केन्द्र द्वारा क्षेत्रीय भाषाओं को उत्साहित करना प्रशंसनीय प्रयास

भारतीय संविधान की 8वीं अनुसूची में इस समय नेपाली सहित 22 भाषाओं को मान्यता मिली हुई है। शुरू में संविधान में पंजाबी सहित 14 भाषाओं को शामिल किया गया था। परन्तु 1967 में सिंधी, 1992 में कोंकणी, मणिपुरी और नेपाली  तथा 2004 में बोडो, डोगरी, मैथली तथा संथाली भाषाएं भी शामिल कर ली गईं। परन्तु उल्लेखनीय है कि 8वीं सूची से संबंधित अनुछेद (भाग) 351 यह व्यवस्था करता है कि संघ (अब केन्द्र) का फज़र् होगा कि वह हिन्दी के प्रसार एवं विकास को उत्साहित करे परन्तु यह भी कहा गया कि यह सब कुछ भारत की अन्य भाषाओं में इस्तेमाल किये गए प्रारूपों, शैली तथा समीकरणों को अपनी प्रतिभा में हस्तक्षेप किए बिना तथा इसकी शब्दावली के लिए मुख्य तौर पर सांस्कृति तथा दूसरे प्रारूप में जहां आवश्यक हो, ड्राइंग द्वारा संशोधित किया जाए। स्पष्ट प्रतीत होता है कि संविधान की 8वीं अनुसूची हिन्दी के प्रगतिशील इस्तेमाल को उत्साहित करने के लिए ही है।   
इसलिए केन्द्र की लगभग सभी सराकारें चाहे वे किसी भी पार्टी की रही हों, हिन्दी के प्रसार के लिए कार्य करती रही हैं, परन्तु दक्षिण भारतीय राज्यों बंगाल, असम तथा कुछ पूर्वी राज्यों ने तो फिर भी हिन्दी को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया, जितना यह पंजाब पर हावी हो गई। हालांकि इनमें से अधिकतर भाषाओं के पास अपनी लिपि भी नहीं और वे हिन्दी तथा संस्कृत के लिए इस्तेमाल की जाती लिपि देवनागरी पर ही निर्भर हैं। परन्तु पंजाबी जिसके पास अपनी शानदार गुरमुखी लिपि भी है, हिन्दी से मात खा रही है। पंजाब में पंजाबी के प्रति लगाव कम ही नज़र आता है। पंजाबियों में पंजाब के लिए जुनून तो जैसे गायब ही हो गया है। इस समय पंजाबी की हालत दुष्यंत कुमार के इन शे’अरों जैसी प्रतीत होती है। 
फिसले जो उस जगह से लुड़कते चले गये,
हम को पता नहीं था कि इतनी ढलान है।
देखे हैं हमने दौर कई अब ़खबर नहीं, 
पैरों तले ज़मीन है या आसमान है। 
वास्तव में बाहर से आए मुसलमान शासकों द्वारा ़फारसी लागू करनी उतनी नहीं चुभती, जितनी सिख राजाओं द्वारा पंजाबी सरकारी भाषा के रूप में लागू न करनी चुभती है। स्वतंत्र हिन्दुस्तान में भी पंजाबी के साथ लगातार अन्याय होता रहा है, क्योंकि हमने पंजाबी होने की बजाए हिन्दू-सिख तथा मुस्लिम होने को अधिक प्रथमिकता दी। 
चाहे इन कालमों में हम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा भाजपा  शासन में पंजाबी के साथ होते अन्याय के संबंध में भी खुल कर लिखते रहे हैं परन्तु हम मोदी सरकार का धन्यवाद करने से भी नहीं रह सकते कि इन्होंने हमारे मांगे, बिना संघर्ष किये, बिना किसी प्रयास के कुछ फैसले ऐसे किये हैं कि उनका लाभ देश की अन्य 13 क्षेत्रीय भाषाओं के साथ-साथ पंजाबी को भी होगा।   
क्या-क्या है उल्लेखनीय?
