फार्मेसी हब के रूप में तेज़ी से उभर रहा है भारत


भारत में कुछ ही विनिर्माण उद्योग ऐसे हैं जिसने पिछले चार दशकों में दवा उद्योग की तरह लगातार अच्छा प्रदर्शन किया है। भारतीय दवा उद्योग का वर्तमान में उत्पादन की मात्रा के हिसाब से दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा स्थान है। घरेलू खपत और निर्यात बढ़ने से उत्पादन तेजी से बढ़ रहा है। उद्योग पिछले नौ वर्षों में 9.43 प्रतिशत की सीएजीआर से बढ़ रहा है। जेनेरिक दवाएं, ओवर-द-काउंटर (ओटीसी) दवाएं, थोक दवाएं, टीके, अनुबंध अनुसंधान और निर्माण, बायोसिमिलर और बायोलॉजिक्स उद्योग के कुछ प्रमुख खंड हैं। भारत में सबसे अधिक फार्मास्युटिकल निर्माण सुविधाएं भी हैं जो यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (यूएसएफडीए) के अनुरूप हैं।
1970 के दशक में लगभग 30 विदेशी नियंत्रित दवा निर्माताओं और आयातकों से भारतीय दवा निर्माताओं को भारी प्रतिस्पर्धा करते हुए व्यापार में पैर जमाने के लिए संघर्ष किया करना पड़ा था। ज्यादातर मुम्बई में स्थित उन विदेशी दवा कम्पनियों ने देश के छोटे दवा बाज़ार को जकड़ लिया था। भारत में दवाओं और फार्मास्युटिकल्स की वार्षिक खपत 600 करोड़ रुपये से कम थी। हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में सरकार द्वारा निर्णायक कार्रवाइयों की एक श्रृंखला की मेरहबानी से 1970 के दशक के मध्य से स्थिति घरेलू दवा निर्माताओं के पक्ष में तेजी से बदल गयी। उद्योग को केंद्र की एक के बाद एक सरकारों से समर्थन मिला है। पिछले साल, देश का फार्मास्युटिकल उत्पादन लगभग 1,92,000 करोड़ रुपये से अधिक का था।
हाथी समिति की रिपोर्ट, औद्योगिक लागत और मूल्य ब्यूरो (बीआईसीपी) द्वारा देश में सक्रिय विदेशी फार्मा फर्मों द्वारा मूल्य निर्धारण की गड़बड़ी की जांच, सरकार द्वारा ‘आवश्यक दवाओं’ की सूची और उनकी कीमतों को नियंत्रित करना, 1973 का विदेशी मुद्रा विनियम अधिनियम (फेरा), और 1970 और 1980 के दशक में फार्मास्युटिकल्स परियोजनाओं में घरेलू निवेशकों को प्रोत्साहन ने आने वाले दशकों में भारत के दवा उद्योग की रूपरेखा को बदल दिया।
भारत का दवा निर्माण नेटवर्क और इसका उत्पादन पोर्टफोलियो इतना मजबूत है कि फाइज़र, बायर, मर्क, एस्ट्राजेनेका और जीएसके जैसी वैश्विक दवा कम्पनियां स्थिति का लाभ उठाने के लिए देश के कुछ प्रमुख दवा उत्पादकों के साथ संयुक्त उद्यम में चले गये हैं। ये संयुक्त उद्यम बड़े पैमाने पर घरेलू बाज़ार को लक्षित करते हैं और निर्यात भी करते हैं। उद्योग विशेषज्ञ बताते हैं कि उन्नत दवा बनाने के बुनियादी ढांचे का अद्वितीय मिश्रण, एक उभरते बाज़ार के रूप में इसकी स्थिति और विकास क्षमता को और मज़बूत करते हैं जिसके कारण विश्व की कम्पनियां इस बाज़ार तक जल्द से जल्द पहुंचने में रुचि रखते हैं। भारतीय इतनी दवाओं का सेवन कर रहे हैं जितना कि पहले कभी नहीं किया था। अगले पांच वर्षों में देश की दवा की खपत नौ से 12 प्रतिशत बढ़ने का अनुमान है। इससे भारत दवा खर्च के मामले में दुनिया के शीर्ष 10 देशों में शामिल हो जायेगा। निर्माता तेज़ी से अपने उत्पाद पोर्टफोलियो को कार्डियोवैस्कुलर, एंटी-डायबिटीज, एंटीड्रिप्रेसेंट्स और कैंसर जैसी बीमारियों की ओर झुका रहे हैं, जो बदलती जीवनशैली और बढ़ते तनाव के साथ बढ़ रहे हैं।
