एक लज्जित क्रांति का एहसास

 

कुछ बातें हमें समझ नहीं आती हैं। एक दिन उनकी घोषणाएं सुन कर या विज्ञप्तियां पढ़ कर चेहरे पर जो मुस्कान उभर आती है, उसे दूसरे ही दिन लुप्त होते देर नहीं लगती। लगता है हर दिन हर बहाने या उत्सव मनाने के जो उपक्रम होते रहते हैं, वह इसी खोई हुई मुस्कान को तलाश करने के वे बहाने हैं, जो बताते हैं कि हम जी नहीं रहे, बस विजयी हो जाने का बहाना कर रहे हैं। 
वे हमें कह देते हैं, ‘प्यारे आप उस देश में जीते हैं, जो देखते ही देखते विश्व की पांचवीं महाशक्ति बन गया, और तरक्की का यही आलम रहा तो उसे विश्व की तीसरी महाशक्ति बनते भी देर नहीं लगेगी।’ जिन गोरों की हमने डेढ़ सदी गुलामी की, आज वह आर्थिक रूप से हमसे पिछड़ गये। वह दिन दूर नहीं, जब हम तरक्की के लिहाज़ से अमरीका और चीन के साथ अपना कन्धा भिड़ा कर चिल्लाएंगे, ‘इस हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ए दुनिना वालो हिन्दुस्तान हमारा है।’ जी हां, हिन्दुस्तान तो हमारा है ही। जब सदियों गुलाम थे तब भी यह हमारा था, और आज जब दुनिया की महाशक्तियां बड़े फैसलों के लिए हमारी बाट जोहती हैं, तब भी यह हमारा है।  लेकिन इस हिमालय से नीचे झांक कर कोई क्यों नहीं देखता? क्या कारण है कि प्रासद महामारियों के इस विकट समय में भी धन कुबेरों की बहुमंज़िली इमारतें आकाश छूते हुए भी अपनी फुनगियों से बढ़ती हुई गरीबी की चितालियां बरसा रही हैं। देश एक खुशनुमा बहाने से दूसरा बहाना जीता रहता है। देश में बेकारों की संख्या लगातार बढ़ जाती है, तो भी रियायती गेहूं का कोई उदार बंटवारा धीरज नहीं बंधा पाता। आजकल पुराने मुहाविरे फिर ज़िन्दा होने लगते हैं। भारत एक अमीर देश है, जिसमें गरीब बसते हैं। गरीब भी ऐसे कि जिन्हें उद्यम और श्रम की कोई प्रेरणा कहीं से नहीं मिलती। मिलता है तो बस बढ़ता मुफ्तखोरी का संदेश, जो हमारे शहर के चौराहों से विस्तार पाकर अन्तर्राष्ट्रीय चौराहों तक फैल गया है। 
देखो, देश दो हिस्सों में बंट गया। एक छोटा-सा देश धन कुबेरों का देश है, और दूसरा निरन्तर बड़ा होता हुआ असंख्य गरीबों का देश है। इसकी भुखमरी की दास्तानें मिथ्या आंकड़ों के आडम्बर में छिपा दी जाती हैं। वर्तमान को नकार कर अतीत की शरण में जाता हुआ यह देश। इसके भाग्य नियन्ता कहते हैं जो आपने आज तक पढ़ा, वह गुलामी की मानसिकता से निकला हुआ इतिहास था। आओ, तुम्हें अब अपनी असली गौरवगाथाएं पढ़ायें। ये गाथाएं राजधानी दिल्ली केन्द्रित गाथाएं नहीं हैं। ये गाथाएं उभरेंगी देश के पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण से। उभरती हुई ये गाथाएं हैं, जिन्होंने देश को आज़ादी की सांस देने के लिए रणबांकुरों के उस विलुप्त इतिहास को जन्म दिया, कि जिसकी गाथा कहने के लिए कोई कलम नहीं उठी थी। 
बेशक उस इतिहास को प्रकाश में लाने की, सांस्कृतिक गौरव का जीवनदान देने की ज़रूरत थी, लेकिन महानगरों से लेकर छोटे शहरों और छोटे शहरों से लेकर ग्रामीण अंचलो तक परित्यक्त करोड़ों टूटे सपनों की दास्तान कौन लिखेगा? इन्होंने इस देश के महान लोकतंत्र का सिर नवाते हुए सत्रह बार अपनी मत शक्ति का प्रयेग किया। लेकिन हर बार यथास्थितिवाद के रोग का शिकार हो गये, या वृत्ताकार घूमते हुए वहीं आकर खड़े हो गये, जहां से उनकी यात्रा शुरू हुई थी। राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत होकर आपने अपनी आज़ादी का अमृत महोत्सव तो मना लिया, लेकिन उत्सवधर्मी होते हुए भी यह ध्वनि ही क्यों सुनाई देती रही कि इस प्रजातांत्रिक समाजवादी व्यवस्था बना देने का इरादा रखने वाले महान देश में गरीब और फटीचर हो गये हैं, और अमीर और धनकुबेर। क्यों देश अमृत महोत्सव से आज़ादी का शतकीय सम्मेलन मना लेने का वायदा करते हुए देश को आखिर एक विकसित राष्ट्र बना देने का लक्ष्य प्राप्त की घोषणा करते हुए भी क्यों यह कहता है कि अब देश अपने बुनियादी ढांचे का निर्माण करेगा। 
ऐसी घोषणाओं से पैदा होते सवालों के जवाब नहीं मिलते। अगर देश ने बुनियादी ढांचे का निर्माण अब करना है, तो इस पौन सदी में हम क्या करते रहे? क्या केवल देश के नवनिर्माण की घोषणाएं या कि उन सड़कों और पुलों का निर्माण, कि जिनका पूरा हो जाना उनके भाग्य में नहीं रहता। पूरे हो भी जाएं, तो इतनी घटिया निर्माण शक्ति के साथ कि कब वे पूरे हुए और कब पुन: टूट गये, कुछ खबर नहीं आती। यही नहीं जनाब कुछ सड़कें और पुल केवल कागज़ों और नक्शों में मिलते हैं। इन्हें तलाश करने जाओ, तो इनका नामोनिशान भी कहीं नहीं मिलता। शायद यह निर्माण निर्माता ठेकेदारों के टैंडरों और सम्बधित अधिकारियों के पूर्णता के प्रमाण-पत्रों के बीच कहीं गायब हो गया।  गायब तो इस बीच और भी बहुत कुछ हो गया। इस कथित युवा देश का यौवन निठल्ली झुर्रियों में गायब हो गया। इन्हें खैरात संस्कति ने दया-धर्म     का उपदेश देकर और भी गहरा कर दिया। उधर देश के द़ागी नेता हर चुनावी बिगुल के साथ अपने नेतृत्व में क्रांति ध्वज बुलन्द करने लगते हैं, और असल क्रांति कांखती, कराहती हुई लज्जित पराजित अपने नवजन्म की भीख मांगती रहती है।