बजट-2023 : मुश्किल होगा मध्यम और निम्न वर्ग को एक साथ खुश करना

 

पिछले पांच साल से विकास दर की शिथिलता और दो साल कोविड से पीड़ित रहने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था फिलवक्त भले तेज़ी से आगे बढ़ रही हो, लेकिन वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण के लिए आगामी बजट के समक्ष कई विरोधाभासी परिस्थितियां मौजूद हैं। इनमें संतुलन साधना आसान नहीं होगा। एक तरफ  भारत के तेजी से बढ़ रहे विशाल मध्यम वर्ग के सपने कुलांचे भर रहे हैं, तो दूसरी तरफ  देश के बहुसंख्यक निम्न वर्ग की हालत दिनोंदिन दयनीय होती जा रही है। कुछ दिनों पहले वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक कार्यक्रम में आगामी बजट के हवाले से कहा था कि वह स्वयं मध्यम वर्ग से ताल्लुक रखती हैं, इसलिए उन्हें इस वर्ग के हितों का भरपूर ख्याल है। वित्त मंत्री के इस बयान से भारतीय मध्यम वर्ग की विशाल आबादी की बांछें खिल गयी। इससे इस वर्ग ने यह अनुमान लगा लिया कि आगामी बजट में मध्यम वर्ग के अरमानों को नये पंख लगेंगे। लेकिन वित्त मंत्री ने इस बाबत कोई नया अनुमान पेश करने के बजाये निवर्तमान उपायों का ही मुख्य रूप से उल्लेख किया। जैसे पांच लाख रुपये तक की आमदनी को आयकर मुक्त रखा जाना, देश में शहरीकरण खासकर 100 स्मार्ट शहरों के विकास, देश के 27 शहरों में मेट्रो नेटवर्क संस्थापन के जरिये सार्वजनिक परिवहन की संरचना विकसित करना आदि।
मध्यम वर्ग सत्तारूढ़ भाजपा का पुराना समर्थक वर्ग है और इस चुनावी साल में वित्त मंत्री से काफी अपेक्षा लगाए हुए है। देश की विशाल किसान आबादी, जो मूलत: गांवों में रहती है और जिसके लिए खेती उसकी आमदनी का मुख्य ज़रिया है, वह भी भारत के तेज़ी से उभरते मध्यम वर्ग का हिस्सा है। यह ग्रामीण मध्यम वर्ग मोदी सरकार के उस वादे पर टिकटकी लगाये हुए है, जिसमें वर्ष 2017 में कहा गया था कि अगले पांच सालों के भीतर किसानों की आमदनी दोगुनी हो जायेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हालांकि इस दौरान खेती की विकास दर में कोई नुकसान भी नहीं हुआ, इसके बावजूद किसानों की आमदनी दोगुनी होने का यह लक्ष्य दूर-दूर तक प्राप्त होता नहीं दिखा। मोदी सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य में यथोचित बढ़ोत्तरी किसानों की आमदनी दोगुनी करने के लिए पर्याप्त नहीं हो पायी। इस बीच मोदी सरकार द्वारा तीन नये कृषि कानूनों को लाने के एवज में किसानों द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी स्वरूप देने की मांग नहीं मांगे जाने से कृषि क्षेत्र में उहापोह की स्थिति बनी रही। 
इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि देश की 80 करोड़ निर्धन आबादी जिसका करीब 75 फीसदी हिस्सा गांवों में रहता है, उसके लिए अब एक साल और मुफ्त अनाज देने की घोषणा देश के मध्यवर्गीय किसानों को मुक्त खाद्य बाज़ार से मिलने वाले फायदे से वंचित कर रही है तो दूसरी तरफ  यह गैर-सरकारी एजेंसियों को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषि उत्पाद खरीदने से भी रोक रही हैं। आगामी बजट के आइने में विरोधाभास की सबसे बड़ी तस्वीर वित्त मंत्री के लिए जो दिख रही है, वह है भारत में असमानता की बढ़ रही खाई, जो विगत में भी थी, पर अब वह और गहरी होती जा रही है। ऑक्सफैम की हाल में आई रिपोर्ट में यह कहा गया है कि भारत की उच्च 10  फीसदी आबादी का देश की 77 फीसदी सम्पत्ति पर कब्जा है। इसी तरह वर्ष 