क्या केन्द्र सरकार के निशाने पर है न्यायपालिका ?


केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम के कामकाज पर सवाल खड़ा किया है। एक पखवाड़े से वह न्यायाधीशों और न्यायपालिका को लेकर टिप्पणी कर रहे हैं और उन पर कार्यपालिका के क्षेत्र में अतिक्रमण करने का आरोप लगा रहे हैं। स्वतंत्र भारत के इतिहास में इससे पहले कभी किसी कानून मंत्री ने न्यायपालिका के खिलाफ  इस तरह से सीधे कभी हमला नहीं किया। रिजिजू को बहुत संभव है, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के एम जोसेफ  और हृषिकेश रॉय की इस टिप्पणी से काफी निराशा हुई होगी कि भ्रष्ट अधिकारी देश की सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा हैं।
एनआईए ने 70 वर्षीय नवलखा को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताया और उनकी ज़मानत की अर्जी का विरोध किया, परन्तु एनआईए की याचिका को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह नागरिक स्वतंत्रता के रक्षक गौतम नवलखा को जेल में नहीं बल्कि ‘हाउस अरेस्ट’ के तहत रखने के पक्षधर हैं। न्यायमूर्ति जोसेफ  ने कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि वह देश को नष्ट करना चाहते हैं। देश को बर्बाद करने वाले लोग, क्या आप चाहते हैं कि मैं बताऊं कि वे कौन हैं? वे जो लोग भ्रष्ट हैं।’ सरकारी कार्यालयों में क्या होता है? भ्रष्टाचारियों के खिलाफ  कार्रवाई कौन कर रहा है? करोड़ों रुपये उगाही किये जाते हैं लेकिन दोषी निकल जाते हैं।’
अतिरिक्त सॉलिसिटर-जनरल एस.वी. राजू ने नवलखा को नज़रबंद रखने के अदालत के सुझाव का विरोध करते हुए तर्क दिया कि अभियुक्त के माओवादियों, कश्मीरी आतंकवादियों और इस्लामिक स्टेट से संबंध थे। न्यायमूर्ति जोसेफ  ने कहा, ‘हम मामले से अवगत हैं। हम सचेत हैं किन्तु हमें सावधानी से चलना होगा। ऐसा नहीं है कि वह देश को तबाह करने वाले हैं। उनकी तबीयत ठीक नहीं है। उन्हें कुछ दिन घर में नज़रबंद रहने दें। आइए, इसे हल करने का प्रयास करें।’
रिजिजू अक्सर न्यायपालिका पर पारदर्शी तरीके से काम नहीं करने का आरोप लगाते रहे हैं। केवल एक पखवाड़े पहले ही रिजिजू ने कहा था कि उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली ‘अपारदर्शी’ है और इसमें राजनेताओं की तुलना में बड़े पैमाने पर ‘गहन राजनीति’ शामिल है। इसका स्पष्ट रूप से तात्पर्य है कि कॉलेजियम को सर्वश्रेष्ठ न्यायाधीशों को चुनने में अपनी बुद्धि का उपयोग नहीं करना चाहिए और कार्यपालिका को ऐसे न्यायाधीशों को नामित करने की अनुमति देनी चाहिए जो उसके अनुरूप हों और उसके आदेशों को पूरा करने के लिए तैयार हों।
न्यायाधीशों की नियुक्ति में गैर-पारदर्शिता पर रिजिजू के बयान पर दिलचस्प प्रतिक्रिया देते हुए, वरिष्ठ भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने रिजिजू को ट्वीट किया, ‘केंद्रीय कानून मंत्री रिजिजू का कहना है कि कॉलेजियम सिस्टम ‘अपारदर्शी’ है। मैं एक पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री के रूप में और सैकड़ों बार अदालतों में बहस कर चुका हूं। मैं कह सकता हूं कि सरकारी सिस्टम कहीं अधिक अपारदर्शी है। रिजिजू पहले उसे ठीक करें।’