गौरतलब है कि सी.आर.पी.एफ. की भर्ती और इस भर्ती के लिए परीक्षा सिर्फ अंग्रेज़ी या हिन्दी में ही ली जाती है। परन्तु इस बार तमिलनाडू, तेलंगाना, कर्नाटका आदि राज्यों में इसका विरोध हुआ। सी.आर.पी.एफ. ने स्पष्टीकरण दे दिया कि कभी भी इन परीक्षाओं में क्षेत्रीय भाषा में प्ररीक्षा नहीं ली गई परन्तु दो दिन बाद ही केन्द्र सरकार ने आदेश जारी कर दिए कि अकेली सी.आर.पी.एफ. ही नहीं अपितु बी.एस.एफ., सी.आर.एस.एफ., भारत तिब्बत सीमा बल, सशस्क्ष सीमा दल तथा राष्ट्रीय सुरक्षा बल सहित सभी केन्द्रीय बलों की परीक्षा हिन्दी व अंग्रेज़ी के अतिरिक्त 13 अन्य भारतीय भाषाओं में भी ली जाएगी। इन 13 भाषाओं में पंजाबी भी शामिल है। इस समय पंजाबियों के लिए इससे ज्यादा खुशी का समाचार यह है कि यूनिवर्सिटी ग्रांट्स आयोग के प्रमुख एम. जगदीश कुमार ने भारत की सभी यूनिवसिर्टियों के वाइस-चांसलरों को पत्र लिख कर कहा है कि वह विद्यार्थियों को स्थानीय भाषाओं में परीक्षा देने की इजाज़त दें चाहे उनकी पढ़ाई का काम अंग्रेज़ी में ही पेश किया गया हो। आई.ए.एस., आई.पी.एस. तथा आई.आर.एस. जैसी सेवाओं  के मुकाबले की परीक्षा पहले ही पंजाबी में तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में दी जा सकती हैं, परन्तु हमारे पास पंजाबी में टैक्सट बुक (किताबें) ही नहीं हैं। अब केन्द्र सरकार ने पहली बार केन्द्रीय कर्मचारी चयन आयोग जो देश भर में केन्द्र सरकार के लिए मल्टीट्रांसकिंग (़गैर तकनीकी स्टाफ) भर्ती करता है, ने भी अपनी परीक्षा के लिए हिन्दी तथा अंग्रेज़ी के अलावा पंजाबी सहित 13 क्षेत्रीय भाषाएं भी शामिल कर ली हैं। इस उपलब्धि में पंजाबियों ने कोई ज़ोर लगाया, मांग तक भी नहीं की। पंजाब को यह तोह़फा उस प्रकार मिला है जैसे ईद का तोह़फा किसी ़गैर-मुस्लिम को मिले। इसलिए केन्द्र सरकार का धन्यवाद करना तो बनता है।
उस मेहरबां नज़र की इनायत का शुक्रिया,
तोह़फा मिला है ईद पे ़गो हम मुसलमां नहीं।
अब ज़िम्मेदारी पंजाब सरकार की
यह जो नये फैसले हुए हैं तथा इनमें पंजाबी भाषा को जो बहुत बड़े लाभ हो सकते हैं, वह सिर्फ तभी मिल सकते हैं यदि पंजाब सरकार इसके लिए पूरी तरह सुचेत होकर प्राथमिकता के आधार पर काम करे। यह तो अब पूरी तरह पंजाब सरकार की ज़िम्मेदारी है कि जब यू.जी.