चापलूस चालीसा

 

छोटे-मोटे पुरस्कार पाकर उनका मन अब ऊब सा गया है। निराशा के सागर में डूब सा गया है। अब कितने शॉल श्रीफल लें। जो भी आयोजन होता है, आधा से अधिक खर्च अपना होता है। कार्यक्रम में शिरकत करने जो दो-चार साहित्यकार आते हैं, रचनाओं पर जमकर गाल बजाते हैं और शॉल ओढ़ा, श्रीफल थमा कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा होते ही जमकर नाश्ता करते हैं और ‘फिर बुलाइएगा’ कहकर निकल जाते हैं। जो दूर से आए रचनाकारों या साहित्यकारों को दोनों तरफ का भाड़ा और मानदेय में के रूप में कुछ नगाड़ा के चोट पर मानदेय मांगते हैं। अपने से जितना बनता है श्रीमान महोदय को थमाते हैं। तब जाकर पिंड छूटता है।
आज हमारे शहर के बीच से जहमतलाल की गिनती आकलन के आधार पर अच्छे साहित्यकारों में होने लगी है। जब से सुनें हैं इनके पांव जमीन पर नहीं शायद कहीं और पड़ रहे हैं। इसलिए पहले सिमटे हुए थे। अब इनकी रचनाएं पुरस्कृत होने लगी हैं। जब-तब साहित्यकारों का इनसे मिलना-जुलना भी बढ़ सा गया है। शहर के कवि साहित्यकार चापलूसी लाल, खामोशी प्रसाद, जहूरन, महूरन, खैराती प्रसाद को बुलाकर गोष्ठी कराते रहते हैं। बीच-बीच में बढ़िया भोजन खिलाया-पिलाया करते हैं।
जहमतलाल का साहित्य संसार कहीं से भी डुप्लीकेट नहीं ओरीजनल है। इनकी रचनाएं बुलंद है, उसमें बल है। यहां पर तो ऐसे-तैसे लेखकों, कवि गीतकार अधिकांश लवार हो गए हैं जो बढ़िया नगद नारायण वाला पुरस्कार पाने के लिए एक पक्ष को खुश करने के लिए दूसरे पक्ष पर ऐसा शर्मनाक तोहमत लगाते हैं कि क्या कहने? दूसरे पर तोहमत लगाने से पहले इनको अपने आप का मूल्यांकन करना चाहिए कि मुझ पर चोरी का आरोप लगा है कि नहीं। कोई-कोई तो किसी साहित्यकार को नंबरी गीत चोर, कविता चोर तक कह देते हैं।
 इस तरह के गंदे व्यक्तव्य मंच से खासकर वही साहित्यकार देते हैं जिनके पीछे लम्बा बांस है। ये जुमला सबके लिए खास है। आज साहित्यकार सरकार की खामियों को उजागर करने के बजाय दुम हिलाने का कार्य कर रहे हैं और पुरस्कारों से अपनी झोली भर रहे हैं। जो जिस पार्टी से जुड़ा है वह अपने आका के लिए दूसरे का चक्का जाम करने के पीछे पड़ गया है। पुरस्कार की राह में जब रोड़ा आता है, अपने वक्तव्य का कोड़ा बरसाकर अपनी उम्मीद को बरकरार रखता है। तब उसे आशा नहीं उम्मीद बंधती है कि अगली बार पद्मश्री नहीं तो कदम श्री मिलना तय हो गया है।
 अभी दो साल पहले के कोरोना काल की घटनाओं का जिक्र करें तो उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि जिसने कोरोना काल में बेहाल जनता, जो आहत थी उसे राहत दिलाने के लिए एक शख्स निकलता है दुनिया जानती है उसे लोहा मानती है। जबकि मंदिर में कैद थे भगवान। तब वह जनता के दर्द निवारण करने अपने मित्रों के साथ निकला, जान की परवाह किए वगैर दिखा वही इंसान। जो पुरस्कार का असली हकदार। उस नाम को करके किनार, पुरस्कार उसे थमाया गया जो आगे-पीछे दुम हिलाया यार। लोग कर रहे थे उसके नाम की वंदना और पुरस्कार गया किसी दूसरे साहित्यकार के अंगना। नाम था शायद उसका कुछ....
इसी हमाम में अभी-अभी एक ताजा तरीन भोपाल की घटना, जो एक साहब बहादुर पुरस्कार पाने की होड़ में मां-बेटा की आत्मा को छलनी करके आए हैं। मंच पर खूब दुम हिलाए हैं। अब इनको इस बार पद्मश्री नहीं तो कदम श्री मिलना तय है।
इसलिए वर्तमान में अभी के चल रहे काल को फिलहाल बेहूदा काल या चापलूस काल कह सकते हैं। इसमें दुम हिलाने की महत्ता पर, अलबत्ता तरक्की पाने का गुण छिपा है। दुम हिलाइए विरोधियों को पछाड़ और पुरस्कार ले जाइए। इसलिए इस काल को चापलूसी काल कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी या होनी चाहिए।
काश! इस कला को मुझे किसी ने सिखाया होता। आज पुरस्कार में शॉल और श्रीफल पर सब्र करना पड़ता है। उसकी जगह श्री लगा या भूषण से सुसज्जित पुरस्कार मिल रहा होता। लेकिन अब क्या होगा पछताकर, झूठ-मूठ अपना दिमाग लगाकर। इस पर सोचना ही बेकार है।
 लेकिन आगे आने वाली पीढ़ी को सफलता की सीढ़ी पर पांव रखने के लिए ज्ञान के पाठ के साथ चापलूस चालीसा का पाठ पढ़ना अति आवश्यक है। क्योंकि आगे बढ़ने, मुश्किल डगर पर चढ़ने के लिए यह उत्तम उपाय है।

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