भारत के प्रशासनिक या न्यायिक इतिहास में एक कानून मंत्री का खुले तौर पर न्यायपालिका पर हमला अभूतपूर्व कार्य है। रिजिजू ने न्यायपालिका को राष्ट्रहित में लक्ष्मण रेखा पार न करने के जोखिम की भी चेतावनी देने का साहस किया, परन्तु उनका नाम नहीं बताया जिन्होंने  वास्तव में राष्ट्र को नुकसान पहुंचाया। न्यायपालिका के विरुद्ध ऐसी अतिश्योक्ति पर्याप्त नहीं है। ऐसे उच्च पद को धारण करने वाले व्यक्ति को ठोस सबूतों के साथ सामने आना चाहिए। 
मूल रूप से कार्यपालिका और न्यायपालिका लोकतंत्र के दो स्तंभ हैं। किसी भी प्रकार की अतिव्याप्ति नहीं होनी चाहिए। यदि कार्यपालिका का मानना है कि न्यायपालिका संवैधानिक रूप से परिभाषित तरीके से ठीक से काम नहीं कर रही है, तो वह इस मामले को भारत के राष्ट्रपति के समक्ष उठा सकती है। लेकिन न्यायपालिका के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए इसे स्वतंत्र अधिकार क्यों दिया जाना चाहिए? कोई भी प्रणाली बिल्कुल सही नहीं होती है। हर प्रणाली में किसी न किसी तरह की कमी होती है। इसे ठीक करने की नितांत आवश्यकता होता है लेकिन इसे ठीक करने की दलील और सरकार को ‘बेहतर व्यवस्था’ के निर्माण के नाम पर अपने राय को थोपने का मौका नहीं दिया जाना चाहिए। 
न्यायपालिका लोकतंत्र के स्तंभों में से एक है और ज़ाहिरा तौर पर इसकी अपनी स्वतंत्रता है। यह सरकार पर अंकुश रखती है तो सरकार को मंजूर नहीं होता। न्यायपालिका के प्रति रिजिजू की उग्रता को जनविरोधी श्रृंखला के एक हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए। न्यायपालिका पर जजों की नियुक्ति में अपारदर्शिता का आरोप महज इसलिए नहीं लगाया जा सकता कि चार-पांच न्यायाधीश सामूहिक निर्णय लेते हैं। भारत के मुख्य न्यायाधीश अकेले अपने चैंबर में बैठकर फैसला नहीं ले रहे हैं। 
वास्तव में रिजिजू इस बात से दुखी हैं कि अदालत ने बिना वैकल्पिक तंत्र मुहैया कराये कॉलेजियम सिस्टम पर अपनी टेक कायम रखी। सरकार संभवत: उन न्यायाधीशों को नियुक्त करना चाहती थी जो उनके फरमान को सुनने के लिए बहुत उत्सुक और लागू करने के लिए तैयार रहें। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि कॉलेजियम ने न्यायपालिका को अधीनस्थ बनाने के केन्द्र सरकार के प्रयास को विफल कर दिया है। 
वास्तव में केन्द्र सरकार द्वारा प्रस्तावित एनजेएसी न्यायपालिका के कद को कम करती है। यह विडम्बना ही है कि सुप्रीम कोर्ट के सुझाव का इंतजार करने की बजाय रिजिजू ने यह टिप्पणी की है, ‘उन्होंने बेहतर विकल्प नहीं बताया। उन्हें लगता है कि पुरानी कॉलेजियम व्यवस्था जारी रहनी चाहिए लेकिन मैं मौजूदा व्यवस्था से आश्वस्त नहीं हूं।  रिजिजू की ओर से यह कहना बिल्कुल गलत है कि जजों के पास जजों का चयन करने के लिए आवश्यक जानकारी और विशेषज्ञता का अभाव है, जबकि सरकार के पास अधिक संसाधन हैं। (संवाद)