सी. ही कह रहा है कि स्थानीय भाषाओं में पढ़ाने को प्राथमिकता दें तो फिर शीघ्र से शीघ्र आवश्यक पाठ्य-पुस्तकें पंजाब में तैयार करवाई जाएं। यह हमारे मौजूदा ढांचे और भाषा विभाग के बस की बात तो नहीं लगती। इसलिए लिए ज़रूरी है पंजाब सरकार, पहले तो पंजाब की सभी सरकारी और गैर-सरकारी यूनिवर्सिटियों के वी. सीज़ की बैठक बुलाए और इसके लिए एक प्रारूप (रोड़ मैप) तैयार करे कि किताबें कैसे, कौन और कितने समय में तैयार करे। इसके लिए अलग और बड़ा फंड रखा जाए और इसे पूरा करने के लिए उच्च अधिकारियों का एक अलग विभाग भी स्थापित किया जाये और इसकी ज़िम्मेदारी भी किसी सचिव स्तर के अधिकारी को सौंपी जाए। चलते-चलते एक और महत्वपूर्ण बात याद आ गई कि किसी भी राज्य में अदालत की भाषा के तौर पर वहां की स्थानीय भाषा को हाईकोर्ट तक लागू करवाने के लिए सिर्फ राज्यपाल के आदेशों की ही ज़रूरत होती है। नि:संदेह पूर्व सरकारें भी यह नहीं कर सकीं लेकिन मौजूदा पंजाब सरकार में यह बात बहुत जोर से चर्चा का विषय बनी थी लेकिन आश्चर्यजनक  बात है कि पंजाब के पक्ष के इतने बड़े फैसले को लागू करवाने के लिए अभी तक राज्यपाल तक सम्पर्क करने का कोई समाचार तक दिखाई नहीं दिया।
वक्त ने कुझ तां करम कीतै मगर हुण,
मंज़िलां सर करना तेरी ज़िम्मेवारी।
(लाल फिरोज़पुरी)
शिरोमणि कमेटी ज़िम्मेदारी निभाए
नैशनल कौंसिल ऑफ एजुकेशन रिसर्च एंड ट्रेनिंग (एन.सी.ई.आर.टी.) द्वारा 12वीं कक्षा के पाठ्यक्रम में बड़े बदलाव किए गए हैं और बदलाव के अलावा सबसे ज्यादा चर्चा इतिहास की किताबों में से मुगल काल का काफी इतिहास शून्य किये जाने की है। यह सिख चिंतकों के लिए भी चिंता का विषय है, क्योंकि सिख इतिहास और मुगल काल साथ-साथ चलते हैं। साहिब श्री गुरु नानक देव जी से लेकर साहिब श्री गुरु गोबिंद सिंह जी तक का समय और इतिहास बाबर से लेकर बहादुर शाह तक साथ-साथ ही चला है। फिर बंदा सिंह बहादुर से लेकर सिख मिसलों का इतिहास भी अंग्रेज़ों के काबिज़ होने तक म़ुगलों के इतिहास के समानांतर चला है। इसमें दिल्ली ़फतेह तथा दिल्ली के सिखों के हमलों तथा जीत का ज़िक्र भी ज़रूरी है। इसलिए यदि स्कूलों, कालेजों की किताबों में म़ुगल काल का इतिहास शून्य किया जाता है तो डर है कि कहीं सिख इतिहास भी शून्य न हो जाए। इसलिए ज़रूरी है कि मौजूदा दानिश्वर तथा पूर्व सांसद तरलोचन सिंह द्वारा शिरोमणि कमेटी के प्रधान तथा एन.सी.आई.आर.टी. प्रमुख को लिखे पत्रों में दी सलाह को मान कर शिरोमणि कमेटी इस मामले को सिख दृष्टिकोण से जांचने के लिए उच्च कोटि के सिख शैक्षणिक विशेषज्ञों की एक कमेटी बनाए जो सिर्फ एक सप्ताह में किताबों में हुए बदलावों को सिख इतिहास के दृष्टिकोण पर विचार कर रिपोर्ट दे। फिर शिरोमणि कमेटी इस स्थिति से निपटने के लिए प्रभावशाली कार्रवाई करे। कहीं ऐसा न हो कि समय रहते सिख इतिहास भी मिथिहास में शामिल होकर समय की धूल में गुम हो जाए।
ताऱीख में महिल भी हैं हाकम भी तख़्त भी,
गुमनाम जो हुये हैं वो लश्कर तलाश करे।

-1044, गुरु नानक स्ट्रीट, समराला रोड, खन्ना
मो. 92168-60000