2017 में देश की महज एक फीसदी आबादी के पास देश की 73 फीसदी सम्पति है जबकि देश की 67 फीसदी आबादी की आय में महज एक फीसदी का इजाफा हुआ। देश में खरबपतियों की बात करें तो वर्ष 2000 में इनकी संख्या  महज 9  थी। वर्ष 2020  में यह संख्या 119  हो गई। वर्ष 2018  से 2022  के बीच  देश में औसतन 70 करोड़पति रोज़ बन रहे हैं। गौरतलब है कि भारत में हर अरबपति एक दशक में अपनी सम्पत्ति दस गुना बढ़ा रहा है। लेकिन सबसे चिंताजनक तथ्य यह है कि भारत का एक औसत कामगार यदि एक वस्त्र उद्योग में कार्यरत एक हाई सैलरीड एग्ज़ीक्यूटिव के बराबर आमदनी प्राप्त करना चाहता है तो इसके लिए उसे 941 साल लग जाएंगे।
यह ठीक है कि भारत में मुक्त बाजार  व उद्यमशीलता का अनुकूल वातावरण यदि  बिना किसी अनियमितता के  भारत में खरबपतियों की संख्या में इजाफा कर रहा है तो वह हमारी अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी खबर ही मानी जाएगी। पर देश के बहुसंख्यक कामगार, निर्धन और देहाती आबादी की आमदनी व दौलत में पर्याप्त बढ़ोत्तरी नहीं होना बेहद चिंता की बात है। ये परिस्थितियां वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण को आगामी बजट में राजकोषीय नीतियों व बजट प्रोत्साहनों में बिल्कुल नये तरह के समायोजन लाने की चुनौती प्रदान कर रही हैं। इसके तहत उच्च वर्ग को व्यापक रूप से गैर-लाभकारी क्षेत्रों जैसे—शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई, पर्यावरण संरक्षण तथा सामाजिक सुरक्षा के लिए निवेश को प्रोत्साहित करे या इन मदों के लिए सरकारी कोष में इनके अनुदान को बाध्यकारी बनाये। दूसरा, यह चुनौती  देश के गरीब व निर्धन वर्ग के लिए लोकलुभावन व सब्सिडी जनित उपायों में निवेश करने के बजाय देश की सभी कामगार आबादी को उत्पादक रोज़गार की गारंटी प्रदान करने की नयी योजना की मांग वित्त मंत्री से आगामी बजट में कर रही है, क्योंकि इस मामले में सभी अर्थचिंतक एकमत हैं कि समुचित रोज़गार प्रदान करने से बड़ा गरीबी निवारण का और कोई अस्त्र नहीं है। दूसरी तरफ देश में असमानता को खत्म करने के लिए एक समान शिक्षा, स्वास्थ्य, श्रम और रोज़गार कानून तथा एक समान सामाजिक सुरक्षा की उपलब्धता से बड़ा कोई शस्त्र नहीं, क्योंकि जन्म के आधार पर या पुश्तैनी सम्पत्ति के आधार पर आर्थिक असमानता में कमी करना सरकारों के हाथ में नहीं है। असमान शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार व श्रम परिस्थितियां व कल्याण तथा सामाजिक सुरक्षा की नीतियों व परिस्थितियों  से जो देश में असमानता पैदा हो रही है, उन्हें ठीक करना सरकार के हाथ में अवश्य है।
उपरोक्त पांच क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें सरकार एक समान व एक समग्र नीति के तहत देश की निर्धन आबादी को एक ऐसा अवसर प्रदान कर सकती है, जिससे व्यवस्था जनित असमानता पर नकेल कसी जा सके।
अभी देश में बुनियादी क्षेत्र का सुदृढ़ व सुदीर्घ रोडमैप तथा मुद्रास्फीति का नियंत्रित स्वरूप तथा रियल इस्टेट उद्योग का पुनरउभार, ये ऐसे कुछ आशावादी कारक हैं जिनके ज़रिये वित्त मंत्री आगामी बजट को निवेशोन्मुखी, उत्पादोन्मुखी और रोजगारोन्मुखी बनाने का स्वरूप ज़रूर अख्तियार कर सकती हैं, लेकिन सरकार के लिए सबसे बड़ा सवाल मौजूदा साल में होने वाले 9 राज्यों के विधानसभा चुनाव और अगले साल महा लोकसभा चुनाव है, जिसे वह अपने ध्यान से विलग रखना कतई नहीं चाहेगी।
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