घृणित माहौल के सृजक


साम्प्रदायिक दंगे देश के लिए एक ऐसा बड़ा कलंक हैं, जिन्हें समय के व्यतीत होने के साथ मिटाया नहीं जा सका। आज़ादी से पहले का यह सिलसिला आज भी जारी है। अंग्रेज़ों के सौ वर्ष के शासन के दौरान यह प्रभाव भी परिपक्व होता रहा है कि उस समय के शासक अलग-अलग धार्मिक विश्वासों वाले लोगों में फूट डालने के लिए अपनी दोगली नीति को इसलिए उत्साहित करते रहे ताकि लोग इकट्ठे न हो सकें। उनकी पूरी शक्ति आपसी झगड़ों में ही खपत होती रहे तथा लोग शासकों को किसी तरह भी चुनौती देने के योग्य न हो सकें। इस लम्बी अवधि के दौरान जब कभी भी अलग-अलग समुदायों का आपसी मेल-मिलाप हो जाता था तो वह आज़ादी के लिए संघर्ष में इकट्ठे होकर मैदान में उतरते थे जोकि विदेशी शासकों के लिए चिन्ताजनक समय हो जाता था।
उस समय ज्यादातर चलीं आज़ादी की लहरों में अक्सर सभी अ़कीदों के लोग एकजुट हो जाते थे। कांग्रेस के असहयोग आन्दोलन में भी ऐसा कुछ ही देखने को मिला था। बंगाल तथा पंजाब के क्रांतिकारियों में भी जाति-बिरादरी एवं धर्म को लेकर किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं था। वह अक्सर सांझे रूप में ऐसे संघर्ष करते रहे परन्तु शातिर फिरंगियों ने अपनी ऐसी चालें बंद न कीं तथा अंत में वह इसमें काफी सीमा तक सफल भी हो गए। यदि हर तरह के संघर्ष के दबाव में, उन्होंने सीमित स्तर पर चुनाव करवाने की योजना भी बनाई तो अलग-अलग धार्मिक समुदायों को आधार बना कर उनके लिए अलग-अलग वोट डालने के प्रबन्ध करके उनके साम्प्रदायिक रंग को और भी गहरा कर दिया। उनकी इस चाल की लम्बी कहानी है। यह उन पर एक बड़ा द़ाग भी था। यदि विवशतापूर्ण अंग्रेज़ों को देश छोड़ना भी पड़ा तो उन्होंने इस धरती में गहरी रेखाएं खींच कर अलग दो देश बनाने की घोषणा कर दी। देश के गणतंत्र बनने के बाद तथा लिखित संविधान में सभी को एक समान अधिकार दिए जाने पर यह उम्मीद ज़रूर की जाने लगी थी कि समुदायों में आपसी ऩफरत खत्म हो जाएगी तथा एक सांझ के अहसास के साथ देश आगे बढ़ेगा परन्तु क्रियात्मक रूप में ऐसा नहीं हो सका। पिछले कई दशकों में न सिर्फ जाति-बिरादरियां अपनी पहचान में परिपक्व हुई हैं, अपितु धर्म के नाम बड़ी दरारें भी डाली गई हैं, जिस कारण समूचे रूप में देश का माहौल पूरी तरह खराब तथा दूषित हो गया। आज भी ऐसा ही प्रचलन जारी है। धार्मिक दिवस-त्यौहारों पर ऐसे झगड़े और भी बढ़ जाते हैं।
पिछले दिनों राम नवमी के अवसर पर महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल तथा गुजरात में अनेक स्थानों पर हुई हिंसा इसका प्रमाण है, जिसमें भीड़ ने एक-दूसरे पर पथराव किये, दुकानों की तोड़-फोड़ की, पैट्रोल बम फैंके तथा वाहनों को आग लगाई तथा पुलिस कर्मचारी एवं लोग भी घायल हो गए। ऐसा घटनाक्रम अनेक स्थानों पर घटित हुआ। अलग-अलग समुदायों का आपस में इस तरह भिड़ जाना बेहद शर्मनाक घटना है?  ऐसा घटनाक्रम किस प्रकार के घृणित माहौल को जन्म देता है जिसकी तपिश लम्बी अवधि तक बनी रहती है। चाहे ये समुदाय एक-दूसरे पर ऐसे हिंसा के आरोप लगाते हैं परन्तु हम इसे संबंधित सरकारों की नालायकी तथा प्रशासन की नाकामी समझते हैं। नि:सन्देह ऐसे साम्प्रदायिक दंगों को रोकने के लिए जहां सख्त कानून बनना चाहिए वहीं प्रशासन को हर स्थिति में अपनी ज़िम्मेदारी भी समझनी चाहिए। लगातार तथा बार-बार ऐसा कुछ घटित होने के बावजूद भी अब तक संबंधित प्रशासनों द्वारा ऐसी भड़काहट को रोकने की कोई  उचित योजनाबंदी नहीं की गई। क्या ऐसी सड़कों तथा रास्तों से जुलूस तथा निकाली जाने वाली यात्राओं को रोक कर ऐसे रास्तों से नहीं निकाला जा सकता जो नाज़ुक न हों परन्तु जब प्रशासन नाकाम हो जाते हैं तभी ऐसा कुछ घिनौना घटित होता है। राजनीतिज्ञों को देश के इन बड़े हितों को मुख्य रखते हुए जहां ऐसे घटनाक्रम के प्रति कड़े कदम उठाने होंगे वहीं कोई ऐसे पुख्ता कानून बनाए जाने ज़रूरी हैं जो ऐसी साम्प्रदायिक हिंसक भीड़ के लिए क्रियात्मक रूप में सख्त साबित हो सकें। 

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द