाकात हुई। उनकी वर्तमान गतिविधियां जान कर हैरानी भी हुई और गर्व भी। वह प्रसिद्ध प्रकाशक भापा प्रीतम सिंह की बेटी है। मैं उसे उसके बचपन में तो बहुत मिलता रहा परन्तु दिल्ली से नाता टूटने के बाद मैं उसे नहीं मिल सका। इस अवधि में वह दिल्ली विश्वविद्यालय के वूमैन स्टडीज़ सैंटर से भी जुड़ी रहीं और बौद्ध अध्ययन से भी। वह आजकल तुशीता महायाना मैडिटेशन सैंटर की डायरैक्टर है तथा इस विषय पर वह एक दर्जन के लगभग पुस्तकों की रचना एवं सम्पादन कर चुकी है। उसकी ताज़ा रचना दलाईलामा (ज्ञान के समुद्र) 14वें की किरत ‘हल्लाशेरी दी निक्की पोथी’ का सम्पादन है। इसमें कोरोना काल से प्रभावित लोगों के लिए सांत्वना का संदेश भी है और जिन लोगों ने अपनी जान खतरे में डाल कर कोरोना के मरीज़ों की तीमारदारी की उनका धन्यवाद भी।
यह छोटी-सी पोथी दलाईलामा की अनूठी धारणा का सारांश है। उनका विचार है कि एक ही कौम, एक ही धर्म, एक ही साम्प्रदाय से चिपके रहने का समय निकल चुका है। पोथी में इस धारणा से संबंधित नुक्तों को उभारा गया है, विशेष कर कोरोना काल की चेतना। इस प्रसंग में लोगों का एक-दूसरे के सहायक होना। ऐसे नाज़ुक समय में हमें दरियादिल होकर ज़रूरतमंदों के सहायक बनने वालों के धन्यवादी होना चाहिए। लामा जी लिखते हैं कि निरन्तर गुस्सा एवं घृणा मनुष्य की मुक्त-भावना का घातक होती है। कोरोना की बीमारी ने भी सदा नहीं रहना। इसने भी युद्धों और जेहादियों की पवन की भांति चले जाना है। चिंता है तो इस बात की कि वर्तमान में ग्लोबल वार्मिंग मुंह खोले बढ़ रही है। खराब तथा दुषित वातावरण हम सभी को ले डूबेगा। इसका मुकाबला करने के लिए भी एकजुटता की आवश्यकता है। 
आवश्यक है कि हमारी शैक्षणिक प्रणाली में उपरोक्त बातों के साथ-साथ मानसिक तथा मनोभावी शारीरिक साधना को अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ा जाए। अच्छी धारणा वाले डाक्टर तथा अध्यापक माता-पिता से अच्छा योगदान दे सकते हैं। इनका दयावान चेहरा तथा थोड़ी-सी मुस्कराहट दवा से अधिक असर करते हैं, महिलाओं की विशेषकर। हमारी राजनीति में महिलाओं की कमी खटक रही है। इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।  जहां तक मानवता का संबंध है, वैज्ञानिक ठीक कहते हैं कि एटमी युद्ध मानवता की तबाही का शिखर है। यह मानव जाति तो क्या विश्व भर के जीव-जंतुओं को समाप्त कर देगा। दलाईलामा यूरोपियन यूनियन की 70 वर्षीय शांति तथा सब्र पर आशा लगाए बैठे हैं, जो अन्य देशों का भी मार्ग दर्शक हो सकती है। इस प्रसंग में उन्हें भारत की अनेकता में एकता भी ढाढस बंधाती है, जहां कल तक विश्व के सबसे बड़े धर्म एक-दूसरे के कंधे से कंधा मिला कर सहायक होते आए हैं। 
दलाईलामा ने भारत की इस भावना एवं शक्ति का ज़िक्र इस छोटी-सी पोथी में बार-बार किया है। यह कह कर कि किसी अन्य धर्म की निंदा करना तबाही की नींव रखने के समान है। इससे मुक्त रहने से उत्तम धर्म कोई नहीं। 