आज देश का दवा उद्योग मात्रा के हिसाब से दुनिया का सबसे बड़ा जेनेरिक दवा प्रदाता है और दवाओं का दुनिया का सातवां सबसे बड़ा निर्यातक है। 1973 में बल्क ड्रग मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र में भारत का कुल टर्नओवर केवल 75 करोड़ रुपये था और ड्रग फॉर्मूलेशन मात्र 370 करोड़ रुपये का था।
भारतीय अर्थिक सर्वे-2021 ने अगले दशक में घरेलू दवा बाज़ार में 300 प्रतिशत की वृद्धि का अनुमान लगाया था। बाज़ार के 2024 तक 65 बिलियन अमरीकी डॉलर तक पहुंचने और 2030 तक 120-130 बिलियन अमरीकी डॉलर तक पहुंचने की संभावना है। देश के जैव प्रौद्योगिकी उद्योग में बायोफार्मास्युटिकल्स, जैव-सेवाएं, जैव-कृषि, जैव-उद्योग और जैव सूचना विज्ञान शामिल हैं। 2020 में भारतीय जैव प्रौद्योगिकी उद्योग का मूल्य 70.2 बिलियन अमरीकी डॉलर था और 2025 तक इसके 150 बिलियन अमरीकी डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है। वित्त वर्ष 20 में भारत का चिकित्सा उपकरणों का बाज़ार 10.36 बिलियन अमरीकी डॉलर का था। 2025 में 50 बिलियन अमरीकी डॉलर तक पहुंचने के लिए बाज़ार के 37 प्रतिशत सीएजीआर से बढ़ने की उम्मीद है। अगस्त 2021 तक केयर रेटिंग्स ने उम्मीद की थी कि भारत का फार्मास्युटिकल व्यवसाय अगले दो वर्षों में 11 प्रतिशत की वार्षिक दर से विकसित होगा।
दुनिया की वास्तव में विश्वसनीय फार्मेसी बनने के लिए भारत को सक्रिय दवा सामग्री (एपीआई) की आपूर्ति के लिए चीन पर अपनी निर्भरता को काफी हद तक कम करने की आवश्यकता है। 
हाल ही में भारत ने दवा और चिकित्सा उपकरणों के चीनी निर्यात पर देश की निर्भरता को काफी हद तक कम करने के लिए उत्पादन से जुड़ी तीन प्रोत्साहन पीएलआई योजनाएं जारी की हैं। योजना के क्रियान्वयन के बाद से, 53 एपीआई में से 35 के उत्पादन में मदद करने के लिए 55 विभिन्न फर्मों को 2 बिलियन डॉलर की धनराशि वितरित की गयी है, जिन पर भारत की आयात निर्भरता काफी अधिक है। भारत को भारी प्रदूषक एपीआई शोधन प्रक्रियाओं को नियंत्रित करने के लिए भी कदम उठाने की ज़रूरत है।
भारतीय उद्योग को एपीआई और प्रमुख शुरुआती सामग्री (केएसएम) के उत्पादन का विस्तार करने के लिए तेजी से कार्य करना चाहिए। एपीआई पर आत्मनिर्भरता भारत को वैश्विक मूल्य श्रृंखला के हर जंक्शन पर सस्ती, उच्च गुणवत्ता वाली दवाओं का उत्पादन करने वाली दुनिया की फार्मेसी बनने के अपने प्रयास को साकार करने में मदद करेगी। यह 2030 तक बाजार के आकार को दोगुना करके घरेलू बाजार और निर्यात दोनों का विस्तार करने में मदद करेगा। (संवाद)