प्रधानमंत्री की ‘मन की बात’ का शतक

प्रत्येक माह के अंतिम रविवार प्रसारित होने वाली प्रधानमंत्री की ‘मन की बात’ 30 अप्रैल को एक शतक पूरा कर चुकी है। यह सबब की बात है कि यह शतक मई दिवस से पहली रात पूरा हुआ। उस दिन जिसे विश्व भर के गरीब मज़दूर दिवस मनाते हैं। मोदी जी के मन की उड़ान में गरीबों के तन का ज़रूरतों के बिना सब कुछ है। सफाई, योगा, खादी, खेतों, स्वास्थ्य सेवाएं, बहादुरी तथा सशक्तिकरण आदि। सैंकड़ों बार दोहराए जाने तक। परन्तु किसान मज़दूरों तथा गरीबों के तन की बात इसमें अधिक महत्व नहीं मिलता। जबकि इन मामलों में बहुसंख्यक से भी अधिक जनता की दिलचस्पी है। 
एक कथामाला का शतक पूरा करते समय मीडिया ने यह बताने पर भी ज़ोर दिया है कि 3 अक्तूबर, 2014 से आरम्भ हुआ यह प्रसारण 23 भाषाओं में विश्व भर के लोगों तक पहंचाया जाता है। इसमें फ्रांसीसी, चीनी, इन्डोनेशयन, तिब्बती, बलोची, अरबी, फारसी आदि शामिल हैं। यदि इनमें उत्तर पूर्व की 25 तथा छत्तीसगढ़ की 4 उप-भाषाएं भी शामिल कर ली जाएं तो भारत के प्रधानमंत्री की ‘मन की बात’ का किसी भी देश का कोई प्रमुख मुकाबला नहीं कर सकता। आम भारतीय को इसका क्या लाभ हुआ, समय बताएगा। 
आरडी कैले का शिव कुमार बटालवी
लोकप्रिय पंजाबी कवि शिव कुमार को इस दुनिया से गए 50 वर्ष हो गए हैं। उसके मित्र तथा प्रशंसक उसकी याद तथा देन को अपने-अपने ढंग से अपने मन में बसाए बैठे हैं। गायक व संगीतकार आरडी कैले उनमें से एक है। उसने उसकी 50 गीतों तथा गज़लों को अपनी धुन में गा कर यू-ट्यूब पर डालने का बीड़ा उठाया है। इससे आधी रचनाएं तो वह पहले ही तैयार करे बैठा है और शेष की 25 उसने हाल में ही कम्पोज़ की हैं।
वह धुन का इतना पक्का है कि उसने इन्हें रिकार्ड करते हुए 10 दिन और किसी काम को हाथ नहीं डाला। 7 मई, 2023 के दिन शिव कुमार को अलविदा हुए 50 वर्ष होने हैं और इसकी पूर्व संध्या  6 मई को वह चंडीगढ़ की पंजाब आट्स कौंसिल के रंधावा आडिटोरियम को शिव के प्रशंसकों तथा उनके मित्रों को निहाल करने का वचन भी निभा चुका है। उसकी ओर से चुनी गईं रचनाओं के शब्द हैं—असां तां जोबन रुत्ते मरना, अज्ज असीं तेरे शहर हां आए, माये नी माये मैं एक शंकरा यार बनाया, मैं अधूरे गीत की एक पंक्ति हां, बिरहा बिरहा आखीये, बिरहा तूं सुल्तान, अज्ज फेर कोई लै गया मेरा गम, अज्ज दिन चढ़िया तेरे रंग वरगा, तैनूं चुम्मण पिछली संग वरगा, नी इक मेरी अक्ख काशवी, दूजा रात दे उनीदरे ने मारिया आदि। 
शिव कुमार के निधन का समाचार मुझे अंडमान उर्फ काले पानी के पोर्ट ब्लेयर गैस्ट हाऊस में मिला था। अंडमान को काले पानी क्यों कहते हैं, सब जानते हैं। एक शाम मैं वहां अकेला तथा उदास बैठा था कि डाकिये ने मेरी पत्नी का वह पत्र पकड़ाया, जिस में शिव कुमार बटालवी के इस दुनिया से चले जाने का समाचार था। मैं उदास हो गया और उदासी की अवस्था में मुझे उसका लिखा गीत याद आ गया : 
असां तां जोबन रुत्ते मरना
मुड़ जाणा असां भरे भराये
