गोरों की साज़िश का शिकार रहा  काला शीशम

इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) की संकटग्रस्त सूची में शामिल काला शीशम हिंदुस्तान का वह पेड़ है, जो पहले अंग्रेजों और अब तस्करों की साजिश का शिकार है। एक जमाने में देश के कई इलाकों में यह पेड़ बहुतायत में पाया जाता था। मौजूदा आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में इसके लाखों लाख पेड़ थे। लेकिन साखू और सागौन से भी ज्यादा अच्छी लकड़ी वाले इस औषधीय वृक्ष की खूबियां ही इसके वजूद के लिए संकट बन गई। अंग्रेज बड़े पैमाने पर इसके पेड़ों को कटाकर घरों का फर्नीचर बनवाते रहे तथा इसकी औषधीय खूबियों के कारण इसका बहुत बड़े पैमाने पर अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में भी इस्तेमाल करते रहे। जिस कारण 19वीं शताब्दी में इसकी अंधाधुंध कटाई हुई। यही कारण है कि अब यह कुछ गिने चुने इलाकों में महज कुछ पेड़ों तक ही सीमित है। 
हालांकि इसे इंडियन फारेस्ट एक्ट-1972 के तहत काटना, व्यापार करना आदि कानून प्रतिबंधित है। लेकिन आज भी जहां यह काला शीशम पाया जाता है, वहां यह सुरक्षाकर्मियों द्वारा निगरानी के बावजूद तस्करों से बच नहीं पाता। इस पेड़ के साथ एक संकट यह भी है कि अभी तक इसे उगाना संभव नहीं हुआ। यह अपने आप ही उगता है। इसलिए जहां-जहां कुछ काले शीशम के पेड़ बचे हैं, सुरक्षाकर्मियों द्वारा इनकी गश्त लगाकर रखवाली की जाती है। लेकिन इसके बावजूद ये दिनोंदिन खत्म होते जा रहे हैं। पहले यह गोरखपुर के कैपियरगंज के जंगलों में काफी संख्या में मौजूद था, लेकिन साल 2010 में माफिया की नज़र इस पर पड़ी और अंधाधुंध गोलीबारी के बीच माफिया ने इसके बहुत सारे पेड़ कटवा लिए। अब इन जंगलों में काला शीशम के बहुत कम पेड़ ही बचे हैं। उत्तर प्रदेश में कैपियरगंज वन रेंज और बहराइच ज़िले में स्थित जंगल के अलावा और कहीं भी काला शीशम नहीं मिलता। 
दरअसल इसका संगठित रूप से उत्पादन इसलिए संभव नहीं है क्योंकि इसका बीज बहुत नाजुक होता है। इसलिए उससे नर्सरी नहीं तैयार की जा सकती। इसके बीज टूटकर गिरते हैं और जो खुद से जमीन में उग आये उन्हीं से ये पेड़ फिर तैयार होते हैं। लेकिन खुद से भी यह पेड़ आसानी से तैयार नहीं होता। 1000 से ज्यादा बीजों में कोई एक बीज पेड़ के रूप में उगता है, इस कारण भी यह बहुत दुर्लभ है। काला शीशम इसलिए सुनहरे सोने से भी ज्यादा कीमती है, क्योंकि काला शीशम के पेड़ का कोई ऐसा हिस्सा नहीं है जिसकी औषधीय उपयोगिता न हो। इसका तना, इसके छिलके, इसकी पत्तियां, इसकी लकड़ी, इसकी कोई ऐसी चीज नहीं है जिसमें जबरदस्त औषधीय गुण न होते हों। इसलिए अंतर्राष्ट्रीय औषधि बाज़ार में इस पेड़ की लकड़ी की भी बहुत मांग है, विशेषकर चीन, थाइलैंड सहित विभिन्न पैसिफिक देशों में। 
काले शीशम की लकड़ी मंडी में पहुंचते ही इसके खरीदार इस पर टूट पड़ते हैं। अब चूंकि यह प्राकृतिक रूप से ही पुनरोत्पादित होता है, इसलिए इसकी मांग से हमेशा ये बहुत कम होता है। हालांकि अब कई बोटेनिकल एक्सपर्ट इसके बाग लगाने की कोशिश कर रहे हैं और कुछ खबरों के मुताबिक इन्हें प्रारंभिक सफलता भी मिली है। पिछले साल बोटेनिकल सर्वे ऑफ इंडिया की एक टीम ने पश्चिम बंगाल के दलमा जंगल में कुछ उच्च गुणवत्ता के काले शीशम के पेड़ ढूंढ़े हैं, जिनके बारे में माना जा रहा है कि उन्हें लगाया जायेगा। काला शीशम कई बीमारियों में आधुनिक दवाओं से भी ज्यादा कारगर है, विशेषकर पेट दर्द, मोटापा, अपच और पेशाब संबंधी परेशानियों में काले शीशम के पत्ते का काढ़ा रामबाण की तरह असर करता है। हैजा में शीशम की गोलियां खाने से फायदा होता है। 
अंग्रेजों के जमाने में जब कई बार बड़े स्तर पर हैजा फैला था तो काले शीशम की गोलियों से ही उस पर काबू पाया गया था। आंख दर्द में भी शीशम के पत्तों का रस बहुत शर्तियां फायदा पहुंचाता है। बुखार, जोड़ों के दर्द गठिया, रक्त विकार, पेचिश के साथ-साथ कुष्ठ जैसी बीमारी में भी काला शीशम से उपयोगी दवाएं बनती हैं इसलिए भी अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में इसकी मांग है। करीब 30 मीटर तक ऊंचे काला शीशम के पर्णपाती वृक्ष भारत के अलावा नेपाल और श्रीलंका में भी पाये जाते हैं। लेकिन भारत जैसी स्थिति इसकी नेपाल और श्रीलंका में भी है। भारत में यह पश्चिमी घाट तथा मध्य भारत के वनों में एक जमाने में बहुत बड़ी संख्या में था। इस वृक्ष को पहचानने का एक तरीका यह है कि इसकी छाल को कुरेदने या काटने पर इससे लाल रंग का तरल स्राव बहने लगता है, जिसे आदिवासी रक्तस्राव कहते हैं। 
हैरानी की बात यह है कि इस पेड़ का यह रक्तस्राव धीरे-धीरे खून की तरह ही गाढ़ा होता जाता है। इस पेड़ के साथ समस्या यह है कि अब देश के किसी भी हिस्से में इसका प्योर पैच नहीं है। छिटपुट रूप में यह कहीं कहीं मिलता है। माना जाता है कि मधुमेह या शुगर की बीमारी इसके रक्तस्राव का सेवन करने से हर हाल में खत्म हो जाती है। इतने कीमती और दुर्लभ पेड़ को बचाने और इसकी संख्या को बढ़ाने के लिए सरकार की विभिन्न संस्थाएं प्रयास में हैं और अगर सब कुछ सही रहता है तो एक दो दशकों बाद भारत में फिर से काला शीशम बड़ी संख्या में उपलब्ध होगा। लेकिन जब तक नहीं है, तब तक तो ये पेड़ जहां भी हो, इसकी सुरक्षा हम सबका दायित्व है ताकि आज नहीं तो कल इसकी वंश वृद्धि की जा सके।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर