बदलते खेलों की पहचान


अपना दिल लगाने के लिए ऊंची अटारियों वाले नये-नये खेलों की ईजाद करते रहते हैं। उस शतरंज के खेल की बात पुरानी हो गयी, जब नवाब वाजिद अली शाह ने अपनी बाजी पूरी करने के फेर में पूरा लखनऊ हार दिया था। मुर्गों से लेकर बटेरों तक की लड़ाई वे लोग देखते रहे हैं। भैंसों की लड़ाई कब उनके लिए पहलवानों की लड़ाई में तबदील हो गई, कुछ पता नहीं चला। अखाड़े खुदे, दंगल हुए। कुश्ती प्रतियोगिताओं का ढोल बजता था। लोग भरभरा कर इन्हें देखने के लिए दर्शक दीर्घा भर देते थे। रेलिंग से लटक जाते थे। मुक्केबाजी भी इसी का प्रारूप रहा। धीरे-धीरे खेलों का तेवर बदल गया। अब हर खेल केवल प्रतिद्वंद्वी को धूल चटाने ही नहीं, उसका नामोनिशान मिटा देने तक सरक आया है।  खिलाड़ी भावना से खेलें इत्यादि पुराने शब्द हो गये। अब तो हर साम, दाम, दंड, भेद को अपना इन खेलों को खेला जाता है। 
प्रतिद्वंद्वी को स्टेडियम ही नहीं, ज़िन्दगी के अखाड़े के बाहर का रास्ता दिखा देने के बाद यारों को स्मृतिभ्रम हो जाता है। विजेता यार हिंसक हो स्मृतिभ्रम का शिकार हो जाते हैं। एक नकचढ़ी मुद्रा के साथ वे कह देते हैं, ‘अरे हम वर्तमान में जीते हैं, हमारे साथ भूतपूर्वों की बात न कीजिये।’ या कि ‘अरे वह भी कोई खिलाड़ी है, हमने तो उसे कभी खिलाड़ी क्या, अपनी खेल के पायदान पर खड़ा हुआ भी नहीं माना।’
कभी हमारी गुफ्तगू से आप ने उसका नाम सुना है। खेलता रहे वह जनूनी की तरह जितना उसे खेलना है। जब तक वह हमारी चौखट पर सजदा करने नहीं आयेगा, हम उसे पहचान का मैडल नहीं बख्शेंगे। हमारे मैडल बिना वह अनाथ संरक्षण की लाल लकीर से बाहर रहेगा। उसे धीरे-धीरे उसके परिवेश से ही अजनबी बना कर अकेलेपन की खुदकशी के लिए मजबूर कर दिया जायेगा। 
सच तो यह है कि यहां बात केवल अखाड़े, स्टेडियम और खुले मैदान के खेलों की तासीर की नहीं हो रही है। ऊंची अटारी वाले युगपतियों ने तो पूरी ज़िन्दगी को, राजनीति और समाज सेवा को, कला, साहित्य व संस्कृति को तप, साधना, त्याग, बलिदान और मेहनत अध्यवसाय को, मार्ग नहीं घुड़दौड़ का मैदान बना दिया है। लोग यहां काम में नहीं, हवा में सिक्का उछाल नाम हथिया लेने का धाम बनाने में व्यस्त दिखाई देते हैं। यहां जीवन की स्थापना और पहचान अपने निवेश और उसके किराये के प्रशस्ति गान से मिलती है। अभिनंदन की  चाह है तो अपने खर्च पर आयोजन करवा लो। मूल्यांकन आलेखों के प्रसारण के लिए कलमें या उद्घोषक किराये पर ले ले। सुना है, अब तो इसको खबरों, सूचनाओं से लेकर आपके प्रशस्ति वृत्त चित्र बनाने की प्रतिमायें भी किराये पर मिलती हैं, बिकती हैं। 
व्यावसायिक प्रशस्ति गायकों और आयोजकों का धंधा चल निकला है। कोई नेह भरा अकेला दीप जलते रहने की गुस्ताखी करना चाहता है, तो तत्काल आवाज़ उठती है, इसे पंक्ति को दे दो। वह पंक्ति नहीं जो एक-दूसरे के साथ जुड़ कर रौशनी की मीनार हो जाती है, बल्कि ऐसी कतार जिसमें रुतबा, पैसा और एक-दूसरे को उछालने की मनोवृत्ति कतार बनाती है। अंधेरे के ये सौदागर हर दीये को अपने आगोश में ले लेना चाहते हैं। जो उनकी कतार में लगने से इन्कार करे, उसे अवहेलना के जंगल भेंट कर दो। जंगलों में भटक यह दीप अगर बुझ जाये तो इसकी चिन्ता न करना। कतार को बिना चेहरे की भीड़ बना सकने वाले लोग आसानी से उनकी ध्वजा बन जाते हैं। जो दीया अपने अंदाज़ से जलने का हठ करता रहा, उसे निर्वासन ही भुगतना होता है, समाज, राजनीति और साहित्य के दंगल से। जनाब आजकल बदलाव के अभियान के नाम पर यहां दंगल होते हैं, कुछ पर्दे के आगे, कुछ पर्दे के पीछे। इसी मंच के पीछे एक नेपथ्य है जहां अकेले जलने का हौसला करने वाले दीयों को बुझा कर फेंक दिया जाता है। धीरे-धीरे वहां उभर आता है, कूड़े का डम्प जिसे कोई स्मार्ट शहर अपना कहने की हिमाकत नहीं करता। 
सबका दर्द भुनाना मुट्ठी भर चुनिंदा कामयाब लोगों का पसन्दीदा खेल बनता जा रहा है। जितना यह दर्द बढ़ेगा उतना ही उस पर टसुवे बहाने का खेल करते हुए युगपति इस खेल के चैम्पियन हो जाएंगे। सत्ता, पहचान और पुरस्कार की पारी दर पारी खेलते जायेंगे। बुढ़ा गये, दम टूटने लगा, तो नई रौशनी या युवा खून आगे लाने के नाम पर इसे अपने वारिसों के हवाले कर देंगे। 
यह खेल रियायती अनाज की दुकानों से अनाज गायब करके, और महामारी के दिनों में ज़रूरी दवाओं का अकाल पैदा करके खेला जा सकता है, या फिर भ्रष्टाचार के विरुद्ध ज़ीरो टालरैंस का ऊंचा नारा लगा कर। चाहे यही नारेबाज़ नेता इन्हीं अपराधों के स्वयं दोषी होकर बाद में कानूनी कटघरे में खड़े नज़र आये, लेकिन ऐसा उनकी सत्ता छिन जाने के बाद ही होता है। इसलिए सुरक्षित यही है, कि सत्ता की चाबी कभी अपने हाथ से खोने न दो, चाहे इसके लिए चुनाव के दिनों में अनुकम्पा घोषणाओं और नकद या लुभावने उपहारों की बारात क्यों न सजानी पड़े।