क्रांति की भोथरी आवाज़


देश ने महामारी के संक्रमण से छुटकारा हासिल कर लिया। उसने प्रतिबंध मुक्त होने के बाद जब अपनी आर्थिक टूट-फूट का अंदाज़ा लगाया तो पता चला कि इन बरसों में टूट-फूट तो बहुत हो गई। कहां तो देश स्वत:स्फूर्त्त बन स्वचालित हो कर निरन्तर उड़ान भरने के लिए तत्पर हो रहा था और कहां इन प्रतिबंधों ने इस गर्त्त में गिरा दिया, कि एक बार तो उसकी तरक्की शून्य से भी नीचे ऋणात्मक हो गई। खैर अब उसकी वापसी हो रही है, धीरे-धीरे लंगड़ाते हुए। 
देश के स्वचालित हो जाने का लक्ष्य अभी कोसों दूर है, लेकिन फिलहाल शून्य से उभर कर घनात्मक हो गये, इतना ही काफी है। जी क्या फरमाया आपने, यह काफी नहीं है। लेकिन भूखे को दिलासा और आहत को इस मरहम से एक बात तो साबित होती है कि भई, तरक्की चाहे लंगड़ा-लंगड़ा कर आगे बढ़ रही है, लेकिन इस मंदी, अवसाद और महंगाई के दिनों में तनिक दूसरे बड़े देशों की ओर भी झांक लो। वहां तो तरक्की की गति इससे भी कहीं कम है। अन्धों में काना राजा, और लंगड़ों में थोड़ा तेज़ भाग लेने वाले देश के मसीहा फरमाते हैं, कि धीरज रखो मियां, हमारी तरक्की की गति दुनिया में सबसे तेज़ है। अजी क्या तरक्की, और क्या उसकी गति? बस संतुष्ट हो जाओ, कि इस झंझावात में हमारा मकान तो गिरा, लेकिन पड़ोसी का मकान तो गिर कर मटियामेट हो गया। हम तो फिर भी अपनी धूल झाड़ कर उठने का प्रयास कर रहे हैं, वह तो अभी भी बेसुध धूल धक्कड़ में पड़ा है। 
वाह साहिब, यह अच्छा तर्क मिल गया। बेशक मेरी कमीज़ मैली और फटी पुरानी है, लेकिन पड़ोसियों की कमीज़ तो फिर चिन्दी-चिन्दी हो गई। संतोष देने वाले तर्क की यही गाड़ी आगे चल रही है। देश का गरीब गुरबा बढ़ती महंगाई और न रुकते भ्रष्टाचार से त्राहिमाम कर रहा है। लेकिन बन्धु, आंसु पोंछ लो। तनिक अपने पड़ोसियों को तो देखो जो कल तीस मार खां कहलाते थे, आज उनकी महंगाई दर हमसे कहीं अधिक है। वहां भ्रष्टाचार की भी कुछ न पूछो। हमारे तो मंत्री, संतरी ही इसकी गिरफ्त में आते हैं, वहां तो देश प्रमुखों ने भी अपने हाथ भ्रष्टाचार से काले कर लिये। अब वे देश छोड़ विदेश पलायन कर गये हैं, और वहां से ही रिमोट कंट्रोल से अपने छूटे देश का शासन चलाने की कोशिश कर रहे हैं, अपने पीछे रह गई कठपुतलियों के सहारे। 
बात पलायन की होने लगी। बेशक आजकल अपने देश के बैंक खातों को गच्चा देकर बहुत-से नीरव मोदी देश छोड़ विदेशों में सिर छिपाये बैठे हैं। न्यायालय उनके प्रत्यर्पण की इजाज़त दे भी दे, वे दुहाई देने लगते हैं, कि न जनाबे आली, हमें अपने देश वापस चले जाने का आदेश न दीजिये। हमारी सेहत खराब है और वहां न हमारे योग्य खाने के लिए कुछ है और न रहने के लिए अपेक्षित जलवायु रह गया है और न ढंग से रहने की उचित सुविधा है। उफ! इन्सानियत के नाम पर सुविधा मांगते इन भगौड़ों के घड़ियाली आंसू देखे नहीं जाते  लेकिन उन करोड़ों आहत इन्सानों की सुध कब ली जायेगी, कि जिनकी उम्र भर की गाढ़े पसीने की कमाई लेकर ये महोदय भाग लिये। उनके तो जीने के लिए अब कुछ भी नहीं रह गया सिवा उस गारण्टी के कि अपने देश की सरकार किसी को भूख से नहीं मरने देगी। 