हिजर तेरे दी कर प्रकरमा
कविता के यह शब्द दोहराते हुए मेरी आखों में आंसू आ गए। मुझे आंसुयों से ढाढस मिल रहा था। एक प्रकार की मुक्ति। खलास। करुणा। शिव के अपने शब्दों के बिना मेरे पास कोई भी नहीं था, जिसके साथ मैं उस समय की अपनी मन की अवस्था साझी करता। 
यौवन ऋतु मरना शिव कुमार का संकल्प था या भ्रम इसका निर्णय तो इतना आसान नहीं परन्तु इस भ्रम या संकल्प वाले लोग सदा बड़ी उपलब्धियों के इच्छिक होते हैं। 31 वर्ष की आयु में भारत की साहित्य अकादमी का पुरस्कार ही नहीं बल्कि 37 वर्ष की अल्प आयु में शिव को पंजाबी जगत से संबंधित प्रत्येक तरह के सम्मान प्राप्त हो चुके थे। अपनी आयु का वह एकमात्र लेखक था जिसकी ‘लूणा’ पर ज्ञानपीठ अवार्ड के लिए भी विचार-विमर्श हुआ था। 
शिव कुमार के मन में दुनिया को अलविदा कहने की जल्दी थी। शायद यही कारण है कि 1960 में ‘पीड़ां दा परागा’ के माध्यम से निजी दर्द को दर्शाने के बाद जल्द ही उसने ‘लाजवंती’ (1961) के माध्यम निजी मुश्किलों द्वारा अप्रिय समाजिक कीमतों पर खूबसूरत टिप्पणी की थी। 1962 में प्रकाशित ‘आटे दीयां चिड़ियां’ काव्य संग्रह भी उसके मन पर हावी गम की एक झलक ही पेश करता है। 1963 में ‘मैनूं विदा करो’ के प्रकाशन के माध्यम से उसने मन की भावना को प्रत्यक्ष रूप में उजागर किया था। 1960 से 1963 तक चार वर्षों में चार संग्रह—जैसे विदा होने की गति को तेज़ कर रहा हो।
1965 में ‘लूणा’ की रचना तथा प्रकाशन द्वारा उसने समाज तथा विरह की परिक्रमा करके भरे मन से लौट जाने की तैयारी कर ली थी। 1965 से 1973 तक शिव कुमार ने नई रचना सिर्फ ‘मैं ते मैं’ ही दी। समूचे तौर पर उसने पुरानी रचना का ही गायन किया और आनंद लिया।
शिव की कविता की प्रशंसा बहु-रंगी है। एक रंग प्रबल है। ज़िन्दगी को जीना और खूब जीना : 
नी जिंदे मैं कल नहीं रहना 
अज्ज रातीं असां घुट साहां विच
गीत दा इक चुम्मण लैणा
कल तक पीड़ मेरी नूं समियां
वर लै जाना ज़ोरीं।
उसकी कविता का यह गुण ही उसे प्रत्येक काल और प्रत्येक युग का समकक्ष बनाता है। 
ऐस गीत दा अजब जिहा सुर 
डाढा दर्द रंवाणा।
कत्तक माह यह दूर पहाड़ीं
कूंजां दा कुरलाणा
काली राते सरकड़ियां ‘चों
पौणां लंघ जाना।
इह मेरा गीत मैं आपे गा के
भलके ही मर जाना।
शिव कुमार की विछोह को 50 वर्ष हो चुके हैं। वह अभी भी मरा नहीं।
आर.डी. कैले जैसे अनेक उसे जीवित रखेंगे। याद रहे कि कैले एफ.ए.  में  पढ़ता था जब उस पर शिव का प्रभाव पड़ा। अब उसे संगीत जगत में विचरण करते हुए 35 वर्ष हो गये हैं और अनेक कार्यक्रमों में शिव की रचनाएं प्रस्तुत कर चुका है। 50 गीतों को यू-ट्यूब पर डालना इनका शिखर है। कैले पर हम सभी का शिव कुमार ज़िन्दाबाद।
अंतिका
(मिज़र्ा गालिब)
रहीये अब ऐसी जगह ढल कर जहां कोई न हो
हम सुखन कोई न हो और हम ज़ुबां कोई न हो
बेदर-ओ-दीवार सा इक घर बनाना चाहिए 
कोई हमसाया न हो और पासबां कोई न हो
पड़िये गर बीमार तो कोई न हो बीमारदार
और अगर मर जाइये तो नौहाख्वां कोई न हो।