पोथी का अंत कोरोना काल में आई एकजुटता की आशा से होता है। देश-विदेश की सभी सरकारें इसका डट कर मुकाबला कर रही हैं। इससे डर कर नहीं, इसे चुनौती समझ कर। इसी में इसका कमाल है। 
गुरशरण सिंह नाटककार को याद करते हुए
भाई मन्ना सिंह के रूप में जाने जाते गुरशरण सिंह नाकटकार नुक्कड़ नाटक के जन्मदाता थे। यदि वह जीवित होते, उन्होंने 16 सितम्बर को 93 वर्ष के हो जाना था। 27 सितम्बर, 2011 में उनके निधन के बाद प्रत्येक वर्ष उसकी चंडीगढ़ स्थित रिहायश तथा अमृतसर की कर्म भूमि में उनके प्रशंसक उन्हें याद करके उनके जीवन तथा कार्यशैली पर फूल चढ़ाते हैं। 
इस बार चंडीगढ़ वाली एकत्रता का आरम्भ संत राम उदासी के शब्दों से हुआ। 
उनकी बेटी अरीत कौर ने उनकी उल्लेखनीय यादें श्रोताओं से साझा कीं, परन्तु इस कार्यक्रम का श्रेष्ठ भाग पाकिस्तानी लेखक शाहिद नदीम के नाटक ‘झल्ली कित्थे जावे’ का नुक्कड़ मंचन था। इसमें यह परिवार अपने नौजवान बेटे को उसका विवाह होते ही अच्छी कमाई के लिए दुबई भेज कर उससे महंगी पौशाकें, आभूषणों एवं नकदी की मांग करता है। यहां तक कि जब वह दुबई से परत कर अपनी पत्नी के हमबिस्तर होता है तो भी उसे धक्के मार कर पुन: दुबई भेज दिया जाता है। परिणामस्वरूप पत्नी गर्भवती हो जाती है तो यह पता लगने पर कि उसकी कोख में बेटा नहीं अपितु बेटी है, उसका गर्भपात करवा दिया जाता है। पत्नी उसका रोष मनाती है तो उससे झल्ली कह कर उसके दुख दूर करने के लिए उसे किसी बाबा के पास ले जाते हैं जिसके कहने पर वे उसे चालीस दिन घर में कैद करके रखते हैं। चालीस दिन की कैद काफी नहीं समझते तो उसे एक पीर के पास ले जाते हैं जो और चालीस दिन पशुओं के कमरे में बंद करवा कर उसे पशुओं का चारा खाने को मजबूर कर देता है। मंच की पृष्ठभूमि से आ रही आवाज़ें इस मजबूरी को यह कह कर उभारती हैं :
किसनूं हाल सुणाए झल्ली 
दस्सो कित्थे जाये झल्ली
अनीता शबदीश के निर्देशन में तैयार किया गया यह नाटक पैसे के लालच में अंधी हुई मानसिकता की सुंदर पेशकारी है। अंत में नाटककार इस बहुत बड़े दुखांत को सुखद मोड़ देता है और झल्ली कही गई नौजवान विवाहिता पशुओं के कमरे से बाहर आते ही परिवार के सभी सदस्यों पर खूब बरसती है। अपना झल्ल नकार कर उन्हें झल्ला कहती है। सभी के चेहरे उतर जाते हैं। एक दूसरे की ओर देखकर शर्मिंदा होते हैं। यह छोटा-सा नाटक एक अच्छे तथा बड़े संदेश के साथ समाप्त होता है। इसके समाप्त होने पर सभी दर्शक और श्रोता मोमबत्तियां जला कर गुरशरण सिंह कला गैलरी की ओर बढ़ते हुए ऊंची आवाज़ में गाते हैं : मशाला बाल के रखना जदों तक रात बाकी है। मंच संचालन अनीता के जीवन साथी शबदीप कुमार ने किया जो बिल्कुल सही एवं निर्णायक था। 
अंतिका
—मोहतरिमा गौहर रज़ा—
जब इज़्ज़त लूटने वालों पर
खुद राज सिंहासन फ़खर करे
तब समझो मज़हब-ओ-धर्म नहीं 
तहज़ीब लगी है दांव पर।