अपने देश में भूख से न मरने देने की गारण्टी मिलती है, परन्तु हर नौजवान को यथोचित रोज़गार प्रदान कर देने की गारण्टी नहीं मिलती। इसके बदले में यह भरोसा अवश्य बांटा जाता है कि चिन्ता न कीजिये, आपमें इतना रियायती अनाज और मुफ्त का लंगर बांट दिया जाएगा कि किसी के मरने की नौबत ही नहीं आयेगी। रियायती अनाज बांटने के भरोसे का यह आदेश भी किस्तों में मिलता है। अभी वर्षान्त तक के भरोसे का संशोधित आदेश मिल गया है। अगले साल क्या होगा, इसे अभी से कैसे बता दें, लेकिन इतना अवश्य है कि अनुकम्पा की रेवड़ियां बांट देने के वायदे करने में कोई राजनीतिक दल भी पीछे नहीं हटना चाहता। जीती रहें, हमारी चुनाव की दुंदुभियां। जैसे ही ये बजती हैं, हमारे मैदान में कूदता हर राजनीतिक दल रेवड़ी संस्कृति के फैलाव को गाली देने के बावजूद नित्य नयी लुभावनी रेवड़ियों के पैकेट ले इस दीन हीन जनता के सामने पेश हो जाता है। इसके दस्तरखान पौन सदी से सूखे हैं, अपनी उपलब्धियों के मिथ्या आंकड़ों का अमृत महोत्सव मना लेने के बावजूद। कभी अपने देश को ‘नौजवानों का देश’ कहा जाता था। आज भी कहा जाता है लेकिन एक संशोधन के साथ कि यह नौजवानों का देश है, लेकिन भूखे और बेकार नौजवानों का। इन नौजवानों के निठल्लेपन को खत्म करने के लिए यहां किसी नयी कार्य संस्कृति की रचना नहीं की जाती, बल्कि एक मुफ्तखोर संस्कृति रची जाती है, जिसका पिष्ट पोषण हर नये चुनाव के चुनावी वायदे करते रहते हैं। 
ये वायदे चाहे कभी पूरे न हों, लेकिन इस देश की बहुसंख्या को नित्य नये अपना केंचुल बदल लेने वाले इन हवाई मीनारों के तले जीना अच्छा लगता है। 
जीना क्या, ऊंघना अच्छा लगता है। एक ही स्थान पर रुके-रुके निरन्तर विकास पथ का यात्री होने का एहसास अच्छा लगता है। क्या हुआ जो उपलबिध्यों के ये मीनार चन्द बड़े लोगों ने हथिया लिये! मत पूछियेगा, अपने मीरे कारवांओं से कि आपने तो अर्थिक एकसुरता और समाजवाद पैदा कर देने का वायदा किया था। गरीब और अमीर का भेट मिटा देने का वायदा किया था लेकिन इस बीच धन कुबेर तो मंज़िल दर मंज़िल बहुमंज़िला इमारत हो गये और आपकी झोंपड़ी गिर गयी। लेकिन यह कोई त्रासदी नहीं। तनिक अड़ोस-पड़ोस के देशों की ओर तो झांक लो, वहां तो गरीब और अमीर का भेद और भी अधिक हो गया है। लेकिन फिर भी तुम हमें क्रांतिकार नहीं मानते।